Saturday, August 11, 2018

जीवन पथ पर आत्मावलोकन

जीवन चक्र घूमता है तो घूमता चला जाता है, तब आपके पास न तो हाथ में ब्रेक होता है और न ही हार्न जो मार्ग को निष्कंटक बनाने में सहायक हो। सर पर हैलमेट न होने से खतरा और भी बढ़ जाता है। जीवन में कई ऐसे अवसर आते है, जहां आपको सब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ जाना होता है, आगे खाई है या ऊंचे पहाड़ बस, चलते जाना है। इसी क्रम में आज अपने पुराने ब्लॉग से सामना हो गया। कई पुराने बीते पल याद आ गए।

छह वर्षो के बाद इस ब्लॉग पर आना हुआ। फुर्सत के पलों के अभाव में भी रचनाक्रम से जो मानसिक संतुष्टि मिलती थी, वो कहीं गुम हो चुकी थी। सिर्फ आगे बढने के जुनून में आत्म संतुष्टि प्रदान करने वाली रचनाधर्मिता का पुन: हासिल होना, बेहद रोमांचित करने वाला पल बन जाता है। यह पल संजोए जाने योग्य है। 

Wednesday, April 4, 2012

दुर्लभ पुस्तको का संग्रहण और उपलब्धता

इस देश में ज्ञान विज्ञानं की कई दुर्लभ पुस्तके यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं , उन के गुणग्राहक भी कम होते जा रहे हैं, उनकी उपलब्धता तो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। हिंदी पट्टी में इस मिजाज की शुरु से कमी रही हैं। लोग संग्रह करते नहीं, दुर्लभ पुस्तके हो तो उसकी चर्चा नहीं करते, किसी गुणग्राहक को उपलब्ध करना तो मुश्किल ही हैं। अंग्रेज इस मामले में हमसे आगे रहे हैं । उन्होंने कई महत्व की चीजे पहले ही संग्रह कर ली और उसे अपने देश ले गए। कुछ तो अनुवाद के साथ प्रकाशित भी किये। अभी कल की बाट हैं, नेपाल के राजप्रसाद में संगृहीत कालिदास रचित देवी स्त्रोत देखने को मिली। भगवती के श्री मुख से स्वयम की स्तुति वंदना। एक श्रद्धालु ने इसे प्रकाशित करा कर निशुल्क वितरित किया। पता चला कई विद्वानों ने नेपाल से निकल कर इस सामग्री के भारत-- बिहार आने के बाद साऊथ में ले कर चले गए थे जहा इसमें कुछ तथ्य जोड़ कर उसे प्रकाशित कराया था। बाद में वह भी मिलना मुश्किल हो गया । दावा किया गया की यह दख्खनमें पहले से उपलब्ध हैं। खैर, हम तो उस की प्राचीनता और उसकी उपादेयता को ले कर चिंतित हैं , क्या ऐसी दुर्लभ सामग्रियों को भारत में धुल ही खाना नसीब होता हैं। हमारे पेड़ पौधे, खाद्दान, परम्पराए सब पर जब तक पश्चिम की मुहर नहीं लगे, तब तक क्या वह महत्व की नहीं हैं। लाईब्रेरियो में बिखरी ऐसी सामग्रियों का कोई कद्रदा नहीं मिलता। सरकारी संस्थाए पैसे और अवार्ड की लुट खसोट में जुटी हैं । आखिर कब तक हमारी रगों में अपनी विरासत के प्रति ऐसा ठंडापन रहेगा। मैंने अपनी आँखों तीसरी से लेकर ९ वी शताब्दियों तक के भारतीय विद्वानों द्वारा लिखित भाष्य, टीका, पुस्तके देखी हैं। जिनके नाम भी सुनने को नहीं मिलते। कई पुस्तके तो तत्कालीन अंग्रेज अफसरानो द्वारा जिलो में तैनाती के दौरान संगृहीत की गयी और उसे अंग्रेगी अनुवाद के साथ प्रकाशित की गयी। उनके भी खस्ता हाल हैं । क्या हम ज्ञान को ले कर इस ज्ञान युग में दुसरो पर आधारित रहेंगे। बिहार के कई गाव आज भी हैं जहा १२ वी सदी की दुर्लभतम पुस्तके जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। देश में सरकारे घपलो घोटालो में जुटी हैं। नैतिक पतन पराकाष्ठा पर हैं। दिखावे की दुनिया अजब तेरी रीत, गजब तेरी प्रीति। इंटेर नेट के युग में भाषाए तो लुप्त हो ही रही हैं हमारे अमूल्य ज्ञान भी खोते जा रहे हैं। वे लोग जिन्होंने अथक साधना के बाद दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति की, उसे जन सामान्य के लिए सुलभ कराया , हम उसकी कद्र न कर सके।
फंतासिया गढ़ते रहे, रोजमर्रा की सामने थी दुश्वारिया -- न वो समझ सके न हमें समझ हुई ।

Tuesday, March 27, 2012

बोलियों के बीच खड़ी बोली हिंदी

भारत में कई बोलिया हैं जो हिंदी पट्टी में बोली और हिंदी भाषियों के बीच स्वीकारी जाती हैं। २०११ की जनगणना में इनकी संख्या भी दर्शायी गयी हैंजो की दो अंको में हैं। साथ ही एक सर्वमान्य तथ्य हैं कि खड़ी बोली को ही हिंदी मान लिया गया हैं। अवधी, ब्रज, भोजपुरी सहित अन्य बोलिया हिंदी के पास नहीं दिखती। खड़ी बोली का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में न केवल हिंदी पट्टी में बल्कि अन्य क्षेत्रो में की जाने लगी हैं। ऐसे में वर्तमान हिंदी के मानक रूप को विस्तृत पटल पर ले जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही हैं। हिंदी की नीरसता को दूर करने की दृष्टि से ऐसा करना जरुरी हैं । आम पाठको तक उसे ले जाने की पहल आवश्यक हैं। हिंदी भाषा का शब्द सामर्थ्य दिनों दिन बढे , उसकी सर्व ग्राहता में इजाफा हो। ऐसा नहीं की हिंदी की अन्य बोलियों में ताजगी और भावो की अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं हैं। कई शब्द तो विशिष्टता के साथ अपनी अभिव्यक्ति में सफल हैं। दूसरा पक्ष ये भी हैं कि क्या मानक हिंदी में छेड़छाड़ की जानी चाहिए। क्या भाषा की शुद्धता की दृष्टी से ऐसा किया जाना उचित होगा। भाषा को कोई एक मानक आधार तो चाहिए ही जिस पर रचना की प्रक्रिया निर्धारित की जा सके । यहाँ ध्यान रखने की जरुरत हैं कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी को अब गैर जरुरी मान लिया गया हैं। सुधि पाठक इसे अपनाने में कठिनाई महसूस करते हैं। आज की युवा पीढ़ी तो कंप्यूटर के की बोर्ड पर हिंदी शब्दों को अंग्रेजी में लिखती हैं। उनके लिए तो क्लिष्ट हिंदी को भाव रूप को प्रस्तुत करना असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल भरा काम अवश्य हैं। फिर कैसे हमे विभिन्न बोलियों के बीच खड़ी बोली को रखना हैं या सब की स्वतंत्र सत्ता को गडमड करना हैं इस पर विचार करना होगा। लोकतान्त्रिक प्रणाली में सब बोलियों की अपनी अहमियत हैं तो क्या हमें खड़ी बोली के समक्ष अन्य बोलियों की प्रतिस्पर्धात्मक स्वरुप को खड़ा करना होगा। इससे इतर भी एक स्वरुप ये भी हो सकता हैं कि हमें सब को समान भाव से अंगीकार करते हुए उसे के नये स्वरुप को स्वीकार कर लेना होगा.

Saturday, February 4, 2012

मानसिक रूप से बीमार बच्चे की तरह हैं भारतीय लोकतंत्र

सुप्रीम कोर्ट का २ जी स्पेक्ट्रम मामले में दिया गया फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ जबरदस्त हमला हैं। भारतीय लोकतंत्र का दुखद पहलु यह हैं की जितना देर से सरकारी राशी के गबन या भ्रष्ट आचरण की जाँच होती हैं, उससे कही ज्यादा देर न्याय निर्णय के आने में लग जाता हैं । लम्बी सुनवाई के बाद जब फैसला होता भी हैं तो उसे अमलीजामा पहनने में और भी देर हो जाती हैं । न्याय की जरुरत ऐसी हैं जो न्याय होता दिखे। आम आदमी के गाढ़ी खून की कमाई को डकार कर कैसे कोई रह सकता हैं। संसद में जिस प्रकार की नुख्ताचिनी होती हैं , वह लोगो के गले नहीं उतरती। भारतीय लोकतंत्र के हालत मानसिक रूप से विकलांग बच्चे की तरह हैं। ६० साल से ऊपर की उम्र हो चुकी लेकिन लोकतान्त्रिक मानसिकता १५ साल के बच्चे की तरह हैं । सरीर रोग से जीर्ण शीर्ण होने चला हैं लेकिन हम हैं कि अभी लेमनचूस के लिए लड़ रहे हैं । भारतीय प्राकृतिक संसाधनों कि जिस प्रकार बंदरबाट कि जा चुकी हैं उससे अव्यवस्था होनी ही हैं । हम भारत के लोग लोकतान्त्रिक गणराज्य का दावा करते हैं और मानवता कि दुहाई देते हैं किन्तु हर नागरिक दुसरे के अधिकारों के अतिक्रमण में जुटा हैं ।
२ जी या कोई भी घोटाला नियमो कायदों को तक पर रख कर कैसे हो जाता हैं जबकि एक सामान्य आदमी को राशन कार्ड बनाने से लेकर अस्पताल में इलाज करने तक कु व्यवस्था का अंतहीन दौर देखना पड़ता हैं । अन्ना के समर्थक हो या विरोधी, गाँधी के अनुयायी हो या सुभाष के भ्रष्टाचार के कोढ़ से कौन अछूता हैं। पर्यटन , उधोग या उपभोक्ता वर्ग को संतुष्ट करने वाले सामानों के ब्रांड अम्बेसडर बनाने से तो बेहतर हैं सामाजिक राजनीतिक कुरीतियों के खिलाफ शंखनाद करे। पोलियो को जड़ से मिटाए , कुपोषण दूर करे। बच्चो को शुद्ध दूध उपलब्ध कराए, देश में उर्जा शक्ति, सैन्य शक्ति का विकास करे।

Monday, January 2, 2012

नववर्ष का आगमन, नई उर्जा का संचार

नई उर्जा, नई चेतना, हर चीज में नयापन, दृष्टी नई , सोच नई, नया कुछ करने का संकल्प । नए वर्ष का शुभ आगमन। भारत भूमि की उर्वरता बढे , अन्न हमारी रगों में नई जोश और उमंग का संचार करे। जल अपने सा निर्मल बनने की प्रेरणा दे, वायु जीवन को गतिशील बनाए, उर्जावान बनाए। छितिज की ओर दृष्टी हो, जो कभी न मिलकर भी अपनी सम्पूर्णता का अहसास कराए। आकाश ईश्वर की कृपा हम सबो के प्रति बनाए रखे। अग्नि तो स्वयं देव हैं, वे हमारे कष्टों का निवारण कर कुंदन सी आभा प्रदान करे। जब हम नए का सृजन करते हैं तो पहला अन्न ईश्वर को समर्पित करते हैं, भारत भूमि की मिटटी में इस संस्कृति का विस्तार हुआ हैं। हम सब उसी परम पिता की संतान हैं जिसने हमें जन्म दिया हैं , जीवन बक्शी हैं। क्षमा हमारा धर्म हैं, परोपकार करना हमारा कर्तब्य हैं । अंग्रेजी कैलेंडर किसी नई बात का सृजन नहीं करता, वह धान की कटनी के बाद आयोजित होने वाला हर्षौल्लास का वक्त नहीं हैं , फिर भी हम तनाव से इतने भरे हैं कि ख़ुशी का एक पल इसमें ढूढ़ लेते हैं। उत्सव के बिना जीवन एकाकी हो जाता हैं, यही कारण हैं कि हम किसी के विदा लेने पर दुखी हो जाते हैं तो किसी के मिलने पर खुशी का अनुभव करते हैं । जीवन में पल प्रति पल छुट रहे को हम नहीं अनुभव कर रहे, वर्ष में एक दिन संकल्प का ढूंढते, यह दिन हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता हैं। हम पल प्रति पल को महत्वपूर्ण बनाए तो कितना सुन्दर हो । आइये, हम अपनी सकारात्मक उर्जा को राष्ट्र सेवा में लगाये। भ्रष्टाचार का खात्मा करे , शांति स्थापित करे

Tuesday, December 20, 2011

भिखारी के गांव में अनगढ़ कला का सौन्दर्य बोध

" जा उधो अतने सुधि काहीह, तनिको सहत नइखे पीर,कहत भिखारी बिहारी न आइले, फूटी गईले तक़दीर " गीत की प्रस्तुति और लाल जैकेट में लोक मंच पर विदेशिया की भूमिका में उतरे ८० वर्षीय गोपाल जी, बटोही शिवलाल व् प्यारी सुन्दरी बने लखन मांझी ने जब समा बंधा तो शामियाना में ठिठुरते दर्शको के बीच उत्साह का संचार हो गया , तालियों की गूंज उनकी गर्म जोशी को व्यक्त करने लगी। इसके पूर्व " लव कुश के सामने सब के टूटल अभिमान- भगवान भगवान के बोल पर झाल व तबले की थाप लगी तो मुबई फिल्म इंडस्ट्री के नामचीन कलाकार भी अपने को रोक न सके । सबके पैरो और उंगलियों की थिरकन सी आ गयी। मौका था लोक चेतना के महान विभूति भिखारी ठाकुर की १२४ वी जयंती पर उनके गांव कुतुबपुर में सांस्कृतिक महोत्सव का। मिटटी की खुशबु, भोजपुरी की खनकव् लोक कलाकारों का भिल्हारी ठाकुर के प्रति अनन्य श्रधा की बानगी देखते ही बन रही थी। कुतुबपुर में अनगढ़ कला का अनुपम सौन्दर्य बोध हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। पटना मुंबई की चमक दमक से दूर दियारा छेत्र में गांव गवई के बीच स्थानीय भाषा में उठी यह सांस्कृतिक गूंज विरासत के प्रति अनन्य आस्था को अभिव्यक्त कर रही थी।

Thursday, November 17, 2011

१०० वर्षो बाद बटवारे की राजनीति

आज से ठीक १०० वर्ष पहले १९११ में ब्रिटिश हुकूमत ने अपने स्वार्थ के मद में अंधे हो कर बिहार के विभाजन का निर्णय किया था, १९१२ में बिहार बंगाल से अलग हो गया। थोडा पीछे देखे तो १९०५-०६ में बंग भंग के विरोध में एक लहर सी देश में उठी थी। आज भी हम उसी मानसिकता में जी रहे हैं। छोटे राज्यों की हिमायती कम नहीं हैं इस देश में लेकिन क्या हम राज्यों के विभाजन से प्रदेश के विकास की कल्पना कर सकते हैं , यह एक प्रश्न चिन्ह हैं। फिर से उत्तर प्रदेश को चार भागो में बाटने की कोशिश की जा रही हैं। क्या कोई विजित या विजेता राष्ट्र की तरह लोकतंत्र को हाक सकता हैं। देश पहले ही १९४७ में एक बड़े बटवारे का दंश झेल चूका हैं। इसके बाद भी राज्यों का पुनर्गठन किया गया हैं। क्या सभी विभाजित राज्यों के विकास अथवा पिछड़ेपन को ले कर कोई स्वतंत्र अध्ययन हुई हैं। विभाजन के अतिरिक्त क्या कोई अन्य उपाय नहीं हैं । आज झारखण्ड, छतीसगढ़ व् उतरांचल के विकास की रूपरेखा क्या संतोषप्रद हैं। सिर्फ राजनितिक स्वार्थ के लोभ से सब कुछ बाट देना कहा तक उचित हैं। राजनीतिक लोगो से भी गुजारिश हैं , बंद करे यह बटवारे की राजनीति। एक गाना यद् आता हैं - इस दिल के टुकड़े हजार हुए कुछ यहाँ गिरा कुछ वहा गिरा। कभी तो एकता, विकास और मुल्क की तरक्की की बाते करे। आजादी के ६० सालो बाद भी हम कहा हैं , इस देश में महात्मा गाँधी की सोच और सपनो का भारत कहा हैं , इसे ढूंढे। आधुनिकता की अंधी दौड़ में देश को रसातल में न ले जाये। अमीरी और गरीबी की बढती खाई आज १०० गुनी चौड़ी हो गयी हैं। इसे पाटने का प्रयास करे

Friday, October 21, 2011

महलो से छन कर रौशनी झोपड़ो तक पहुचे

सावधान हो जाये, दीपावली में एक बार फिर मिलावटी खाद्य पदार्थो की बिक्री चरम पर हैं। बिहार व् उत्तर प्रदेश में पुलिसे की हो रही लगातार छापेमारी से मिलावटी वस्तुओ की बरामदगी जारी हैं। अब तो हर आदमी कोई टेस्ट पेपर ले कर नहीं घूम रहा, दूसरी ओर बाजार उनकी सेहत और पैसे पर नजर गडाए हुआ हैं। अब तो हमारे पर्व त्यौहार भी मिलावट करने वालो के लिए एक अवसर में तब्दील हो चूका हैं । कौन इन पर निगरानी रखे जब मुहल्ले के छोटे छोटे दुकानों से लेकर बड़ी दुकानों तक में ये रोग फैल गया हो। आये , हम अपनी सेहत और श्रद्धा का खुद ख्याल रखे । दीपावली के दिन बच्चे, बड़े स्त्री व् पुरुष सभी मुह मीठा करते हैं, अगर मिठाई नकली हो तो जायका तो बिगड़ेगा ही साथ ही डाक्टर की शरण में जाना पड़ सकता हैं। आजकल बड़े बड़े बिजनेस फार्म अपने शुभचिंतको को विशेष कर सरकारी महकमो में कम करने वालो को मिठाई गिफ्ट करते हैं । यह एक नए किस्म का भ्रष्टाचार हैं। इससे हम अपने बच्चो को कौन सी खुशिया दे देंगे पता नहीं। अव्वल इन मिठाइयो के आर्डर व पैकिंग कई दिनों पूर्व से होने लगती हैं , इसे में इन्हें खा कर धोखा भी हो सकता हैं । हमें अपने घरो में दिए जलाने के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए की आजाद भारत में अब भी कई ऐसे घर हैं जहा सालोभर रौशनी नहीं होती क्या इन घरो को रौशन करना हमारा दायित्व नहीं हैं । देवी लछमी क्या उधर भी देखेंगी। ५४० टन सोना भारत में बिक्री के लिए आयात किया गया हैं, सोने की मांग भारत में प्रति वर्ष बढ़ रही हैं, क्या इन गरीबो की झोपडी में भी सोना बरसेगा। लाखो भारतीय आज भी स्वच्छ पेयजल, शौचालय को तरसते हैं , खाने को दोनों वक्त भोजन नसीब नहीं होता...क्या उन तक जरुरत की चीजे उपलब्ध कराइ जा सकती हैं। आप कहेंगे कौन इतना सोचता हैं, लेकिन यह जान ले की इन समस्याओ से मुह मोड़ कर हम अपने पैरो पर कुलाढ़ी मार रहे हैं , टैक्स में बढ़ोतरी, महंगाई की चरम सीमा, महंगी होती सुबिधाये एक दिन अपने साथ साथ सब को डुबोने में कामयाब होगी, जिस पश्छिम की नक़ल में हम बेतहासा भाग रहे हैं वो उसी तरह बर्बाद करेगी जिस तरह आज उन मुल्को में दिखाई पड़ रहा हैं। आइये इस बार दीपावली में कुछ ऐसा करे कि महलो से छन कर रोशनी कि कुछ छटा झोपड़ो पर भी पड़े , ताकि उनके घर आँगन में भी देवी कि कृपा हो और हम सब भारतवासियों का जीवन खुशहाल हो। देवी लछमी की सवारी हर घर तक पहुचे। मिल्लत और खुशियों से अपना चमन गुलजार रहे । आप सोना ख़रीदे तो गरीब के पास एक थाली तो हो जिसमे वो भरपेट खा सके, उसमे कोई छेड़ न हो सके।

Wednesday, September 28, 2011

नवरात्र का शुभारम्भ, बुराइयों का हो सर्वनास

आज से अश्विन मास की नवरात्र का शुभारम्भ हो गया। माँ दुर्गा सब की मनोकामना पूर्ण करे, बुराइयों का सर्वनास हो। माँ की आराधना के अवसर पर हम २ जी घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, शहीदों के नाम पर बनने वाले आदर्श सोसायटी में घोटाला इत्यादि से मुक्ति का संकल्प ले। भारत माता के मान-सम्मान और मर्यादा को ह्रदय में स्थान देते हुए , राष्ट्र प्रेम का अलख जगाये। मशहुर उक्ति हैं कि कफन में जेब नहीं होती, फिर यह धन लिप्सा आखिर क्यों, दुसरो के अमन चैन को लुट कर एसी में साउंड स्लिप का प्रयास क्यों । अपने पूर्वजो को याद करे, कैसे अंग्रेजी दस्ता के बीच आनंद मठ के रचयिता बकिम चन्द्र चटर्जी ने जननी जन्मभूमि की वंदना माँ भवानी के रूप में की हैं। इस मिथ्या जगत में निवास करते हुए क्या जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञता ब्यक्त नहीं की जा सकती। जिस भूमि ने पीने को जल दिया, खाने को फल फूल दिए, जिसकी आगोश में विश्राम किये, जिसने छाती भर श्वास लेने को शुद्ध वायु प्रदान किये , क्या हम इतने कृत्घन हैं, उसे अपना प्यार व स्नेह भी नहीं दे सकते, उसे प्रदुषित करते रहे , उसकी चिंता करने की जगह, उसकी संपदा का सार्वजनिक उपयोग करने की जगह हम लुट खसोट में जुटे हैं , जेल जाने को शान समझ बैठे हैं। बाजार की हवा ने सब कुछ बिकाऊ बना दिया हैं। माँ दुर्गा हम सब को सदबुधि दे, स्त्रियों का सम्मान हो, स्त्रिया अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। बच्चे अनुशासित व संस्कार युक्त बने। सिर्फ नुकसान के भय से पूजा या आराधना करना अपने आप को संतुष्ट करने का थोथा प्रयास हैं । आये हम सर्वजन हिताय , सर्वजन सुखाय की मंगल कामना से पूजनोत्सव में शामिल हो.........

Tuesday, August 23, 2011

केंद्र की हठधर्मिता और देश में तूफान का आगाज

अन्ना हजारे के सत्याग्रह को लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध राष्ट्र व्यापी माहौल बना हैं । यह एक दिन की पीड़ा नहीं , आजादी के बाद से गरीबी की चक्की में पिसते लोगो की भ्रष्टाचार ने कमर तोड़ दी हैं। टूटे हुए लोगो की पीड़ा से अन्ना की पीड़ा जा कर जुड़ गयी हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव, पूंजी का केन्द्रीकरण , राष्ट्रीयता की भावना का लोप कई ऐसी समस्याए हैं जो व्यक्ति के विकास में बाधक बने हुए हैं। भारत के राष्ट्रीय चरित्र में जिस प्रकार की गिरावट आई हैं वो शर्मशार करने वाला हैं। संसद की सर्वोचता को लेकर बेबजह बहस चलायी जा रही हैं। क्या इस देश में आम नागरिक या ग्राम पंचायतो की सर्वोचता को लेकर कभी विचार किया हैं। क्या हमारे लिए हमेशा बेघर, भूखे ,निहंग लोगो की आवयश्कता गैर जरुरी रहेगी। इस देश में लुट का खेल चलता रहे और लोग देखते रहे ऐसा कबतक चलेगा। अन्ना कोई नई या अनोखी बात नहीं कर रहे हैं वो तो सिर्फ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को आइना दिख रहे हैं । वे संसद में क्या करते हैं , उन्हें क्या करना चाहिए । क्या कोर्ट या जन दबाब के बाद ही सरकारे जगती रहेंगी । उनकी अपनी कोई जिम्मेवारी नहीं हैं । विरोधी दल के बाते राजनीतिसे प्रेरित मन ली जाती हैं । सत्ता सञ्चालन में विरोधी दल की भी प्रमुख भागीदारी होती हैं। आम आदमी भी गजट के प्रकाशन से सीधा सम्बन्ध रखता हैं । नहीं तो फिर जनता की राय लेने गजट के प्रकाशन का आखिर क्या मकसद हैं । मिडिया जो आज अन्ना के साथ चिल्ला रही हैं उसे भी अपनी गिरेबान में झाकना होगा। मंत्री जेल जाये और २ जी में शामिल मिडिया की हस्ती बाहर रहे ऐसा नहीं हो सकता। भ्रष्ट आचरण हमेशा निंदनीय हैं । सिर्फ फैशन के लिए सत्याग्रही होना और बात हैं । महात्मा गाँधी के समय भी जेलों में जा कर फाकते उड़ना और बरसाती मेढको की भाती सत्याग्रही बन जाने की बाते प्रमुखता से होती थी लेकिन सत्य की एक दिन जीत हुई लोगो के ह्रदय में महत्मा का जादू सर चढ़ कर बोला ...मोहन दास करमचंद गाँधी एक मिथक बन गये । अन्ना तो बस उनके अनुयायी हैं उनकी ताकत कई गुना बढ़ कर आम जन जीवन को प्रभावित कर रही हैं ऐसे में भला सरकार कैसे अप्रभावित रह सकेगी। भारत के लोग आशावादी होते हैं , वे जब जग गए तो फिर उन्हें सोने के लिए कहना शेर को छेड़ने के समान हैं ...

Thursday, August 18, 2011

अन्ना के सत्याग्रह से केंद्र की फजीहत

भ्रस्टाचार के विरोध में अन्ना के उठ खड़े होने के बाद केंद्र सरकार की फजीहत हो रही हैं। यह इतना संवेदनशील मसला हैं जिससे हर आम नागरिक परेशान हैं, मैंने खास की बात नहीं कर रहा क्योकि वे तो अपने साधन के सहारे इस परेशानी को झेल लेते हैं। कई बार तो वे भ्रस्टाचार को एक आसन रास्ता मानते हैं । अन्ना की ईमानदारी पर उनकी सत्य निष्ठा पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता हैं । अन्ना की टीम ने जो मिडिया मैनेजमेंट किया वो काबिले तारीफ रहा । सरकारी अमला फेल साबित हुआ । अन्ना का भ्रस्टाचार की जड़ पूंजीवाद के विरुद्ध कुछ नहीं बोलना थोडा खलता हैं क्योकि वही तो इसे बढ़ावा देता हैं । पूंजीवाद आगे बढ़ने की होड़ में सभी गलत तरीको को प्रश्रय देता हैं। भले ही आन्दोलन का ह्रस नाउम्मीदी भरा हो लेकिन युवा वर्ग को एक नई दिशा मिली हैं । वो आगे बढ़ ने को तैयार हैं। वो किसी ऐसी व्यवस्था को नहीं चाहता जो देश के विकास में बाधा कड़ी करता हो। देश का हर नागरिक इससे मुक्ति चाहता हैं । पुरे आन्दोलन से महंगाई नेपथ्य में चला गया हैं इसे अन्ना की टीम ने गंभीरता से नहीं लिया हैं । दो जून भोजन गरीबो को नहीं मिलेगा तो वो भ्रस्टाचार की जगह अपराध का सहारा लेंगे .

Wednesday, August 3, 2011

मुख्यमंत्री के आवास पर मिडिया से हुए रूबरू

अमिताभ बच्चन ने मुख्यमंत्री नितीश कुमार से मुलाकात की। उस दौरान थोड़ी देर को मिडिया से भी बाते की। इसके पूर्व प्रकाश झा के मौल पर उन्होंने घंटो मिडिया कर्मियों से बाते की । मुख्यमंत्री आवास पर मैंने पूछा कि कैसा लगा बिहार आना लम्बे समय के बाद तो बड़ी सहजता से कहा बिहार बदल रहा हैं ,सुन्दर हैं । दोबारा आने को पूछा तो वही बच्चे सा मासूम जबाब कल मन किया तो फिर आ जाऊंगा । चंद लम्हे भी अमितजी जैसे वयक्तित्व के साथ हर कोई गुजरना चाहता हैं .

आज अमिताभ पटना में

आज बिग बी अमिताभ बच्चन अपनी फ़िल्म के प्रचार के सिलसिले में पटना में रहेंगे । वे रात में यहा रुकेंगे । पटना आना उनका एक जमाने के बाद हो रहा हैं। कुछ दिनों पूर्व हमारे यहाँ प्रभात खबर में उनके पुत्र अभिषेक आये थे । छोटे शहरो की ओर उनका आना यादगार पल हो जाता हैं क्योकि बड़े शहरो में तो वे प्रायः जाते रहते हैं। इश्वर उनकी फ़िल्म को सफलता दे। उनके फैन पुरे देश दुनिया में हैं। खास कर अमित जी एक बड़े व्यक्तित्व हैं , एक संवेदनशील पिता के योग्य संतान हैं । देश को उन पर फक्र हैं .

Wednesday, June 8, 2011

पत्रकारिता की दशा- दिशा और वर्तमान भारत

भारतीय राजनीति जिस परिस्तिथी से गुजर रही हैं वहा भारतीय पत्रकारिता अपने लिए जगह नहीं बना पा रही हैं। ऐसी मजबूरी भारतीय पत्रकारिता को पहले कभी नहीं झेलनी पड़ी थी । इसका एक मात्र कारण हैं , जन समस्याओ से मिडिया का कटते जाना । जब कार्पोरेट घरानों की गोद में देश की राजनीति और मिडिया खेलने लगे , चमकते चेहरों के बीच आम आदमी की दुश्वारिया बढती जाये तो फिर क्यों कर देश भक्ति की राग अलापी जाती हैं पता नहीं । मन दुखी हो जाता हैं जब यह सोचता हू की गुलाम भारत में कम पढ़े लिखे नेताओ में भी विजन था, पत्रकारिता भी निष्ठावान थी अपने धेय के प्रति। भारत में प्रतिभा का विस्फोट हो रहा हैं, सुचना क्रांति के युग में हम पहुच चुके हैं, वैश्विक राजनीति में परिवर्तन आ चूका हैं फिर भी हम हैं की सुधरने का नाम नहीं ले रहे। कौन सा स्थायी महल बना लेंगे, कौन सी स्थायी कीर्ति अर्जित हो जाएगी जो अमिट होगी। इस पल पल नाशवान धरा में जब हम अपने बंधू बान्धवों के साथ थोडा सुकून से न जी सके , एक दुसरे के कम न आ सके तो दरिद्र में नारायण को न पा सके तो फिर कहे की मारामारी। ये कनिमोंझी, ये २ जी स्पेक्ट्रम और राजा, कलमाड़ी एक नहीं कई अपने आस पास ही दिख जाएँगे। हमने अपना राष्ट्रिय चरित्र ही बेच दिया हैं। किसी मौके पर तो वेश्या भी apna घुंघुरू तोड़ देती हैं मगर ये हमारे नेता और टीवी, नोट और दारू की बोतल पर पंचायत से संसद तक के लिए वोट बेचती जनता.... विकट हो गया हैं भले आदमी का जीना. आन्ना हजारे हो या बाबा रामदेव जिसे वतन पर फिदा होना हैं उन्हें ....सब को लंगोटी धारण कर भारत माँ की मर्यादा को बचाना होगा .

Saturday, May 14, 2011

ब्लॉग लेखन की कठिनाईया

बहुत दिन हुए ब्लॉग लिखे समय की किल्लत हैं भाई । ढेर सारी बाते हैं अनुभव हैं सब साझा करूंगा, और कहा रहना हैं आप सब के बीच ही न, ढेरो बाते जो दिल को सुने और गुने भी । समय तेजी से बदल रहा हैं .

Thursday, October 21, 2010

प्रथम चरण का चुनाव संपन्न, जनता का नब्ज टटोल रहे नेता

प्रथम चरण का चुनाव आज बिहार में संपन्न हुआ , नेता एक जगह से दूसरी जगह भागते फिर रहे हैं , सत्ता का खेल चरम पर हैं। नोट बाटे जा रहे हैं । पेड़ न्यूज़ धडल्ले से छापे जा रहे हैं, उसका स्वरुप बदला बदला सा हैं , चुनाव आयोग इसे बंद करने को लेकर चिल्ला रहा हैं । कोई आम जनता की सुनने को तैयार नहीं । गरीबो के पास चुनाव बूथ तक जाने हिम्मत और हैसियत नहीं । चैनल नितीश की जित की घोसना कर रहे हैं। नयी पीढ़ी जानना चाहती हैं क्या ऐसे ही चुनाव होता हैं । कई बाते लोगो की जुबान पर हैं लेकिन वो लोकतंत्र की जुबान पर नहीं चढ़ती । थोथी बातो से क्या बिहार का पिछड़ा पन दूर हो सकता हैं । जरा सोचे.

Thursday, September 30, 2010

अयोध्या विवाद के निपटारे की अदालती पहल

अयोध्या विवाद को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ द्वारा आज सुनाये गए ऐतिहासिक फैसले पर पूरी दुनिया की निगाह टिकी थी, सभी राजनितिक डालो की सांसे अटकी थीठीक ३-३० बजे से न्यायालय ने अपना फैसला सुनना शुरू कर दिया। मिडिया की बेचैनी बढती जा रही थी। घरो व दुकानों में जिसे जहा जगह मिली टीवी व रेडियो से चिपका रहा । अदालत ने अपना फैसला सुना दिया। बिहार विधान सभा चुनाव के बीच इस मामले ने बिहार की राजनितिक तपिस को बढ़ा दिया था । मै सीधे वयोवृध इतिहासकार रामशरण शर्मा के घर पंहुचा। ९३ साल के हो चुके शर्मा जी ने अपने संस्मरण सुनाये। कहा की अदालत के बाहर फैसला होना चाहिए था। इतिहास ने कोई भूल नहीं की हैं । मंदिर व मस्जिद के बीच दुरी का कम होना ही विवाद का मूल कारण हैं । क्या हम अदालत के बाहर मामला नहीं सुलझा सकते, हमारी आपसी समझ इतनी कम होती जा रही हैं । अदालत ने पूरी जमीं को तिन हिस्सों में बाट दिया हैं। रामलला को भी भूमि का मालिकाना हक़ दिया हैं। धन्य हैं भारत भूमि .

Saturday, September 18, 2010

चुनाव का बजा बिगुल, नेताओ के घात-प्रतिघात शुरू ,जनता गई तेल में

बिहार विधान सभा चुनाव -२०१० का बिगुल बज गया हैं , भारत निर्वाचन आयोग ने चुनाव की तिथि निर्धारित कर दी हैं , २७ सितम्बर को पहले चरण के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू होगी, इधर नेताओ के घात - प्रतिघात का दौर शुरू हो चूका हैं । कांग्रेस ने राहुल गाँधी को अपनी मुहीम में लगा दिया हैं , तो दूसरी ओर लालू-पासवान की दोस्ती परवान चढ़ रही हैं। विकास - विकास दर में वृद्धि की राग अलापते नितीश कुमार और सुशिल कुमार मोदी , जनता दल यु - भाजपा गठबंधन अपनी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हैं। भाजपा - जदयू में जहा नरेन्द्र मोदी के चुनावी सभाओ के आयोजन को लेकर हाय - तौबा मची हैं , तो लालू - पासवान को अपने गर्दिश के दिनों से उबरने के लिए एक सुनहरा मौका सा मिल गया हैं, वे बिहार को विकास की नई डगर पर ले जाने की घोषणा करते फिर रहे हैं। लालू ने तो अपनी पत्नी व् पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवे को जहा साइड लाइन पर रख दिया हैं और रामविलास पासवान के छोटे भाई व् विधायक पशुपति कुमार पारस को उप मुख्यमंत्री के बतौर स्वीकार कर लिया हैं , उससे भविष्य की कल्पना की जा सकती हैं। पांच वर्षो के एनडीए शासन में विरोधी दल की ठीक से भूमिका नहीं निभा सकने वाली राजद लोजपा को अब आम जनता की चिंता सताने लगी हैं। कांग्रेस की स्थिति मजबूत होने से बिहार चुनाव एक रोमांचक दौर में पहुच गया हैं। बिहार में बदलाव के कई दौर अभी आने शेष हैं लेकिन मौजूदा राजनीतिक स्तिथि में ऐसी कलप्ना करना कोरी मुर्खता होगी । आम अवाम के दुखो की चिंता में कोई शामिल नहीं हैं । रोजगार की तलाश में पलायन जरी हैं , पढ़ाई की समुचित व्यवस्था नहीं हैं , इलाज के लिए बड़े शहरो का चक्कर लगाना पड़ता हैं । कल कारखाने , बिजली की उपलब्धता नहीं हैं, प्राकृतिक आपदा राजनीती चमकाने का जरिया मात्र बन गयी हैं .

Thursday, September 2, 2010

नक्सलियों को उकसाना बंद करे, हिंसा नहीं समाधान

गरीबी भुखमरी से जूझती जनता को नक्सलवाद का सहारा मिल रहा हैं, वे कोई उनकी भूख नहीं मिटा रहे न ही कोई स्थाई रोजगार के अवसर पैदा कर रहे लेकिन उनमे यह उम्मीद जगाए रखते हैं। उम्मीद भूख को समाप्त करने की , बेरोजगारी मिटाने की , जल , जमीं और जंगल के ऊपर उनके अधिकार दिलाने की । उनके बच्चो और महिलाओ को स्वास्थ्य की सुविधाए दिलाने की। वे आदिवासियों में कोई बैज्ञानिक पैदा नहीं करना चाहते । विधानसभाओ और लोक सभा में उनके समर्थक पहुचे हुए हैं , लेकिन वे भी अपने को लाचार महसूस कर रहे हैं। कई नेता तो अपने बच्चो को विदेशो में या कॉन्वेंट स्कुलो में पढ़ा रहे हैं लेकिन गरीबो को मरने मरने के लिए तैयार कर रखा हैं । केंद्र या राज्य सरकारों को इन्हें उकसाने वाली कार्यो से बचना चाहिए, भटके हुए लाचार लोगो को शेयर की जरुरत होती हैं, सरकारे हिंसा के लिए प्रेरित करने वालो के खिलाफ कड़ी करवाई करे , साथ ही साथ नक्सल प्रभावित इलाकों में बड़े स्तर पर राहत व पुनर्वास कार्यकर्म संचालित करे । बिहार में ४ दिनों से नक्सलियों ने कोहराम मचा रखा हैं , उन्हें कई बार सरकारों की ओर से सही जबाब नहीं मिल पा रहा हैं। निर्णय करने वाले स्थिति पर नजर रखे हैं लेकिन कुछ नहीं हो रहा हैं । वे चार पुलिस कर्मियों को बंधक बना रखा हैं , दूसरी ओर ७ को अबतक मार चुके हैं । हिंसा के रास्ते समाधान निकलना संभव नहीं हैं।

Thursday, August 19, 2010

छोटे शहरो में कॉमनवेल्थ गेम की चर्चा

दिल्ली से मिडिया में छन छन कर आ रही ख़बरे कॉमनवेल्थ की तैयारी और उससे जुडी सच्चाई को बया कर रही हैं , छोटे शहरो में उत्सुकता बढ़ा रही हैं, देश की प्रतिष्ठा दाव पर लगी हैं, चर्चाओ का बाजार गर्म हैं, कौन मॉल बना रहा हैं, कौन विज्ञापन को लेकर अपने हाथ खीच रहा हैं, शीला जी परेशान हैं, देश की निगाहे दिल्ली दरबार पर टिकी हैं । मिडिया की खबरों को दरकिनार करते हुए तैयारी अपने अंतिम चरण में हैं। भोजपुर जिले का मुख्यालय हैं आरा। यहाँ का एक नवयुवक प्रशांत जो दिल्ली से लौटा हैं, कहता हैं " दिल्ली में खेल के मैदानों , सडको को दुरुश्त किया जा रहा हैं लेकिन स्तर बेहद घटिया हैं। दिल्ली वासियों को फुरशत नहीं कि वे उसकी सामाजिक निगरानी करे। " यह सही हैं कि अपने यहाँ राष्ट्रीय गौरव कि भावना किसी खास तैयारी के दौरान देखने को नहीं मिलती। छोटे शहर इससे तब ज्यादा जुडेगे जब "विज्ञापन युद्ध" शुरू होगा। कॉमन वेल्थ ko darshne wale ti shirt व अन्य दैनिक उपयोग कि सामग्रियों का बाजार सजने लगेगा। ग्रामीण इलाके के बच्चे टीवी में आँखों को चौंधियाती रौशनी में अपने खेल के मैदानों कि तुलना करेंगे । मछली पकड़ने वाले, गाय चराने वाले युवको कि टोली घास के मैदानों पर उधम मचाएगी। क्या हम पडोसी देश चीन से किसी भी खेल आयोजनों की तैयारी की सिख नहीं ले सकते। विश्व के सबसे युवा देश भरते के युवाओ को उससे संबध नहीं कर सकते । क्यों बड़े कार्पोरेट घरानों के ऊपर निर्भर हो कर हम अपनी प्रतिष्ठा को ठोकर मरने पर तुले हैं । कई बार राजनेता नहीं समझते की यह चुनाव की तैयारी नहीं और न ही कोई बच्चो का खेल हैं ........

Saturday, August 7, 2010

कैसे हो दिल की बतिया

आदमी कैसे करे दिल की बतिया। कैसे सेलिब्रिटी करते हैं अपने दिल की बाते। क्या उसमे दिल के किसी कोने की सच्चाई रहती हैं। कई बार लगा की वो सिर्फ मतलब की बाते करते हैं। क्या अंग्रेगी लेखको की तरह हिंदी लेखक अपने प्रति इतने इमानदार रहते हैं। साफगोई क्या हिंदी वालो की जुबान में नहीं होता, हिंदी पत्रकारिता को क्या अभी अपने ईमानदारी की परख करनी बाकि हैं। कई इसे दिल्लगी समझ सकते हैं लेकिन हैं यह सच्चाई । हमारे अख़बार हो या हिंदी न्यूज़ चैनल हिंदी भाषियों की आत्मा को पकड़ पाने में विफल हैं। निहायत ही बेबकूफाना अंदाज होता हैं हिंदी पट्टी वालो का । वे जानना चाहते हैं पूरी तफसील से । उनकी इच्छा इसमें नहीं की कौन कितना बड़ा बेवकूफ हैं वे जानना चाहते हैं की कौन उनका आदर्श हो सकता हैं। सच पूछे तो यह भारत की आत्मा की पुकार हैं। हमारे आदर्श क्या नरेन्द्र मोदी हो सकते हैं, क्या राज ठाकरे जैसा कोई शख्श हो सकता हैं , कदापि नहीं । हमारा आदर्श महात्मा गाँधी , लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, रतन टाटा हो सकते हैं । इन्होने अपने जीवन में आदर्श स्थापित किया हैं । क्या आप इन्हें पहचानते हैं ।

Sunday, July 25, 2010

बहस से भागते राजनेता, सड़क से संसद तक होता हैं हंगामा

हमारे देश के राजनेताओ में सहनशक्ति की भारी कमी हो गयी हैं। किसी भी बात पर तवरित प्रतिक्रिया देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वे यह समझाने को तैयार नहीं होते कि इससे आम जनता पर कितना प्रभाव पड़ता हैं। सड़क से संसद तक उनके व्यवहारों को देखा जा सकता हैं। संसद के दृश्य देखे या किसी राज्य कि विधान सभा की आपको एक से दृश्य देखने को मिलेंगे । क्या यह परिलछित नहीं करता की समाज में दिनों दिन हो रही गिरावट के कारण हर खासो आम अपने आप में सिमटा जा रहा हैं । बंधुत्व की भावना का संचार इन्टरनेट या मोबाईल क्रांति के कारण विस्तार पाने की जगह व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा हैं। आखिर क्यों हम जनहित के मुद्दों से भटक जा रहे हैं। सारी योजनाए भ्रस्टाचार की भेट चढ़ती जा रही हैं। युवा वर्ग के सामने कोई आदर्श नहीं दिखता। हमारे आइकोन भी घबरा जाते हैं जब एक ओर उनकी नुख्ताचिनी की जाती हैं तो दूसरी ओर बाजार के दबाब के कारण उन्हें अपनी भावनाओ को प्रगत करने में परेशानी का सामना करना पड़ता हैं। कितना कठिन हैं मौजूदा दौर में किसी गरीब की आहो को जगह मिलाना। क्या संसदीय जीवन में आरोप प्रत्यारोप से इतर हमे मुख्य समस्याओ को हल करने में अपनी उर्जा का व्यय नहीं कर सकते हैं। मिडिया को बाजार ने कब्जे में लेलिया हैं। उसमे रह कर चाहे कोई लाख दावा करे कही न कही उसे बाजार से समझौता करना पड़ रहा हैं । जिसे आवाज बनना था बेजुबानो का वह चाटुकारों , दलालोंके साथ मिलकर अमीरों की रखैल बनती जा रही हैं। माफ करेंगे ऐसे शब्दों को स्त्री विरोधी करार देने वाले समझ ले, इसे क्यों इस कदर निकृष्ट बनाया गया हैं । किसी शक्ति को बंधक बना कर उसका निजी स्वार्थ के लिए उपयोग में लगा देने पर क्या इससे भी बुरा कुछ कहा जा सकता हैं । व्यापारी सिन्धु घाटी सभ्यता कालखंड में भी अपने वयापार वाणिज्य के विस्तार के लिए दूर देशो की यात्राये करते थे, भारतीय वाणिज्य व्यापार का डंका पुरे विश्व में बजता था उनमे ईमानदारी कूट कूट कर भरी थी, विदेशी भी सम्मान करते थे लेकिन आज क्या हो रहा हैं। विदेशी व्यापारियों को देश को लुटने की खुली छुट दे दी गयी हैं.

Wednesday, July 7, 2010

गंभीरता से मुर्खता की उत्पत्ति होती हैं......

कभी कभी बच्चे जब नादानी करते हैं तो उन्हें कहा जाता हैं कि गंभीर बनो। क्या ऐसा लगता हैं कि गंभीरता जीवन की इतनी ही नायाब जरुरत हैं। अभी एक केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का बयान पढ़ा। उन्होंने कहा कि योजना आयोग एसी कमरे में बैठ कर गरीबो के लिए योजनाये बनाता हैं। क्या इस प्रकार के आयोगों में गंभीर लोगो की भरमार नहीं हैं जो बड़ी ही आकर्षक योजनाये गरीबो के लिए तैयार करते हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना होगा कि वे उसके साथ ही अम्बानियो, मोदियो का भी ख्याल करते हैं , नहीं तो ये कम्पूटर , मोबाईल , चमचमाती कारे कहा से आती। ये सचमुच गरीबो की सुध लेते तो जगह जगह गाँधी बाबा की खद्दर ही दिखाई देती। पेट तो भरा होता लेकिन अमेरिकी सोच कहा से आती। लोगो ने उलटी राह पकड ली हैं। कमलनाथ जी विचारवान पुरुष हैं, उनकी आत्मा कभी तो सत्य को परखती हैं। इतने भारी भरकम आयोगों , मंत्रालयों का कोई मतलब भी हैं क्या जो इन्हें इस देश कि गरीब जनता अपने पीठ पर ढोए जा रही हैं। सचमुच अब तो लगने लगा हैं कि गंभीरता से मुर्खता कि उत्पत्ति होती हैं। आब कोई बाप अपने बच्चे को नहीं सिखाता - झूठ बोलना पाप हैं, बिना झूठ को सच किये आदमी अपने आप को इस दुनिया से परे पाता हैं। आज इस देश में महापुरुष मिथक में तब्दील होते जा रहे हैं। गांधीजी जैसे महापुरुष कि कल्पना करना मुश्किल होगा तो , दुनिया बिनोबा को सोच कर भी हैरत में रह जाएगी कि उसे हजारो एकड़ भूमि लोगो ने दान कर दिया था, एक मदन मोहन मालवीय जी थे जिन्होंने बिना किसी ग्रांट कमिशन के जन सहयोग से विश्विद्यालय स्थापित कर दियाउन्हें किसी आयोग कि अनुशंसा पर काम करने के लिए फंड नहीं मिला था। नियत सही हो तो कोई उदेश्य से भटका नहीं सकता। नेताजी, हमारे बुधिजिवियोगंभीर बने लेकिन मुर्खता छोड़े, आपको इतिहास माफ नहीं करने जा रहा हैं, जितने गरीबो के सिने से आह निकलेगी वह आपकी चिता कि धधकती ज्वाला को और भी जलाएगी। देखिये आप तो अभी से जल रहे हैं, इसकी tapish आपकी नींद गायब किये हैं.

Monday, July 5, 2010

भारत बंद के आईने में मिडिया के सरोकार

आज देश भर में भाजपा सहित तमाम विरोधी दलो ने महंगाई के मुद्दे पर भारत बंद का आह्वान किया। दिन भर रात भर धोनी की शादी में भोपू बजने वाली मिडिया अचानक से जनसरोकार के मुद्दे प्रदर्शित करने लगी। तमाम बड़े विरोधी दल के नेता स्क्रीन पर नजर आने लगे। कल के अख़बार में भी ये छाये रहेंगे । महगाई अपने जगह पर रहेगी , हा नेता और मिडिया अपना बाजार बना लेंगे। यहाँ मिडिया को इतनी ही पीड़ा होती तो जनसरोकार के मुद्दों को हासिये पर नहीं फेक दिया जाता। आज आजादी के ६० वर्षो बाद जिन्हे आम आदमी के बतौर नामित किया जाता हैं उनकी सामाजिक राजनितिक हैसियत क्या बच गयी हैं इसे समझा जा सकता हैं। देश के कई प्रान्तों में पिने का साफ पानी मयस्सर नहीं, महिलाओ के शौच की सही व्यवस्था नहीं, पेट भरने को मुठी भर दाना नहीं तो महंगाई की मार उनपर कैसी होती होगी इसे समझ पाना क्या इतना मुश्किल हैं । घडियाली आंसू बहाने वाले नेता अपने गिरेबान में झाके। मिडिया अपने को लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा स्तम्भ मानती रहे , आम जनता का भरोसा उसपर नहीं रहा । कोई खबरे अब उन्हें चौकाती नहीं। ये कानून अब उनके लायक नहीं रहे । खेत मजदूरों को कार्पोरेट नेताओ की भाषा समझ नहीं आती। गाँधी इतिहास हो गए हैं, उनकी मान्यताये गीता पुराण की भाति किताबो में दर्ज हो कर रह गयी हैं। इन पुस्तकों को कम्पूटर भाषी संताने समझने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं । महंगाई को लेकर न तो सत्ताधीश न ही विरोधी कोई दीर्घ कालीन नीति तय करने की इच्छुक हैं । बंद ,विरोध, नित नये मूल्यों की घोषणा जनता के हिस्से में बस यही रह गयी हैं, सब अपनी अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं । जय हो , भारत माता की जय हो , तुम्हारी संताने , इस परिणति को पहुच जाएँगी इसे ब्रम्हा भी समझाने में असमर्थ हैं .

Wednesday, June 30, 2010

भूमि सुधार के मुद्दे पर बिहारी राजनीति असमंजस में

बिहार में विधान सभा चुनाव होना हैं, इसके लिए विभिन्न दलों के रणनीतिकार अपने दिमागों पर बल डालना शुरू कर चुके हैं। कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल जहा भूमि सुधार के मुद्दे को उठाने से घबरा रहे हैं वही जन संगठनो व् वामपंथी दलों द्वारा इसे जोर शोर से उठाया जा रहा हैं। बिहारी राजनीति में भाजपा और जनता दल उ पहले ही इस मुद्दे पर अपनी हाथ जला चुकी हैं। किसी में इतनी ताकत नहीं दिख रही की वो भूमि सुधार के मुद्दे पर जनता का मत प्राप्त करे या कोई नयी दिशा में बढ़ सके। हद तो यह हैं की बिहार में भूमि के रिकार्ड का रख रखाव की स्थिति बेहद दयनीय हैं। भूदान के जमीनों का अधिकांश जिलो में कोई रिकोर्ड नहीं हैं, कई जमीनों को सर्वे के दौरान उलट पुलट कर सरकारी घोषित कर दिया गया हैं। सरकार के नियमो के तहत जमीं मालिक को स्वयं इसे साबित करना हैं। हजारो एकड़ जमीनों पर अवैध कब्ज़ा हैं। २० से ३० फीसदी खेती करने वाले दुसरो के खेत जोतते हैं। लाखो लोगो के पास रहने को घर नहीं हैं।

Wednesday, June 23, 2010

इज्जत की खातिर मौत की बढती रफ्तार

इन दिनों भारत वर्ष में इज्जत की खातिर मौतों की रफतार बढ़ गयी हैं। भारतीय समाज संक्रमण के काल से गुजर रहा हैं। इसे पाश्चात्य संस्कृति ने अपने रंग में लेना शुरू कर दिया हैं , कई मामलो में तो हमने आंखे मुंद कर इसे अपना लिया हैं , कई बार यह स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर हमें किस राह पर जाना हैं। सवाल यह हैं कि आदिम व् बर्बर युग से निकल कर ज्ञान और विवेक की ज्योति बिखेरने वाला भारत आज इज्जत की खातिर अपनी ही संतानों को मरते हुए देखने को विवश क्यों हैं । हमारी मानसिक दशा ऐसी बन कर क्यों रह गयी हैं कि हमें क्यों एक लड़की का अपने भविष्य को ले कर लिया गया निर्णय आत्मघाती प्रतीत होता हैं। क्यों परम्पराए टूट व् बिखर रही हैं। सवाल उपभोक्तावाद व बाजार के दायरे में रख कर समझा जा सकता हैं। किसी एक लड़की का निर्णय पुरे समाज को किसी खतरनाक निर्णय के मोड़ पर कैसे पंहुचा दे रहा हैं। स्वछंदतावाद ने समाज परिवार, कुल की अन्तत कहे तो देश कि मर्याद को तार तार कर के रख दिया हैं। क्या किसी अंकुश कि जरुरत आज के भारतीय समाज को नहीं रह गयी हैं। यह ठीक हैं कि बालिग हो चुके नौजवानों को अपने निर्णय कि छुट होनी चाहिए , उन्हें अपने भविष्य को लेकर किसी से शादी करने का पूरा अधिकार हैं। लेकिन क्या हम एक बड़े समाजिक समूह कि खुशियों को नजर अंदाज कर स्वयम खुश रह सकते हैं। क्या हम ऐसे समूहों का निर्माण करना चाहेंगे जिस में हर कोई स्वछन्द हो। अरे मेरे भाई, जानवरों से भी कुछ सीखो कि उन्होंने किस प्रकार से अपने समाज को व्य्वाश्थित कर रखा हैं । कभी उसका उल्लंघन नहीं करते। इज्जत की खातिर हो रही मौते किसी भी समाज के लिए एक कलंक हैं , इसे जायज नहीं ठराया जा सकता। हमें अपनी संतानों को समझने में कही भूल हो रही हैं। प्यार को नफरत से जीता नहीं जा सकता। इसे प्यार से ही हल करना होगा। बेतुकी बातो से ऊपर उठ कर हमें नौजवानों को नयी दिशा देनी होगी। हमारे रीती रिवाज इतने दकियानुशी नहीं हैं जो किसी समस्या के संधान की दिशा नहीं सुझाते, जरुरत उन्हें समझाने की हैं, खुद भी समझने की .

Saturday, June 12, 2010

नितीश और नरेन्द्र मोदी की तस्वीर ने बया की तल्ख़ हकीकत

हकीकत से बाबस्ता होना कभी कभी बेहद खतरनाक सिद्ध होता हैं। खासकर, राजनीतिक दृष्टी से जब सिधान्तो व् उसूलो से जब अलग रिश्तो की बाते होती हैं, तो जबाब देते नहीं बनता। आज के दैनिक में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के साथ क्या छपी मनो भूचाल आ गया । छिपाए छिप नहीं रहा न दिखाए दिख नहीं रहा। भाजपा की यहाँ राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही हैं , इसमें भाग लेने भाजपा के सभी दिग्गज नेता आये हुए हैं। देश की नीतिओ के निर्धारण के लिए ये जिम्मेवार होते हैं , आपस में ये इस प्रकार अछूतों की तरह वयवहार करते हैं लेकिन जब सत्ता में साझेदारी की बाते होती हैं तो गलबहिया डालने से इन्हें इंकार नहीं होता।

Saturday, May 29, 2010

दलाई लामा और शंकराचार्य का पटना प्रवास

बुद्ध पूर्णिमा के दिन पटना में दलाई लामा और पूरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्छ्लानंद जी पटना में थे। दलाई लामा और शंकराचार्य अलग अलग जगहों पर थे उन्होंने कई बड़े महत्व की बाते कही। दलाई लामा चूकी राजकीय मेहमान थे इसलिए उनकी बातो को मीडिया में काफी जगहे मिली लेकिन शंकराचार्य अपनी कई बाते मिडिया के माध्यम से आम जनता के बीच नहीं रख पाए। उसदिन पटना में एक भव्य स्तूप का उद्घाटन परम पावन दलाई लामा ने किया। एक और महत्व की बात हैं की बिहार फौन्डेशन के सहयोग से महाराष्ट्र से ७२ बौद्ध तीर्थयात्रियो का एक दल भी यहाँ आया था। भारत भूमि विद्वानों व धर्माचार्यो से भरी हैं । भारत में सनातन धर्म की प्रतिष्ठा किसी सत्ता के कृपा की मुहताज नहीं हैं। हा, तिन महीने में नितीश सरकार की इच्छा शक्ति से स्तूप बन सकता हैं लेकिन उसी से चार फर्लाग की दुरी पर स्थित कंकरबाग मुह्हले के लोग प्रत्येक वर्ष बरसात में डूबने को मजबूर होते हैं , तिन वर्षो से सीवरेज व् नाला निर्माण की करवाई की जा रही हैं वो आजतक पूरा नहीं हो सका। परम पावन दलाई लामा ने कहा की ध्यान केंद्र व् लाइब्रेरी बनाये लेकिन अच्छा होता की बौद्ध सायंस, फिलासफी और रिलिजन की पढाई हो। उन्होंने कहा की तिब्बत में नालंदा स्कूल के ही बुद्ध धर्म मानने वाले लोग हैं, इस नाते आप गुरु हुए हम चेला। बिहार व प्रत्येक भारतवासी को इस पर गर्व होना चाहिए कि उनके विज्ञानं व् परम्परा से दुसरे सीख ले रहे हैं। उन्होंने कहा भी कि अमेरिका व् यूरोप में मॉर्डन सायंस के तहत बौद्ध सायंस कि पढाई कि जा रही हैं। मैंने जब इश्वर तत्व की व्याख्या कोई अध्यात्मिक पुरुष कैसे कर सकता हैं पूछा तो उन्होंने सांख्य योग की विसद चर्चा की । पत्रकारों को इस प्रसन में कोई रूचि नहीं थी वे खबरों को टटोलने में लगे थे , एसा नहीं की मैंने खबर नहीं लिखी लेकिन कभी कभी जब आप महान पुरुषो के सानिध्य में होते हैं तो आपसे संजीदा रहने की उम्मीद की जाती हैं। हद तो यह हो गयी जब एक अन्य कार्यक्रम में शंकराचार्य ने धर्म और राजनीतीकी चर्चा की तब एक पत्रकार अपने ज्ञान की झलक दिखा दी। शंकराचार्य ने उसे धर्म व् राजनीती के दर्जनों पर्यायवाची शब्द और उसके अर्थ बताये। दुनिया तब भी थी जब हम और आप नहीं थे , और तब भी रहेगी जब नहीं होंगे। ज्ञान का हस्तांतरण प्रेम से हो सकता हैं , लाठी भांजने से , शोर करने से या चिल्ला कर नहीं। मिडिया कर्मी जब सूचना संग्रह कर आम लोगो के ज्ञान्बर्धन के लिए उसे प्रस्तुत करने का काम करते हैं तो उन्हें ज्यादा धैर्य धारण करने की जरुरत होती हैं .

Monday, May 17, 2010

जातिवाद को लेकर पूरी तरह भ्रमित हैं समाज

पिछले पोस्ट को लिखने के बाद कई लोगो से बाते हुई, लोगो के अपने अपने तर्क हैं। जाति आधारित जनगणना से किसी अनजाने सच्चाई के सामने आने की उमिद्दे अधिकांश लोगो को हैं। कुछ इसे जाति के नजरिये से तो कुछ विवाह की मानसिकता से जोड़ कर अपनी तर्के पेश कर रहे हैं। आई बी एन ७ के वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने एक लम्बा लेख ही लिख डाला हैं। उन्होंने भारतीय मानसिकता की विवेचना करते हुए यह स्वीकार लिया हैं की हम गर्व से कहे की जातिवादी हैं। क्या दूसरी जाति में विवाह करना ही जातिवाद से अलग प्रदर्शित कर सकता हैं। सरनेम में जातिसूचक प्रतिको को हटा लेना ही इसका समाधान हैं, क्यों किसी जाति विशेष का वोट सिर्फ जाति के नेता की झोली में गिरता हैं। कई प्रश्न अनसुलझे रह्जाते हैं। जाति व्यवस्था की जड़ो को काटने की जगह एक सज्जन ने तो कहा कि होने दीजिये जनगणना , यह विकास कि दिशा में दो कदम आगे तो एक कदम पीछे जाने कि कवायद का हिस्सा हैं । तब तो कहना पड़ेगा कि आतंकी घटनाओ को होने दे इससे राष्ट्रिय एकता मजबूत होगी। मेरी दृष्टि से जो गलत हैं उसे गलत कहना होगा। जाति के आधार पर कोई नतीजा निकलने कि कोशिश बेमतलब होगी।

Friday, May 14, 2010

जातीय आधार पर जनगणना राष्ट्रहित में नहीं

भारत सरकार ने जातीय आधार पर जनगणना करने का निर्णय किया हैं जो अपने आप में दुर्भाग्य पूर्ण हैं। जिन कल्याणकारी योजनाओ को लछित करके ये सारी कवायद की जा रही हैं उन्हें पहले से ही संविधान में उल्लेखित किया जा चूका हैं। यह निर्णय असम्वैधानिक हैं। सिर्फ एक योजना का उल्लेख करना चाहता हू। नरेगा जो अब मनरेगा हो चूका हैं उसके क्रियान्वयन की जाच करा ली जाये। इसमें समाज के सबसे निचले तबके को जाति धर्म से ऊपर उठ कर रोजगार उपलब्ध करने की व्यवस्था हैं, क्या सिर्फ आकड़ो का खेल नहीं हो रहा हैं। जितनी संख्या में रोजगार मांगने वालो को उनके घर के समीप उपलब्ध होने चाहिए थे उतना मिल पा रहा हैं। आखिरकार ये राजनेता क्या चाहते हैं, देश को जाति पातीमें बाटकर मानसिक रूप से गुलाम बनाये रखा जाये। राष्ट्रीयता की भावना का क्या होगा। आतंकवाद से , बीमारियों के जंजाल से , नक्सल वाद से, बढती बेरोजगारी से कैसे निपटेगे। सिर्फ बिहार की चर्चा करे तो यहाँ ९६ फीसदी किशोरिया रक्ताल्पता से पीड़ित हैं। ९० फीसदी गर्भवती व् शिशुवती माताए अकाल मौत के कगार पर खड़ी रहती हैं। कमजोर मानव कैसे जीडीपी के विकास दर को बढ़ने में अपना योगदान दे सकते हैं । इन राजनेताओ के दिमाग को क्या होगया हैं। पता नहीं। जातीय आधार पर विकास के साधन जरुरत मंदों के बीच पहुचने की कवायद की जाति हैं तो वो क्या हैं जिस नीति के तहत करोडो -अरबो रूपये की सब्सिडी उद्योगपतियों को दे दी जाती हैं। आखिर कैसे भारत की परिकल्पना की जा रही हैं। भारत की जो जनता आतंक के विरुद्ध मोमबतिया जलाने एक साथ निकल पड़ती हैं उसे इसप्रकार के गैर जिम्मेदराना निर्णयों के खिलाफ भी सामने आना चाहिए। भारतीय मिडिया से इस बात की उमीद करना बेमानी हैं की वो जनमत तैयार करने में अपना योगदान दे। उसे नेताओ और सत्ता की चाकरी करने से फुरसत नहीं हैं। कितने भी बड़े तीसमारखा हो वो इस बात को समझते हैं की जिस सिस्टम के वो हिस्सा बन चुके हैं उनमे अपनी बात रखना भी कितना मुश्किल भरा कार्य हो गया हैं। आवाज कही से भी उठती हो उसे अपना स्वर प्रदान करना चाहिए। अम्बेडकर हो या लोहिया , गाँधी हो या नेहरु सबने जातिविहीन समरस समाज की कल्पना की हैं । इसे जनगणना कराकर, ऐसी कमरे में बैठ कर योजनाये बनाने से हासिल नहीं किया जा सकता। आज देश में कई ऐसे किसान हैं जो वैज्ञानिको से जयादा समझ रखते हैं। इंजिनियर गाव के निपट ग्वार कहे जाने वालो के सामने पानी भरते प्रतीत होते हैं .

Thursday, May 6, 2010

बेतुके सवालों पर नैतिकता बघारते मिडिया संस्थान

इन दिनों मिडिया संस्थानों में बेतुके सवालों पर नैतिकता बघारने का चलन सा चल पड़ा हैं। दिल्ली में एक पत्रकार आग की घटना का कवरेज करते हुए मर गया, उसके परिवार का क्या हुआ , उसकी मौत पर सम्बंधित मिडिया संस्थान ने क्या किया, आगे इस प्रकार खबरों की आपाधापी में किसी की मौत न हो इस पर कोई बहस नहीं चल रही, क्योकि वह आई आई ऍम सी जैसे किसी बड़े मिडिया संस्थान की उपज नहीं था, वह किसी के इश्क में गिरफ्तार नहीं था, उसकी पहुच बड़े पत्रकारिता की छवि से संबध नहीं थी, उसकी हत्या नहीं की गयी थी फिर उसके मौत में खबरों की टीआरपी बन्ने की कूबत नहीं थी इसलिए उसे भुला दिया गया। किसी लड़की की छवि को नष्ट भ्रष्ट कर, उसकी हत्या के लिए वातावरण तैयार कर, फिर उसकी मौत के बाद नैतिकता बघार कर आखिर लोग क्या चाहते हैं। किस संस्कृति की पैरवी कर रहे हैं। कई ऐसे भी हैं जो लडकियों का इस्तेमाल कर उसे प्रेम व् प्यार का नाम देते हैं, दुसरे को गरियाते फिरते हैं, उन्हें कोई नैतिक सम्बन्ध भी गलत लगता हैं । इनकी एक अलग दुनिया होती हैं। इसमें कोई शक नहीं की लडकिय भी जाने अनजाने उनके माया जाल में शुकून महसूस करती हैं । आखिर कैसे कोई अपने लिए एक अलग दुनिया बना लेता हैं। कानून को इसकी पड़ताल करनी चाहिए, ये हत्याए किस मानसिक दशा की उपज हैं। चाहे कोई भी दोषी हो उसे सबक सिखाना चाहिए। आजादी के नाम पर स्वछंदता, मनमर्जी की छुट नहीं दी जानी चाहिए।

Thursday, April 29, 2010

शब्दों के खेल विचारो की जमघट, शुचिता गोल

इन दिनों मिडिया में होती प्रिंट की भूल से या वाचन में भूल से उत्पन्न स्थिति को लेकर इंटर नेट पर शब्दों के खेल का दुखद अध्याय चल रहा हैं। इस में पत्रकारिता जगत के लोग जुड़े हैं। समय की किल्लत और टीआरपी की आपा धापी में अब कितना और स्तर गिरेगा इसे समझना मुश्किल है। क्यों इस बात को भूल जाते है कि अछर -गलत प्रिंट हो रहा है -को ब्रम्ह कहा गया है शब्द उस ब्रम्ह से निरसित अंश है। कई शब्द मेरे भी गलत छप जाते हैं। कई बार कोफ्त होता हैं, लेकिन यहाँ मुझे कम्पूयटर कि कम जानकारी के कारण होता हैं । लेकिन जब अखबार व् चैनल में बड़े बड़े पैकेज पर कार्य करने वाले, विद्वान अधिकारी इसे नहीं सुधर पाते तो क्या मशीन मैनसे या ओपरेटर से उम्मीद की जाये। शब्दों के प्रयोग के पूर्व क्या हमारी जिम्मेवारी नहीं बनती। क्या हम भूल गए पुरानी कहावत पानी पीजिये छान के, वाणी बोलिए जान के। बंद करे इस प्रकार से शब्दों की अश्लीलता व शीलता पर बहसे , इसकी शुचिता पर विचार करिए।

Tuesday, April 27, 2010

पत्रकारिता में विचारहीनता का बढ़ता खतरा

मूल्यपरक पत्रकारिता बाजारवाद व् उपभोक्तावाद के आगे दम तोडती नजर आ रही हैं। विचारहीनता का इतना बड़ा संकट फिजा में हैं जिसके फलस्वरूप समाज का वास्तविक स्वरुप नष्ट हो रहा हैं। प्रतिदिन प्रयोग के नाम पर भोंडी बातो को मिडिया तव्वजो दे रहा हैं। पैसे का खेल न सिर्फ राजनीति, क्रिकेट बल्कि मिडिया के विकेट भी डाउन कर रहा हैं। आपके मौलिक विचारो को मिडिया में स्पेस मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव सा होता जा रहा हैं। समाज के दबे, पिछड़े, अल्पसंख्यक व् आदिवासियों को तभी जगह दी जाती हैं जब वोट की बात हो, वे अपने हाथ में हथियार उठा ले या संघर्स के दौरान हताश हो कर आत्महत्या को मजबूर हो जाये। आपकी आवाज को इतना संगठित तरीके से कुचल दिया जाता हैं कि आपको उसका एहसास भी नहीं होता। प्रायः यह कह कर अपनी विश्वसनीयता को बचे रखने का उपक्रम किया जाता हैं कि देखीय खबरों का असर हो रहा हैं। जब आपके ऊपर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता हैं तब उलटे सीधे प्रयोग शुरू हो जाते हैं। नियूज रूम में इतने खुरात लोगो कि भरमार हो गयी हैं कि वे अपने आगे किसी को पल भर के लिए सुनने को तैयार नहीं हैं। क्या आप आज के किसी नौजवान को अपने विचारो के साथ आगे बढ़ने देने कि कल्पना कर सकते हैं। क्यों नहीं शशि थरूर व् आईपीएल वाले मोदी जैसे लोग आनन् फानन में पैसे कमाने कि जुगत भिड़ाने में अपनी उर्जा नष्ट करे। अखबार व् सिनेमा हो या संचार क्रांति के अन्य विविध उपकरण क्या अपनी उपयोगिता समाज के व्यापक हित में प्रमाणित कर पा रहा हैं इसे सिर्फ एक तरफा विचार मानकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता । आज भारत में ब्लड प्रेसर मापने कि कोई अपनी तकनीक नहीं हैं, विदेशी तकनीक पर आधारित मशीनों से हम अपने स्वास्थ्य को मापते हैं, दवाए उनके अनुसार ही खाते हैं, हमारी अपनी पूरी प्रणाली ही ध्वस्त हो चुकी हैं। हम हैं कि गौरव गान में ही लगे हैं। कोसी के पीड़ित, कालाहांडी के किसान, नार्थ इस्ट के मेहनती लोगो कि पीडाए हमें नहीं दिखती। लोग नकली सामानों के उपयोग के लिए मजबूर किये जा रहे हैं, बिना भ्रटाचार कि भेट चढ़े कोई कम नहीं होता, मानसिक रूप से विछिप्त पैदा हो रहे हमारे युवा को किसी दिशा का ज्ञान तक नहीं हो पा रहा । वे अपने स्वार्थ कि खातिर कुछ भी कर गुजरने को बेहतर मान ले रहे। मिडिया व् इसके माध्यम से रोजी रोटी पाने वालो को सजग होने कि जरुरत हैं.

Wednesday, April 21, 2010

आईपीएल व् बीपीएल पर भाजपा ने केंद्र को घेरा

आईपीएल के मुद्दे पर केंद्र सरकार का एक विकेट लेने के बाद अब भाजपा ने बीपीएल के लोगो के लिए मुसीबत बनी महंगाई को लेकर कांग्रेस को घेरने की कवायद शुरू कर दी हैं। आईपीएल ने खेल के नाम पर दौलत , ग्लैमर व् एयासी की जो तस्वीर देश के सामने रखी हैं उसका मिसाल मिलना मुश्किल हैं । भूख,गरीबी, अशिछा से जूझ रहे भारतवासी, नक्सलवाद से लड़ते हमारे जाबांज सिपाही क्या सोचते होंगे। हमारे राजनेताओ ने कैसे कैसे तरीके इजाद कर रखे हैं दौलत अर्जित करने के। और तो और मंत्रिमंडल से हटाये गए विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने यह कह कर की वे अभी भारतीय राजनीति में बच्चे हैं, पुरे देश को शर्मशार कर दिया। उन्हें विदेश मंत्री बनाकर किसने अंतराष्ट्रीय राजनीति में धकेल दिया। भाजपा को लगे हाथ एक मौका भले ही मिल गया लेकिन गंभीरता से विवेचना हो तो कई लोगो के नाम सामने आ सकते हैं। आईपीएल सहित देश में खेले जा रहे क्रिकेट के सभी मैचो की जाच करायी जानी चाहिए। यह पैसे उगाही के खेल में पूरी तरह से तब्दील हो चूका हैं। हमारे राजनेता राजनीति में खेल भावना को भूल कर खेल में राजनीति की शुरुआत कर चुके हैं। इनकी गीध दृष्टि से समाज का शायद ही कोई अंग आछूता रह गया हो। महंगाई सिर्फ भाषण व् प्रदर्शन का मुद्दा भर बन कर रह गयी हैं ।

Saturday, April 10, 2010

नक्सलवाद से निबटने को तैयार हो देश

नक्सलवाद की भीषण समस्या से निबटने के लिए देश के हरेक नागरिक को तैयार होना चाहिए। यह आयातित विचारधारा देश को घुन की तरह चाट रहा हैं। हमें यह सोचना होगा की आखिर भूख व् गरीबी से निबटने की जगह आखिर कबतक देश के अन्दर सामाजिक बदलाव की हिंसक प्रवृति को झेलते रहेंगे। क्या इस देश ने बिनोबा के भूदान से सीख नहीं ली जब बड़े बड़े भूपतियो ने अपने गरीब भूमिहीन भाइयो के लिए सहर्ष भूमि का दान कर दिया। यह बेहद शर्मनाक हैं की अभी तक कई राज्यों में उन भूमियो का सही तरीके से वितरण तक नहीं किया गया। बिहार के राजनितिक इतिहास में एक वह भी घटना दर्ज हैं की कैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक स्वतंत्रता सेनानी ने अतरिक्त भूमि पर अपने संघर्ष की दुहाई देते हुए कब्ज़ा करने का पहला हक़ करार दिया। सरकारी योजनाओ में मची लूटपाट की, गरीबो की हकमारी की लम्बी दस्ता हैं । आज नक्सलवाद स्वय में भस्मासुर बन चूका हैं। गरीबो की हक़ की बात करते हुए , उन इलाको के बच्चो की स्कुल भवनों को उड़ने में लगा हैं। कैसे स्वयं सहायता समूह के नाम पर माइक्रो वितीय प्रोग्राम किसानो को आत्महत्या पर मजबूर किये हुए हैं इस पर भी विचार करने की जरुरत हैं। थोडा ठहर कर सोचे मासूम बच्चो को हथियार उठाकर अपने ही देश की पुलिस से वे संघर्ष कर रहे हैं। उनके खून के प्यासे बने हुए हैं। राह से भटके अपने देश वासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए हमें हर संभव उपाय करना होगा। नितीश कुमार की यह टिपण्णी की गृह मंत्री पी चिदम्बरम को काम ज्यादा बाते कम करना चाहिए, बेतुका सलाह हैं। वे नक्सल इलाको में जिस प्रकार से सबको लुट में हिस्सेदार बनाकर अपनी इमेज बिल्डिग में लगे हैं वह शोभा नहीं देता। न तो उन इलाको में सड़क पहुची हैं न ही कोई रोजगार के साधन व् अवसर उपलब्ध कार्य गए हैं। बिजली तो पुरे बिहार की समस्या हैं। यह ठीक ही हुआ की मिस्टर चिदंबरम के इस्तीफे की पेशकश को प्रधान मंत्री ने ठुकरा दिया। नितीश कुमार का यह कहना की कानून तोड़ने पर उनपर कारवाई हो, बेतुकी बात हैं। हमें हथियार के बल पर उनके दादागिरी को तोडना होगा। साथ ही साथ उनके दिलो को भी जितने का कार्य करना होगा। जखम बहुत गहरा हैं, जरा संभल कर निर्णय करे।

Saturday, March 27, 2010

भारत के समुज्ज्वल भविष्य के लिए शक्ति संग्रह जरुरी

भारतीय राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए शक्ति का संग्रह करना जरुरी हैं। एक सबल राष्ट्र ही विश्व में अपने सर को ऊँचा उठाकर कर चल सकता हैं। भारत के कण कण में आध्यत्मिक शक्तिया निवास करती हैं। हम अपनी सुसुप्त शक्तियों को जागृत करके एक सबल व् सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए प्रत्येक भारतीय को अपने देश के प्रति अपनी निगाहों में ऊँचा उठाना होगा। हमें छोटी छोटी छुद्र भावनाओ का तिरस्कार करना होगा । क्या हम एक संप्रभु देश में निवास नहीं करते हैं। क्या देश की अचछी बातो से जुड़ने का मतलब कुछ और हो जाना हैं। आखिर कब तक हम जाति धर्म व् दलों व् कुनबो में बटे रहेंगे। आज कौन ऐसा हैं जिसे अपने देश से मतलब नहीं हैं, कौन इससे अपने को ज्यादा महान समझता हैं। जो ऐसा समझते हैं वो भूल रहे हैं की उनके न जाने कितने पूर्वज इसी धरती के नीचे दफन किये जा चुके हैं, उनकी मिटटी मिटटी में मिल चुकी हैं। एक गिलहरी, गौरया, नदिया सभी इससे जन्म लेते हैं, फिर विलुप्त हो जाते हैं। थोड़ी सी असावधानी आपके साथ इस देश को भी खतरे में डाल सकती हैं । जापान से सीखे कैसे शक्ति संवर्धन की जा सकती हैं। कैसे अपने देश को समृद्ध व् सुसंगठित बनाया जा सकता हैं।

Thursday, March 18, 2010

नोबेल और लालटेन का विज्ञापन

नोबेल पुरस्कार और लालटेन के विज्ञापन में भला क्या समानता हो सकती हैं। शायद आप भी अचम्भित हो कर रह जाये लेकिन हैं और इसका नजारा भी देखने को मिला हैं। हैं बिलकुल खरी व् सच्ची बात। आप माने या न माने बिहार के मुख्यमंत्री, उपमुख्य मंत्री, विधान सभा के अध्यछ, विधान परिषद् के सभापति, विधान मंडल के दो सौ से अधिक सदस्यों के साथ प्रेस और मिडिया के साथियों ने भी इस सत्य को देखा हैं। दुनिया के जाने माने पर्यावरणविद और नोबेल पुरस्कार प्राप्त डाक्टर आरके पचौरी ने पटना में आयोजित एक पर्यावरण सबंधी सेमिनार में एक ओर जहा पर्यावरण की रछा पर बल दिया वही दूसरी ओर उनके साथ पहुची सहयोगी अकंछ चौरे ने उनके सहयोग से सौर उर्जा संचालित लालटेन के चार प्रकार के मॉडलो की भी चर्चा की। बकायदा तिन और पञ्च मिनट की फ़िल्म बनाकर प्रदर्शित भी की गयी। इस सेमिनार का आयोजन बिहार विधान परिषद् की पर्यावरण सम्बन्धी समिति ने आयोजित की थी। इसमें विधान मंडल के सभी सदस्यों को आमंत्रित किया गया था। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने उन्हें स्पस्ट किया की बिहार सरकार हर घर में रौशनी करना चाहती हैं लेकिन इसके लिए सौर उर्जा का बिहार मॉडल विकसित करना होगा। बिहार में कई बार लोगो द्वारा सौर लालटेन की गुणवत्ता को लेकर प्रश्न व् शिकायते की जाती हैं । बिहार में अमीर गरीब सब बिजली की कमी से जूझ रहे हैं। यह कैसी पर्यावरण बचने की चिंता हैं यह मेरी तो समझ में नहीं आ रहा हैं आप समझे तो जरुर बतायेंगे। डा पचौरी द्वारा कभी हिमालिय ग्लेशियर के वर्ष २०३५ तक पिघलने की बात की जाती हैं तो कभी तेल की बढती खपत पर तो कभी मांसाहार त्यागने के लिए सलाह दी जाती हैं। वे बराबर धरती पर बढ़ते बोझ को लेकर चिंतित दीखते हैं । क्या यह नोबेल पुरस्कार कभी कवि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर को इसी लिए दिया गया की उन्हें ठुकराने का भी फैसला करना पड़े । पाश्चात्य संस्कृति की इसी धारणा को हम तथाकथित आधुनिक कहलाने वाले लोग अनुकरण करते हैं। अगर करते हैं तो फिर भविष्य की कल्पना करे.

Saturday, February 27, 2010

मिडिया पर सरकार व् कार्पोरेट जगत का नियंत्रण

मिडिया या पत्रकारिता आज सरकार व् कार्पोरेट जगत के शिकंजे में रहकर तड़प रही हैं। इस तड़प व् दमघोटू मौहाल से गुजरने वाला हर पत्रकार वाकिफ हैं। पत्रकारिता के नाम पर सिधांतो की बात करके व् बाजार के चलन को अपनाते हुए किसी प्रकार की उत्कृष्टता की बाते की जा सके इसकी उम्मीद करना व्यर्थ हैं। एक अवसर हमें मिलता हैं जिस पर ठरते हुए हमें विचार करने की जरुरत हैं, वह हैं अपने पेशे के साथ ईमानदारी बरते। होली के अवसर पर हमें यह संकल्प लेनी चाहिए की पब्लिक में बनी यह धारणा की पत्रकारिता लोक तंत्र का चौथा खम्बा हैं यह समाप्त न हो जाये। यह कोई संविधान प्रदात सुविधा नहीं हैं। यह जन आकांछा हैं। आज मुख्यमंत्री नितीश कुमार भले ही बिहार व् देश दुनिया में बेहद लोकप्रिय हैं, अपने शासन व् सोच के कारण पुरस्कृत किये जा रहे हो, लेकिन उन्हें स्पष्ट पता हैं कि क्यों दिल्ली उनकी आवाज को नहीं सुनती। लालू का भी अपना सोचना हैं दिल्ली सत्ता कि ताकत को पहचानती हैं, फिर तो हार्वर्ड व् टेक्सास विश्वविद्यालय से कैसे मनेजमेंट गुरु कि उपाधि ली जा सकती हैंहमारे राजनेता जनभावनाओ को समझते नहीं या समझने कि जरुरत नहीं समझते हैं। इस नासमझी से फैलने वाले भरम को आम जनता भी नहीं समझती हैं। हम कहते हैं कि ये पब्लिक हैं सब जानती हैं, लेकिन भारत कि इस निरीह जनता कि पीड़ा को सुन व् समझ पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। इस मिडिया कि हिमाकत तो देखिये कि इसे अपने मान सम्मान कि भी चिंता नहीं हैं। एक सिख सवालाख दुश्मनों पर भारी पड़ता हैं लेकिन आज उशकी गति और मति देखिये। क्यों नहीं आतंकवाद का परचम लहराए, क्यों नहीं एक दुसरे पर कीचड़ उछलने का अवसर दे, क्यों नहीं अपने कॉलम, कौमाऔर फुलस्टाप को बेच दे। क्यों नहीं राजनेता उसे अपनी पैर कि जूती समझे, उसे क्यों नहीं सच्चाई के दम पर नाटक रचना पड़े। मिडिया में खबरे नहीं चकाचौंध, ग्लेमर बिक रहा हैं, सिनेमा इस से बहुत पहले से गुजर रही हैं, इसका वहा तो कोई हाल नहीं निकला अब आप और हम मिलकर इस पर विचार करे। शुभ होली।

Friday, February 19, 2010

प्रतिभा की नहीं हैं जरूत हिंदी पत्रकारिता को

हिंदी पत्रकारिता से आज के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी या शिवपूजन सहाय या नवजागरण काल के उल्लेखनीय कोई अन्य पत्रकार-साहित्यकार होते तो उन्हें आत्म हत्या कर लेना पड़ता। उनका पूरा जीवन प्रतिभाओ को सवारने में बिता, कई नये नये तथ्यों के अनुसन्धान में वे सफल रहे, सिर्फ स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ कर उनके योगदानो को कमतर नहीं किया जा सकता। मै एक बानगी देना चाहता हू। मेरे एक मित्र हैं, दो-दो विश्व विद्यालयों से हिंदी में गोल्ड मेडिलिस्ट हैं। बिहार में लेक्चररो की नियुक्ति में घोर अनियमित्ताओ के कारण तत्कालीन चयन लिस्ट में उन्हें झारखण्ड के लिए अनुशंसित किया गया। अंततः नियुक्ति नहीं हुई। कोर्ट केस का अंतहीन सिलसिला शुरू हैं। खैर, इस दौरान उन्होंने दैनिक अखबारों के लिए फुटकर रचनाये भेजनी शुरू की। जीविकोपार्जन के लिए एक अखबार से जुड़े भी। स्वयं को नबर एक खाने वाले उस अखबार की कार्यशैली ने उन्हें अपने रंग में ढालना चाहा। हार कर उन्हें नौकरी छोडनी पड़ी। अखबार में आठ दिनों के उनके अनुभव पर जब भी चर्चा होती हैं, तो लगता हैं की बाजार ने अखबारों व उनमे काम करने वालो की मानसिकता ही बदल दी हैं। वह दिन दूर नहीं जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हाय तौबा मचाने वाले स्वयं इस पर नियंत्रण की जरुरत महसूस करने लगेंगे। फिल्मो के लिए सेंसर बोर्ड, राजनेताओ के लिए आदर्श चुनाव संहिता तो पत्रकारों के लिए भी कड़ाई से निर्धारित नियमो व् आदर्श आचरण संहिता को लागु की जानी चाहिए। यह तय होना चाहिए की कौन सी खबर प्रायोजित हैं उसका उल्लेख हो। हिंदी की टांग तोड़ने वाले हिंदी अखबारों की खबर लेनी चाहिए।

Friday, February 12, 2010

पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी क्यों

अपनी बातो को शुरू करने के पूर्व मेरी गुजारिश हैं की आप पूर्व वाले आलेख को अवश्य पढ़े जिसे वरिष्ठ पत्रकार व् चिन्तक मृणाल पांडे ने लिखा हैं। मुझे नहीं लगता की सर्वहारा वर्ग के बीच अखबारों की पठनीयता को लेकर कोई भ्रम हैं। वे अपनी जानिब विरोध या बहिष्कार नहीं कर रहे हैं। इस सर्वहारा समाज को इतना भी अनपढ़, जाहिल समझने की भूल करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। यह वही समाज हैं, जिसकी बुनियाद पर बाजार अपना विस्तार कर रहा हैं। पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी बरते जाने की जरुरत नहीं हैं। कुकुरमुतो की तरह उग आये पत्रकारिता संस्थानों से निकलने वाले पत्रकारों को वरिष्ठ पत्रकारों के माध्यम से ज्यादा सजग करने की जरुरत हैं। श्री मिडिया से यह उम्मीद करना की वह सर्वहारा की आवाज बुलंद करेगा, यह वक्त की जरुरत हो सकती हैं लेकिन मुश्किल हैं। इसमें शहरी वर्ग व मिडिया की अपनी जरूरते खतरे में पड़ जाएगी। कोई भी वर्ग अपनी सुविधाओ की कीमत पर किसी दुसरे वर्ग की हिमायत भला क्यों कर करेगा। पत्रकारिता की दुनिया से बाबस्ता सभी पत्रकार यह जानते हैं और महसूस करते हैं की जिसे अवस्क किस्म की लीपापोती की संज्ञा दी जा रही हैं उसका सीधा सरोकार किस्से हैं। पत्रकारिता की दुनिया में भले ही किसी आवाज या भावनाओ का गला घोट देना आसान हैं लेकिन संचार के बढ़ते साधनों के बीच अब उन आवाजो को अनसुना या नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उतम साहित्य लेखन हो या उम्दा पत्रकारिता पहले भी बलिदानियों के रास्तो पर अपनी राह बनाती रही हैं। हर हर गंगे कह कर अपनी पीढियों के तर जाने की उम्मीद रखने वाले भले ही एक दुबकी लगा कर अपने मन को समझा ले , गोता लगाने वाले लगा भी रहे हैं , मोतिया निकाल भी रहे हैं। इन्हें किसी बात का शिकवा गिला नहीं हैं। वक्त हर बात का हिसाब किताब कर देता हैं। हमें उनसे सबक लेनी चाहिए। इसमें कोइ शक नहीं की हिंदी पत्रकारिता खबरों की विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही हैं। शोध व सत्यापन युक्त खबरों को प्रकाशित करने का निर्णय कौन करता हैं इस पर भी प्रकाश डाला जाना चाहिए। इनके नहीं प्रकाशित किये जाने के लिए कौन सा वर्ग जिम्मेवार हैं उन्हें चिन्हित करना चाहिए। क्या इनसे बचाते हुए सर्वहारा को पाठ पढाना उचित हैं।

हिंदी पत्रकार अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाए

डुबकीधर्मी देश में सर्वहारावाद : मेरे इस प्रस्ताव से कि हिंदी अखबारों के हर घालमेल का ठीकरा पहले वरिष्ठ संपादकीय कर्मियों पर फोड़ने और फिर उन्हीं से स्थिति बदलने की मांग करने के बजाय, क्यों न खुद आम पाठक भी जागरूक उपभोक्ता का दायित्व निभाते हुए ऐसे अखबारों का समवेत विरोध और बहिष्कार करें, एक महोदय बेहद गुस्सा हैं। उनकी राय में हिंदी अखबारों का आम पाठक तो एक 'सर्वहारा' है। पेट भरने की चिंता का उस पर दिन-रात उत्कट दबाव रहता है, इसलिए उससे लामबंद प्रतिरोध की उम्मीद करना गलत है। और उपभोक्तावाद तो नए पैसे का एक निहायत निंदनीय प्रतिफलन और उपभोग का बाजारू महिमामंडन है। इसलिए सर्वहारा को उपभोक्ता कहना उसका अपमान करना है, आदि।
आशय यह है कि भारत में सर्वहारा एक मूक, अपढ़, अनाथ वर्ग है जो सामूहिक तौर से शेष समाज की दया और अनंत इमदाद का ही पात्र ठहरता है। और इस वर्ग के हकों का परचम उसके बजाय हमारे मुखर-पढ़े-लिखे शहरी मीडिया को ही आगे आकर उठाना चाहिए। सर्वहारा और उपभोक्तावाद की ऐसी व्याख्या के तहत 'सर्वहारा' एक बे-चेहरा मानव समूह का मूक हिस्सा बन कर रह जाता है। हर आदमी के पास अपनी जो एक बुनियादी विशिष्टता और जीवन संघर्ष के दुर्लभ अनुभव हैं, जिसके बल पर हम साहित्य में घीसू, धनिया, लंगड़ और होरी जैसे अविस्मरणीय पात्रों से रूबरू होते रहे हैं, उसके प्रति ऐसे सपाट सर्वहारावाद में एक गहरा अज्ञान झलकता है। क्या हम भारत को अपने आदर्श सर्वहारापरस्त रूप में अगर एक व्यक्ति और बाजार निरपेक्ष देश मान लें? तो फिर उस अंतर्मुखी घोंघे के भीतर दुनिया की महाशक्ति बनने की उत्कट कामना क्यों?
आज हर व्यक्ति जो बाजार में खरीदारी करता है, भले ही वह पाव भर आटा, पचास ग्राम नमक और दो हरी मिर्चें ही क्यों न मोलाए, एक उपभोक्ता है, और बतौर उपभोक्ता वाजिब कीमत पर ठीकठाक सामान पाने का उसे पूरा हक है। फर्क यही है कि अक्सर उसे अपने इन हकों की जानकारी नहीं होती, और अगर होती भी है तो वह उनको बिना एकजुट हुए हासिल नहीं कर सकता। इसलिए गरीब उपभोक्ता को लगातार उपभोक्तावाद विषयक सटीक जानकारियां देना और अपनी विशाल बिरादरी के साथ एकजुट कानूनी गुहार लगाने का महत्व समझाना और भी जरूरी है।
हर राज्य में हिंदी अखबार का गाहक आज औसत अंग्रेजी अखबार के गाहक से अधिक दाम देकर, अपेक्षाकृत कम पन्नों का अखबार खरीद रहा है, अलबत्ता सर्वहारा के हक के नाम पर दामन चाक करने वालों ने इस पर कुछ नहीं कहा-किया है। फिर भी बिहार के किसी छोटे से गांव से बस से शहर आकर रोज स्टाल पर रखे अखबारों में अपने काम की खबरों की तादाद चेक कर तब अखबार खरीदने वाला गरीब पाठक (यकीन मानें इनकी तादाद लाखों में है) बड़े शहर के बातों के धनी मध्यवर्गीय पाठक से तो कहीं बेहतर उपभोक्ता हैं, जो हाकर से अक्सर किसी प्रमोशन स्कीम के तहत (मुफ्त चाय या स्टील का डिब्बा या तौलिया पाने के लिए) महीनों के लिए एक अखबार बुक करा लेता है, वह पसंद हो या न हो। गांव-कस्बे का यह पाठक गरीब भले हो, पर वह अखबार का एक जागरूक पाठक है, जिसकी अपनी स्पष्ट पसंद, नापसंद है, और स्थानीय सरोकार भी। अगर वह एकजुट होकर अखबारों की ईमानदारी पर सवाल बुलंद करे, और भ्रष्ट अखबारों का बहिष्कार भी, तो स्थिति में स्थायी सुधार होगा, और जल्द होगा, क्योंकि बाजार अब तेजी से छोटे शहरों और गांवों की तरफ खिंच रहा है।
वैसे गांधीजी के 'अंतिम सीढ़ी के व्यक्ति' की पक्षधरता जरूरी है, इस पर हमारे यहां सब प्रगतिशील लोग सहमत दिखते हैं। पर सर्वहारा नामक प्राणी को बार-बार अर्थहीन अनुष्ठानों से न्योतने के बाद भी हमारे राजनीतिक दलों के मुख्यालयों से लेकर हिंदी अखबार तक में उस गरीब की जमीनी और तात्कालिक स्थिति की गहरी, व्यवस्थित और व्यक्तितश: पड़ताल के प्रमाण हमें शायद ही मिलें। सरलीकरण, बस सर्वत्र सरलीकरण, और अंत में चंद पिटे-पिटाए निष्कर्ष।
हम गहरे पानी में पैठ कर मोती खोजने के बजाय तट पर ही एकाध डुबकी लगा कर 'हर हर गंगे' का नारा बुलंद करने वाले देश के वासी हैं। यहां डुबकी लगा कर समय और मेहनत बचाए जाते हैं, जबकि धारा में पैठना निरंतर तैरने की क्षमता मांगता है, हजारों कष्टसाध्य, जोखिमभरी शैलियां सीखने का आग्रह करता है। हमारे पूर्वजों ने कभी सप्त सिंधु और अनगिनत महानदियों के देश में गहरे जाकर तैरने-तरने के कई लाभ भले गिनाए हों, पर सच तो यह है कि आज हम श्राद्ध से लेकर पर्व के अवसर तक तट पर खड़े हो...गंगे चैव यमुने गोदावरीसिंधुकावेरी...जपते हुए, तमाम नदियों का अपनी छोटी-सी अंजली में ही न्योत कर तृप्त हो जाते हैं। एक डुबकी लगाई और मान लिया कि सात पीढ़ियां तर गईं।
इस वक्त जबकि खबरों की विश्वसनीयता और ढांचागत समायोजन, दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की पत्रकारिता एक जटिल दौर से गुजर रही है, बाजार में पाठकों के बीच भरोसा बहाली और अपने घर भीतर पत्रकारिता के स्वस्थ मानदंड पुन: स्थापित करने के लिए न्यूनतम शर्त यह है, कि पत्रकार बंधु अवयस्क किस्म की लीपापोती या सर्वहारावाद की ओट लेकर छिछोरी छींटाकशी करने से बाज आएं। क्यों न वे हिंदी अखबारों की बेहतरी पर गंभीरता से बात करें, नए बदलावों के बारे में अपने अनुभव साझा करें, पन्नों पर संपादकीय मैटर और विज्ञापन के इलाकों के बीच साफ-सुथरी विभाजक रेखाएं बनाने के लिए समवेत नीतियां रचें, ताजा खबरों के निरंतर सत्यापन और उससे जुड़े दायरों पर पत्रकारिता से इतर क्षेत्रों में हो रहे शोध की जानकारी लें, जमीनी भागदौड़ को खबरें जमा करने की बुनियादी जरूरत समझें और हिंदी को सिर्फ एक माध्यम नहीं, बल्कि जीवंत, निरंतर गतिशील कथ्य के रूप में भी देखें बरतें।
हिंदी पत्रकारिता के संकट से निबटने के लिए क्या जरूरी नहीं कि पहले हिंदी के पत्रकार खुद अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाएं और मनुष्य के नाते अपने आपको अपने प्रतिस्पर्धियों की बराबरी का तो महसूस करें? हिंदी अखबारों की कमजोरी की भावुक आर्थिक-समाजशास्त्रीय व्याख्याएं देना बेकार है। बेकार मन समझाने को हम क्यों कहें कि हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा पूरी दुनिया की पत्रकारिता के संकट का ही अंग है। पूरी दुनिया की पत्रकारिता की धारा में आए प्रदूषण से शिकायत हुई तो वह तुरंत भीतरी सफाई में जुट गई। उसने खबरों का रूप संवारा, खर्चे कम किए, बाहरी स्तर पर तकनीकी मदद के लिए वह 'एपल' की नई ई-टैबलेट से लेकर गूगल तक को टटोल रही है। उधर हम नाराज तो हैं, पर हस्बेमामूल पलायन करना चाहते हैं। इसलिए अपनी खीझ को छिपाने को हम सर्वहारा के नाम पर या बाजार के खिलाफ खूब शोर मचा रहे हैं, ताकि बाजार वालों को लगे कि हम स्थिति से जूझ रहे हैं। जबकि भीतरखाने वही ढाक के तीन (या दो) पात नजर आते हैं। इस तरह की कायर डुबकीवाद हरकतों से हम तट से रत्तीभर भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे, डूब भले ही जाएं। साभार : जनसत्ता
लेखिका मृणाल पाण्डे जानी-मानी साहित्यकार और पत्रकार हैं.

Tuesday, February 9, 2010

कांग्रेस की दोहरी नीति

देश के नीति नियंताओ की समझ और उनके निर्णय को लेकर आम जनता को हमेशा गफलत में डाला जाता रहा हैं। खासकर कांग्रेस की अदूरदर्शी नीतियों के कारण यह समझ पाना मुश्किल हैं की वो कब लॉंग प्लानिग के तहत देश को विभाजित करती तो कभी राष्ट्रवाद की पछधर हो जाती महसूस होती हैं। मनसे को मुबई में सर उठाने का मौका देना फिर उसका दुरपयोग करते हुए शिवसेना व् भाजपा को चुनावी शिकस्त देना, फिर लगे हाथ शिवसेना को उसकी औकात उसके ही गढ़ में बता देना, कोई कांग्रेस से सीखे। यह तो उपराष्ट्रवाद को नियंत्रित करने की कवायद थी लेकिन एक वर्ष में महंगाई को लेकर पुरे देश में जो अफरातफरी मची हैं, क्या अमीर और गरीब सब उससे पीड़ित हैं। कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शरद पवार एंड कंपनी को पहले तो बचने का मौका दे रही हैं, लगता हैं फिर उसका दिन फिरने वाला हैं । सचेत हो जाये शरद जी, जनता को बरगलाने की कोशिश न करे , सुगर फ्री फुड की आदत न डलवाए। पंजाब में आतंकी घटनाये हो या कश्मीर में, नार्थ ईस्ट की बात हो या महाराष्ट्र की उप राष्ट्रवाद की बलवती होती भावनाओ को बलपूर्वक कुचला जाना जरुरी हैं।राज्यों के अन्दर छोटे राज्यों के निर्माण की कई लोग वकालत करते हैं, ठीक हैं लेकिन जरा यह भी तो समझे की क्या इसी प्रकार के राजनितिक विजन व नौकरशाही को लेकर विकास के पथ पर आगे जाया जा सकता हैं। ---

Tuesday, February 2, 2010

राहुल के बिहार दौरे का निहितार्थ और कांग्रेस

राहुल गाँधी के दो दिवसीय बिहार दौरे ने बिहार के युवाओ में एक बार फिर कांग्रेस के प्रति उत्सुकता बढ़ा दी हैं। वे यहाँ कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओ में संभावित उमीद्वारो की तलाश करने और कांग्रेस की नब्ज टटोलने आये थे। बिहार की राजनीति से कांग्रेस के निर्वासन का लगभग दो दशक बीतने को हैं। गलाकाट आन्तरिक कलह व सुविधाभोगी राजनीति ने जेपी के चेलो को अवसर प्रदान किया। समाजवादी विचारो को लेकर चाहे लालू हो या नीतीश दोनों सता के केंद्र बिंदु बन गए। रामविलास पासवान ने स्वयं को केन्द्रीय राजनीति में ला कर चाहे जिस की भी सरकार रही उसे शुद्ध भाषा में कहे तो सिर्फ अपना उल्लू सीधा किया। राहुल के आने के समय बिहार की युवा पीढ़ी के विचारो में आमूलचूल परिवर्तन आ चूका हैं, कांग्रेस को बिहार की जरूरतों को समझाना होगा। जब कांग्रेस शासित राज्यों में उत्तर भारतीयों खासकर बिहारियों को प्रतारित किया जायेगा, बिहार की केन्द्रीय योजनाओ में मिलने वाली हिस्सेदारी में कटौती की जाती रहेगी, प्रति वर्ष आने वाली बाढ़ से निजात नहीं दिलाया जाता जिसमे केंद्र की भूमिका महत्वपूर्ण हैं तबतक बिहारी युवाओ की पीठ पर कांग्रेस की सवारी करना मुश्किल हैं। बिहार की सम्पूर्ण राजनीति के कुछ अपने अन्तर्विरोध भी हैं , इसे राहुल को समझना होगा । राहुल ने बुजुर्ग कांग्रेसियों को सन्देश दे दिया हैं की राजनीति हो या खेलनीति युवाओ को तरजीह दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। राहुल ने महात्मा गाँधी की कर्मस्थली भितिहरवा से अपनी यात्रा शुरू की, लेकिन गाँधी से महात्मा की राह आसान नहीं। राहुल बाबा बहुत कठिन हैं डगर पनघट की.

Saturday, January 30, 2010

कैसे हैं जनाब, थ्री इडियट से क्या हुई मुलाकात

सडक पर, रस्ते में, राजनीति में ,पत्रकारिता में हर जगह आपको थ्री क्या फोर, फाइव, सिक्स इडियट मिलते होंगे, लेकिन उनसे आपने क्या कभी कुछ सिखने की कोशिश की। आइये परदे पर थ्री इडियट हमें कुछ बता रहा हैं उसे जानने की कोशिश करते हैं। यह सही हैं की कैरियर को लेकर दिल की बाते सुनने की बाते, खास कर गुरुकुल के जमाने में बच्चो को उनके अनुरूप वातावरण उपलब्ध करा कर उनकी प्रतिभा में निखार लाया जाता था। इन्हें हम योग की भाति ही भूल गये थे, जिसकी याद बाबा रामदेव जी ने कराया हैं। हमारी नई पीढ़ी को भूलने की आदत होती जा रही हैं। मै कई ऐसे बच्चो को जानता हु जिन्हें टीवी पर दिखने वाले हिरन और बकरी में विशेष अंतर समझ नहीं आता। गाँधीजी के योगदान तो छोड़ दे, उनकी खिचाई करते किशोर व युवा मिल जाते हैं। दिल की सुनने वाले इडियट, आवारा, दीवाना कहे जाते हैं। नई लकीर खीचने वाले को अपनी वजह साबित करने में लम्बा वक्त लग जाता हैं.

Monday, January 11, 2010

नव वर्ष नूतन सन्देश

आज हम जो भी सोचते हो, कल जरुरी नहीं वैसा ही हो। जीवन की नयी प्रणाली, नई विधा विकसित करने का अवसर हो, जीवन को अपने निर्धारित लछय की ओर ले जाने का इरादा हो तो हम जरूर कामयाब हो सकते हैं। क्या हम बेहतर भारत का निर्माण नहीं कर सकते हैं। आइये, बेहतर समाज के निर्माण में हम अपना योगदान दे सके, ऐसा कुछ करे। मानसिक रूप से विकलांग हो चुके लोगो के प्रति संवेदना रखते हुए कुछ नया करे.

Saturday, December 12, 2009

फिल्म पा ने मनोरंजन के साथ दिए गंभीर संकेत

कला मर्मज्ञ व् उसकी बारीकियों की समझ रखने वाले भी इस बात की गवाही देंगे कि फिल्म पा ने मनोरंजन के साथ साथ बिमारियों के प्रति समाज की समझ को गंभीरता प्रदान की है। अमितजी की अभिनय के प्रति समर्पण देखते बनती है। खैर, आज की हिन्दी फिल्मो को लटके झटके से दूर गंभीर मसलो के प्रति ध्यान देने के लिए बखूबी प्रयास शुरू कर दिया गया है। खासकर, आमिर खान की कमजोर मानसिक बचचो को लेकर कुछ दिनों पूर्व आई फिल्म तारे जमी पर इसी तरह की एक संवेदनशील तस्वीर प्रस्तुत करती थी । जब हमारे फिल्म निर्माता करोडो रुपया फिल्मो के निर्माण में लगाते है तो उन्हें एक बेहतर समाजोपयोगी फिल्मो के निर्माण से गुरेज क्यूकर होता है समझ में बात नही आती। अच्छे भवन निर्माण की सभी तारीफ करते है, चाहे उसमे रहने वाले हो या उसे बहार से निहारने वाले। खासकर समाज के सबसे उपेछित विकलांग चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक उनके भावनाओ व् संवेदनाओ को जब जब आवाज दी जाती है, समाज का हर वर्ग उससे अपना लगाव महसूस करता है। हद तो यह है की सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों में एक मानसिक विकलांग आरोग्यशाला स्थापित करने का निर्देश दे रखा है लेकिन कई ऐसे राज्य है जहा यह सुविधा सरकारों के द्वारा मुहैया नही करायी जा सकी है। हम रोजाना न जाने कितने ऐसे मामले रोज देखते है और सुनते है, लेकिन विकलांगो पर रहम बस उस श्मशान की अनुभूति मात्र होती है जैसे एक लाश फुकने के बाद शायद अब हमें तो मौत आयेगी ही नही। शारीरिक सौन्दर्य की अपनी एक सीमा है, लेकिन मानसिक तौर पर असुंदर लोगो की पहचान कौन करेगा , उन्हें स्वास्थ्य और सुंदर होने को कौन प्रेरित करेगा। हमें अपनी ओर और अपने आसपास भी नजर दौड़नी चाहिए।

उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के पटना दौरे की कवरेज करने के बाद थक सा गया हु, उनके विचारो पर भी खासा लिखना चाहता था, फिर कभी .....

Monday, November 23, 2009

प्रतिक्रियावादियों पर कार्रवाई हो, राष्ट्रीय एकता पर कर रहे घात

बाला साहेब ठाकरे हो या राज अथवा कोई अ ब स राष्ट्रीय एकता व अखंडता से खिलवाड़ करने वालो पर कड़ी कार्रवाई होनी बहुत जरुरी है। इस प्रकार के प्रतिक्रियावादियों को बकसना खतरे से खाली नही है। भाषा, प्रान्त, जातीयता, धर्म के नाम पर राष्ट्रीय भावना ले साथ खिलवाड़ करना किसी भी सूरत से मुआफ करने योग्य नही है। कांग्रेस सरकार आग से खेलती रही है। अभी अभी सूचना मिली है की संसद की कार्रवाही के दौरान हंगामा मचा है। इंडियन एक्शप्रेस ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की जाच के लिए गठित लिब्राहन आयोग की बंद रिपोर्ट के अंश को प्रकाशित कर दिया है। किसी भी रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखे बिना उसकी सूचना को कैसे सरकारे लिक करती है यह सरकार की गतिविधियों की निगरानी करने वाले पत्रकार बेहतर जानते है। अपने विरोधियो पर नियंत्रण करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टियों द्वारा किए जाने वाले कुकृत्यों पर एक सम्पूर्ण किताबे लिखी जा सकती है। सामना में समानांतर मिडिया का दुरपयोग करते हुए जिस प्रकार शिव सेना अपनी खुराफातो का इजहार कर रही है, उस पर प्रेस कोंसिल ऑफ़ इंडिया को भी कड़ा रूख अपनाना चाहिए। कभी सचिन तेंदुलकर तो कभी किसी को निशाना बनाने वाले को सबक सिखाने की जरुरत है। सत्ता जिस प्रकार अपने साधनों का दुरपयोग करती है इस पर विचार करने की जरुरत है । जिस देश की आधी से अधिक आबादी भूख, अशिछा,स्वस्थ्य सुविधाओ से वंचित हो वहा इस प्रकार की ओछी हरकते करने वाले को जनता अपने मताधिकार के माध्यम से सबक सिखाये। जनता को हर पल जागृत करने में युवा राष्ट्रिय्वादियो को सामने आना चाहिए। याद रखे देश के स्वाभिमान से खिलवाड़ करने वालो को इतिहास कभी माफ नही करेगा। बलिदानियों के इस देश में भारतीय मनस्विता उचतम स्तर की है, पहाड़ो की कन्दरा में निवास करने वाले, चीथडो में लिपटे रहने वाले लोगो के पास असीम उर्जा का स्रोत है। इनके ह्रदय में छिपे आग को हवा देने की हिमाकत कोई भी राजनितिक दल न करे। गरीबो की आह उन्हें ले डूबने के लिए काफी है।

Monday, November 16, 2009

साहित्य का महादलित परिवार है पत्रकारिता

हिन्दी साहित्य के बड़े परिवार में हिन्दी पत्रकारिता महादलित परिवार है। बहुत खूब मृणाल जी ने पटना में तिन दिन पहले कहा की, हमारा समाज जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उस तेजी से पत्रकारिता का विकास नही हुआ है। हिन्दी में शपथ लेने पर भले ही अबू आजमी को पीडा झेलनी पड़ी लेकिन इस प्रकरण में हिन्दी और रास्ट्रीय एकता मुखर हुई है। देश के लगभग सभी उर्दू अखबारों ने मनसे की कारगुजारियों की भर्त्सना तो की ही साथ ही रास्ट्र भाषा के सम्मान के प्रति भी अपनी चिंता प्रगत की। हिन्दी पत्रकारिता के महादलित होने का ही परिणाम है की हिन्दी के प्रति चंद बयानबाजी को प्रकाशित कर अपने कर्तब्यों की इतिश्री समझ ली। यह हिन्दी पत्रकारिता का ही कमाल है की बजार के समछ घुटने टेकते हुए हिन्दी के मानदंडो को दरकिनार करते हुए उसने भाषा का पुरा रूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। हर भाषा की अपनी खुबशुरती होती है, उसमे लालित्य होता है उसे नस्त भ्रष्ट कर दिया गया है। राजनीति किसी को कभी अछूत समझती है तो कभी उसे हरिजन, अब तो उसे दलित बताया जा रहा है। इन के पीछे दौड़ती हिन्दी पत्रकारिता को पता नही की वो किसे अपनाए और किसे छोड़ दे। सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह को पटना में ही कहना पड़ा की अब तो पुस्तक विमोचन करते करते हाथ घिसा जा रहा है।यही होता है जब आप अपने पैनेपन को धर देते देते थक जाते है तो समाज आपकी भूमिका तय कर देता है । हिन्दी साहित्य व पत्रकारिता ने अपने अबतक के सफर में बहुत परिवर्तन देखे है । साहित्य की भूमिका समाज का मार्गदर्शन करना है, बाजार के दबाब के बीच नए रास्ते तलाश करना है , न की बाजार के आगे घुटने टेकना है। साहित्य को अपने महादलित परिवार के बारे में भी सोचना होगा। पत्रकारिता का काम जनमत का निर्माण करना है । बाजार के आगे घुटने टेक देने से वह अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित कर रहा है । राजनेताओ को लिखने पढने से कोई वास्ता तो रह नही गया है, और वह कोई मार्गदर्शन व सलाह पर चलने को तैयार नही है। भद्र लोगो ने बोलना कम कर दिया है। वो भी पत्रकारिता के बदली हुई भूमिका से वाकिफ है। दो दिन पूर्व जब सचिन ने स्वयं को पुरे देश का चहेता बताया तो बालासाहेब के कलेजे पर साप लोट गया। अमिताभ बचचन भी सार्वजानिक मुद्दों पर बच कर बोलते है। लता मंगेशकर भी उतनी रूचि नही दिखाती । क्या मुठ्ठी भर गुंडों व मवालियों के डर से हर खासो आम सहमा रहे तब सरकार, कानून व संविधान की जरूरत ही क्योकर है।

Saturday, October 31, 2009

कांग्रेस की सफलता और बीजेपी खस्ताहाल

राहुल गाँधी ने जबरदस्त चुनावी प्रबंधन किया, कांग्रेस को खेमेबाजी से बचाते हुए राज्यों को विकास के सपनो से जोड़ा। हालत उनके लिए भी कम मेहनत व जद्दोजहद वाला नही था। भारतीय जनता पार्टी ने मौका गवा दिया। उनकी आपसी फूट व कलह ने तीन राज्यों के चुनाव में पहले ही कांग्रेस को वाक ओवर दे दिया । पार्टी विथ डिफ़रेंस की छवि धूमिल होती जा रही है। कांग्रेस के वंशवाद, परिवारवाद, सत्तालोलुपता के विरूद्व धारदार अभियान चलाने में नाकाम रहे भाजपा नेतृत्व को अपनी अपनी कुर्सी की ही पड़ी थी। संघ नेतृत्व के प्रति आस्था जताने वालो ,उनसे सर्जरी की मांग करने वालो, जसवंत प्रकरण पर अपनी बेचैनी प्रदर्शित करने वालो की कोई कमी पार्टी में नही रही। बिना मजबूत विपछ के सत्ता व शासन में रहने वाली सरकार का नजरिया जनता के प्रति कैसी हो सकती है, इसकी उम्मीद पाठक कर सकते है। कांग्रेस ने बड़ी सोच समझ कर खासकर मुबई में राज ठाकरे को पुष्पित पल्वित होने दिया। शिव सेना के बड़बोले पण की हवा निकाल दी। आरुनाचल में कांग्रेस की सफलता लगभग तय थी। उतर पूर्वी राज्यों की और देश की शेष दछिन पंथी पार्टियों के बीच अब भी दुरी बनी हुई है। यह खतरनाक स्थिति है। वाम पंथी नक्सली संगठनो द्वारा नेपाल से बिहार, उडीसा होते हुए आन्ध्र प्रदेश तक बनाया गया रेड कारीडोर भारतीय एकता व अखंडता के लिए गंभीर चुनौती है। राजनीतिक दल खास कर राष्ट्रीय पार्टिया आपसी खीचतान में न उलझ कर राष्ट्रीय समस्याओ के प्रति गंभीर हो तो कोई बात बने। जिस देश में लाखो गरीबो के घर बच्चो को अब भी भर पेट भोजन नही मिल पा रहा हो वंहा आपसी फुट व अंतर्कलह से आख़िर हम किसे मुर्ख बनाते है। कलयुग में दरिद्रनारायण के घर ही नारायण का अवतार होने वाला है। जो सही मायनो में हमारा पथ प्रदर्शक, दुखो को हरने वाला होगा। हमारी गति मति यह है की हम इन्हे ह्रदय से लगाते चले। याद रखे की इस देश में कितने बादशाओ , शहंशाओ को इतिहास ने अपने पैरो तले कुचल दिया है। आपकी सारी नफरते, क्रोध, बेईमानी धरी की धरी रह जाएँगी। अपने साथ समाज व समुदाय का भला नही सोचने वालो का जीवन व्यर्थ ही है।

Wednesday, September 23, 2009

हिन्दी पट्टी की संवेदनाओ को कब मिलेगी जुबान

हिन्दी दिवस बीत गया, कई लोगो ने इस दिवस के नाम पर अपने अपने तरीके से कर्मकांड को पुरा किया। भाषा की पीडा को समझाने व् समझाने में अपनी उर्जा झोक दी। हिन्दी पट्टी की समस्याओ और भाषा के संकट के मध्य संबंधो को जोड़ने में असफल रहे। आखिरकार कब हिन्दी स्थानीय समस्याओ और पीडा को दूर करने का सशक्त माध्यम बनेगी। नवजागरण काल का तेवर हिन्दी में कब लौटेगा। माना की उस वक्त आजादी सम्पूर्ण राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्छ था हिन्दी उसकी वाहिका थी, लेकिन आज जब दूसरी आजादी की जरुरत महसूस की जा रही है, क्या हिन्दी को अपनी भूमिका नही बदलनी चाहिए। हिन्दी अखबारों ने अपनी भूमिका बदल ली है लेकिन दुसरे संदर्भो में, वह विशुद्ध तौर पर वयवसाय से जा मिली है। वहा कारपोरेट कल्चर हावी होता जा रहा है। उसे आम आदमी की पीडा सोने के बढ़ते घटते भावः से कमतर महसूस होता है। महानगरीय कल्चर उसे अपनी ओर खीच रहा है। उसे हर आदमी मशीन में तब्दील होता दिख रहा है। हिन्दी के साथ नये प्रयोग किए जा रहे है जहा हिंगलिश में उसका नया रूप देखने को मिल रहा है। हिन्दी पहले भी देश की आत्मा थी, कल भी रहेगी, कोई इस मुगालते में न रहे की पल पल मरती अन्य भाषाओ की भाति इसकी मौत होने जा रही है। लेखको को जनसरोकारों वाले मुद्दों को साहित्य का अधर बनाना होगा, रोमांटिक खयालो में आम आदमी की पीडा को नजरंदाज नही किया जा सकता। मंचीय कविताओ को भौदेपन से मुक्त कर धार देनी होगी। भाषा के साथ जीना होगा , उसमे संवेदनाओ की प्रबल हिस्से को महसूस करना होगा। आईये, इस ओ़र हम अपने कदम को आगे बढाये, उस पुण्य के भागी बने जिसे हमारे पूर्वजो ने अपने खून और पसीने से सीचा है। थोड़ा सा प्रलोभन या पुरस्कार हमें अपने मार्ग से नही डिगा सके।

Thursday, August 27, 2009

भाजपा आज नही जनसंघ के ज़माने से ही भटक चुकी है

आप कभी नवजागरण कालीन हिन्दी पत्रकारिता पर नजर डाले। पुरानी फाइलों को खंगाले। आप देखेंगे की भाजपा आज नही जनसंघ के ज़माने से ही भटकी हुई है। मेरी समझ जित्तनी है, उसके मुताबिक अटलजी भारतीय सनातन राजनीतिक परम्परा के अन्तिम राजनेता है। सबको साथ लेकर चलने की समझ न तो जनसंघ ही विकसित कर सका न ही भाजपा उस परम्परा का निर्वाह कर सकी है। भारतीय राजनीति की दिशा व् दशा तब से ही बदलनी शुरू हो चुकी थी जब कांग्रेस में गर्म व् नरम दल के बीच मत्भिनता चरम पर थी। १९३० के पूर्व गांधीजी के कई प्रयोग असफल सिद्ध हो चुके थे। गाँधी भारतीय समाज की धड़कन को समझाने का प्रयास कर रहे थे। जिन्ना को लेकर पब्लिशिटी बटोरने के इक्छुक राजनेताओ को जनसंघ के पूर्व की हिंदूवादी सहिष्णु विचारधाराओ का भी विश्लेषण करना चाहिए। उसमे आए भटकाव की भी चर्चा करनी चाहिए। उन्हें बताना चाहिए की कैसे ब्रिटिश सरकार ने रास्ट्रवादी पत्रकारों व् लेखको को मौत के घाट पहुचा दिया। कई लोग जेलों की सजा काटे। क्यो गणेश शंकर विद्यार्थी को बीच सड़क पर दंगा फसाद करने वालो ने कानपूर में मार गिराया। जिन्ना को उर्वर भूमि प्रदान करने वालो में क्या बड़े राजनेताओ के साथ भारतीय मानसिकता में आ रहे परिवर्तन की भूमिका नही थी। इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है की हम हरे चश्मे से लाल देखना चाहते है। अपनी गौरव गाथा को भुलाना कोई हम से सीखे। आज कितने घर है जहा बच्चो कों भारतीय वीरो की गाथा, भगत सिंह,असफाक , बिस्मिल की कहानिया सुनाये जाते है, शिवाजी, राणा प्रताप, सावित्री, लक्छमी बाई, सरवन कुमार की जानकारिया दी जाती है। बाजार की भाषा में बात करे तो अच्छे प्रोडक्ट के लिए थोडी तयारी तो करनी ही होगी।

Tuesday, August 11, 2009

पीठ पीछे वार कर रहा बाजार हमारी जेब पर

महंगाई को लेकर पुरे देश में हाय तौबा मची है। सुखा व् बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे लोगो के ऊपर महंगाई की मार तेज है। स्वैईन फ्लू ने अपने पाव जमने शुरू कर दिए है। मिडिया सब कुछ को हलके में ले रही है सिर्फ स्वैईन फ्लू को छोड़ कर। अपनी प्रथामिकताये तय करने मिडिया का कोई जबाब नही है। तथ्यों के पीछे न जा कर हलके में कोई बात कैसे की जाती है यह इसे वर्तमान समय में सिखा जा सकता है। जब अमेरिका, जापान सहित एनी देशो में लाखो लोग स्वैईन फ्लू से पीड़ित है और मरने वालो की संख्या कही ८५ तो कही ३०० के आसपास है। फिर भारत में इसको लेकर हाय तौबा मचाना कहा की फितरत है। शहरो में मरने वाले लोग मिडिया कोई दिख जाते है, लेकिन दूर गाव में जो भूख से मर रहे है, उन्हें प्रशासन भी रोग से मौत बता देता है। चीनी की कीमत ३२ रूपये हो गई है तो दाल आम आदमी केथाली से गायब होता जा रहा है। इथनौल के उत्पादन को लेकर पहले तो चीनी के उत्पादन पर झटका लगा, फिर बिक्री कैसे हो। हद तो यह है की बिहार जैसे सर्वाधिक गन्ना उत्पादक राज्य में भी दुसरे राज्यों की तरह धन अर्जित करने को लेकर सरकार के स्तर से ही गन्ना से सीधे इथनौल बनने की अनुमति देने की मांग की जा रही है। कई बड़ी कंपनियों ने तो हजारो करोड़ के प्रस्ताव भी दे रखा है । राज्य सरकार भी केन्द्र की ओर उम्मीद लगाये बैठी है । विकास की नीति बनाने वालो को धरती पर रह कर सोचना होगा। चीनी के बाद गुड की सोचे तो, सरकारी नीतियों की पोल ही खुल जाती है। गाव चौबारे में गुड आज की तारीख में दुर्लभ चीज हो गई है। गुड उत्पादन पर इतने तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए गए है की कोई किसान सोचता तक नही, अगर उत्पादन करता भी है तो सिर्फ अपने उपयोग भर ही। कई खाद्य पदार्थ तो खेत खलिहानों से गायब होती जा रही है। कोई इस पर शोध करे तो कई रोचक जानकारिया प्राप्त हो सकती है। आप कविताये लिख कर या कंप्युटर चलाकर ही अपने पेट नही भर सकते, हमें अपने अन्दताओ की ख़बर रखनी ही होगी।

Saturday, July 25, 2009

लूटती रही अस्मत, न्यूज़ रूम में शुरू हुआ विश्लेषण

पटना के भीड़ भरी सड़क पर गुरुवार को एक महिला की अस्मत लुटती रही। उसके कपड़े तार तार किए जाते रहे,
जैसे ही अखबार के दफ्तर में ख़बर पहुची सन्नाटा पसर गया। सब ख़बर के हर पहलु को जानने को बेताब हो उठे। फिर शुरू हुआ विश्लेषण का सिलसिला। कोई महिला को बाजारू बता रहा था तो कोई पुलिस प्रशासन की गर्दन नाप रहा था। कोई इस बात को समझने को तैयार नही था की एक औरत की सरेआम हो रही बेइज्जती, हम सबो के गाल पर एक करार तमाचा है। मानसिक रूप से विकलांग हो चुके युवक या एक स्त्री के बाजार तक पहुचने के पीछे हम सबो की कोई सामाजिक जिमेमेवारी है भी या नही । हद तो यह है की एक दो सज्जन तो तीसरे दिन यानि आज सरकार द्वारा भारी सामाजिक दबाब में आने के बाद आईजी से लेकर छोटे पदाधिकारियों का तबादला कर दिए जाने को भी एक ग़लत महिला के चच्कर में की गई कार्रवाई बताते रहे। प्रेम के नाम पर, पैसे के नाम पर महिलाओ का मानसिक शारीरिक शोषण करने वाले लोगो की कमी नही है। उन्हें दुनिया के हर संबंधो में सिर्फ व सिर्फ सेक्स की बू आती है। कोई मजबूर महिला मिली नही की उसका शोषण किया जाने लगता है। हद तो यह है की इसके बीच पड़ने वालो को ही बाद में अपने जान की बन आती है। व्यक्तिगत तौर पर लोगो ने किसी सामाजिक बुराई को रोकने के लिए हस्तछेप करना बंद कर दिया है। लेकिन बीच सड़क पर किसी के साथ अनहोनी होती रहे और लोग तमाशबीन बने रहे यह पचने वाली बात नही है । यह सामाजिक नपुंसकता को दर्शाता है। माना की कोई महिला ग़लत हो सकती है, लेकिन उसके साथ भी शारीरिक बल का प्रयोग करना, बीच रास्ते पर नंगा करने की कोशिश करना इसे किसी भी सूरत से उचित नही ठराया जा सकता है । शर्मनाक घटनाओ की भर्त्सना की जानी चाहिए न की उसे किसी की गलती का नाम देकर उससे पीछा छुडाना या हलके में लेना चाहिए ।

Friday, July 24, 2009

सच का सामना कितना सच

इनदिनों बिंदास बोली, रहन सहन , फिल्म, प्रदर्शन , मिडिया के नाम पर अर्ध सत्य को सत्य बनाने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है । एक निजी चैनल पर संचालित किए जा रहे सच का सामना शीर्षक कार्यक्रम में जी प्रकार के साक्छात्कार दिखाए जा रहे है उसे बदलती मानसिकता के नम पर परोसा जन किसी भी दृष्टी से उचित नही है। बाजार आपके घर को नंगा व् बेपर्द करता जा रहा है इसकी समझ भी रखनी होगी। सच के नम पर पोल्योग्रफिक मशीन के सहारे उलुलजुलुल प्रश्नों को रखना, उसे प्रसारित करना ग़लत है प्रवृति को बढ़ावा देना होगा। आप आखिर क्या चाहते है, सभ्य समाज की रूप रेखा आपके दिमाग में क्या है , इसे तो पहले स्पस्ट करना होगा। क्या मर्यादाओ का उलाघन ही हमारी आजादी की परिचायक है। अपने अर्ध्य सत्य को हम कबतक मशीनों के शेयर सत्य साबित करते रहेगे ।

Monday, July 20, 2009

खाद्य आपूर्ति की प्रणाली ध्वस्त

राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य वितरण की जनवितरण प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। गरीबो और निम्न मध्यम स्तर के लोगो के जीवन के लिए यह महत्वपूर्ण योजना है। जिस देश में ७० फीसदी आबादी प्रतिदिन १६ रूपये पर गुजरा करता हो, महंगाई चरम पर हो , वहा इस प्रमुख योजना का बेमौत मरना शोक का विषय है। हल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश दी पि बढावा की अध्छ्ता में एक कमिटी का गठन कर इसकी जाच कर अपनी अनुशंसा करने को कहा है। बधवा कमेटी ने पॉँच राज्यों का दौरा क्र के अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौप दी है। शेष राज्यों का दौरा कमेटी कर रही है। आयोग का स्पस्ट मानना है की पुरी प्रणाली को दुरुस्त करने की जरूत है। बीपीएल, अन्त्योदय के नम पर गरीबो को सस्ता अनग सुलभ करना सपना हो गया है। मध्यम वर्गीय परिवारों की आधी से अधिक कमाई दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही चुक जा रही है। अनाज के गोदाम भरे है , विदेशो से अनाज मंगाया जा रहा है, लोगो को राशन की लम्बी लाइनों में राशन किराशन नही मिल पा रही है । धोदा इधर भी देखिये।

Friday, July 3, 2009

समलैगिकता को लेकर हो रहे सब गुमराह

समलैगिकता को लेकर इन दिनों गली कूचो, कोर्ट व धार्मिक संगठनो, नेताओ के मध्य हरतरफ चर्चा हो रही है। मनोवैज्ञानिको की थ्योरिया बताई जा रही है। हर कोई अपने अपने तरीके से इसकी व्याख्या कर रहा है। कई बार हमें लगता ही नही की हम आखिर कौन सी विरासत आने वाले समय के लिए छोरे जा रहे है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा से निचे गुजरबसर अपना जीवन करती हो, वहा न्यायालयों, संसद, और विद्वद समाज की उर्जा समलैगिकता को अनुमति देने या न देने के निर्णय के बीच व्यय हो रही है। यौन संबंधो की उच्सृखालता न केवल सार्वजानिक तौर पर देखि जा रही है बल्कि इसने अब अनिवार्य रूप से मांगो का, धरना, प्रद्र्सनो को अपना हथियार बना लिया है। प्रकृति के नियमो का उल्लंघन करने की सजा भुगतने के लिए तैयार रहे। आपके विचारो का वहा कोई देखने वाला नही होगा। भारतीये समाज का यह विभत्स्य रूप सायद ही कभी देखने को मिला हो । धारा ३७७ को लागु करने वाला लार्ड मैकाले माना भारतीय ज्ञान व् व्यवहारों का विरोधी था लेकिन उसे इतनी समझ जरूर थी, की इस समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित। जानवर भी अपने सामान जीव के साथ सामान्तया यौन व्यवहार नही करते। असामान्य तौर पर तो कोई भी कुछ भी करने को स्वतंत्र है। १८६० इसवी से अबतक आईपीसी की धारा ३७७ लागु है, अंग्रेजो से ज्यादा खुलापन शायद देखने को मिलता है, क्या फिर से हम किसी गफलत के शिकार होने नही जा रहे है.

Tuesday, June 9, 2009

बात दुःख या खुश होने की नही

बेवजह टिपण्णी किए जाने को लेकर साथियों के विचारो का स्वागत है। बात दुःख या खुश होने की नही है । सर्वप्रथम मै स्पस्ट कर दू की लिखने के बाद मै किसी से अपने विचारो की सहमती या असहमति की उम्मीद नही रखता । न ही किसी के टिपण्णी को लेकर मुझे शिकायत है । अति उत्साह में आप या हम अपनी समझ को ही प्रर्दशित कर देते है । ब्लॉग लेखन मेरे लिए रोग या नशा नही है। कोई मेरे ब्लॉग पर आए या नही इसकी भी उम्मीद नही रखता। हा, अच्छे विचारो का स्वागत है । कई लोग बेहतर लिख रहे है, उन्हें किसी के हिट्स की चिंता नही है। हमें उनसे प्रेरणा मिलती है।

Monday, June 8, 2009

टिपण्णी करने में संयमता का अभाव

बहुत दुखद बात हैं लेखन की स्वतंत्रता ने ब्लोगरो को उच्च्श्रीन्ख्ल बना दिया हैं । खास कर विषय की गंभीरता को समझे बिना ही टिपण्णी तक कर दी जाती हैं । ऐसे लोगो को अपने आसपास नजर दौड़नी चाहिए । टिपण्णी सकारात्मक हो विषय को स्पस्ट करने में सहायक हो तो बात समझ में आती हैं ।

Saturday, June 6, 2009

गरीबो की सुनो वो तुम्हरी सुनेगा

सर्व प्रथम बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आने के लिए माफी चाहता हु। मारकेश के प्रभाव से गुजरने का ताजा अनुभव हुआ है। लोकसभा चुनाव की भागमभाग अलग रही। कई विचारो के बीच से गुजरता रहा। काफी कुछ जीवन में अनुभव हुआ। फिलवक्त सरकारी तंत्रों के क्रिया कलाप की चर्चा करूँगा। अकसर ही हमारे द्वारा चुनी गई सरकारे अजीबो गरीब प्रथामिक्ताये तय करती है । शहरों के लिए बिजली पानी आवास की जुगाड़ सरकार करे हम अपने अपने कामो में दौलत अर्जित करने में लगे रहे । देहातो में अवश्यक सुविधाओ के लिए लोग तरस जाए । गावो के विकास की बात होती है तो कहा जाता है की वहा सुविधाओ के विकाश के लिए स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा रहा है। गाव के लोग स्वयं ही अपनी सुविधाओ की देख रेख करेंगे। शहरो के लिए कर्मचारियों की फौज हो और गाव के लोग अपनी देखभाल ख़ुद करे। यह कैसा विकास है।

Saturday, April 25, 2009

कैसे करे नेताओ पर भरोशा

१५ वी लोकसभा के गठन के लिए चुनाव अभियान तेज हैं । नेताओ के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा जारी हैं । इनके बयानों के निहितार्थ निकलना मुश्किल हैं। जनता की मुलभुत समस्याओ से अलग बोलने में ये माहिर हैं। इनके चाल व् चरित्र को जागरूक मतदाता समझ रहे हैं। कई नामचीन नेता लाखो करोडो रूपये मतदाताओ के बीच वाट रहे हैं। कोई देखने वाला नही हैं। नोटों पर बिकने वाली जनता को इनके द्वारा किए जाने वाले लूट पर बोलने का क्या अधिकार हैं । जनता को प्रतिकार की भाषा सिखानी होगी। उन्हें मतदान के दौरान मतदान अधिकारी से किसी भी पसंदीदा उमीदवार के न होने पर अपना अभिमत दर्ज करना चाहिए आख़िर नेताओ पर जनता कैसे भरोसा करेराजनितिक दलों ने गठबंधन तैयार करे लिया हैं सत्ता में हिस्सेदारी के लिए । दुर्भाग्य यह हैं की किसी भी गठबंधन की और से कोई संयुक्त घोसना पत्र जारी नही किया गया हैं । कौन चुनाव बाद किस करवट बैठेगा कहना मुश्किल हैं । भारतीय लोकतंत्र के तारीफ करने वाले ग्रामीण क्षेत्रो में जाकर मतदान के पूर्व की हालातो का जायजा लेना चाहिए । २३ को मुजफ्फरपुर लोकसभा क्षेत्र में था । जार्ज को कैसे राजनितिक रूपसे भुला दिया गया

Wednesday, April 8, 2009

नोट, जूता और भारतीय राजनीति

सर्दियों का मौसम समाप्त हो चूका है, गर्मी का प्रकोप बढाने लगा है. चुनाव के इस मौसम में क्या नेता क्या पत्रकार सभी की त्योरिया चढी हुई है. अभिनेता परदे पर चरित्र बदलते थे, अब तो लगे हाथ उन्हें भी पाला बदलने का मौका मिल गया है .कई दिनों से चुनाव कवरेज़ में लगे होने के कारन ब्लॉग के लिए अलग से लिखना मुस्किल हो रहा था. खैर, नेताओ के नोट बदलते हाथो के बीच एक पत्रकार के हाथो में जूता देख कर मन ग्लानि से भर गया. इसी तरह से देश का हर नागरिक अपनी मर्याद की सीमाए लांघता फिरेगा तो काहे का लोकतंत्र व काहे का चुनाव. हथियार उठाने वाले हाथो को जूता उठाने वाले हाथ भला कैसे रोक सकते है. राष्ट्रिय राजनीति तथा पत्रकारिता की नीव हमारे पुरखो ने इसी लिए रखी थी. अब तो सोचने का वक्त आ गया है की, २५ करोड़ की आबादी के लिए अपनाया गया लोकतंत्र क्या एक अरब से अधिक भारतीयों के लिए मुनासिब नहीं रह गया है. पश्चिम से क्या जूता संस्कृति तक आयात करने की मानसिकता वाले हम हो गए है.सत्य का सामना करने का साहस हमारे अन्दर नहीं रह गया है. देश का सौभाग्य है की १५ वी लोकसभा के लिए सबसे अधिक मतदाता युवा वर्ग से है. क्या एक बार अपनी मातृभूमि के लिए अपने आने वाले सुनहरे कल के लिए जाति,संप्रदाय, छुद्र राजनीति से ऊपर उठाकर देश के नव उत्थान के लिए संकल्पित हो कर स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को संसद के अंदर भेजने का प्रयास नहीं कर सकते. नोट बाटने वाले हाथो से धन लेकर फिर उन्हें सार्वजानिक धन लुटने का अवसर प्रदान करना कितना खतरनाक है इसकी कल्पना करना मुश्किल है. भ्रष्टाचार को सार्वजनिक व सामूहिक रूप प्रदान करना राष्ट्रद्रोह है. भूख,गरीबी व लाचारी को पैसे से कीमत अदा कर के अपने निजी उपयोग में लाना, ओछी मानसिकता है. चुनाव आचार संहिता का बार बार उलंघन किया जाना संगेये अपराध घोषित किया जाना चाहिए. किसी जर्नलिस्ट को भी किसी व्यक्ति विशेष के साथ आभ्द्रतापूर्वक पेश आने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. महात्मा गाँधी, राजेंद्र प्रसाद सहित कई शहीद पत्रकारों ने अपने खून पसीने से पत्रकारिता को सीचा है.

Thursday, March 12, 2009

लोकसभा चुनाव में कैसे नेताओ का हो चयन

होली की खुमारी ख़त्म होने के बाद अब सभी का ध्यान आगामी लोकसभा चुनाव पर होगा । कई सियासी पार्टिया पूर्व से ही जोड़ तोड़ में जुट गयी हैं । भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व में सबो की भागीदारी हो, सचरित्र राजनेता संसद में पहुचे , इसकी भी जिम्मेवारी हम सभी को लेनी होगी ।
एक हास्य कवि महोदय ने फरमाया की जब मतदाता सूचि में गडबडी के कारण फुआ मौसा जी के साथ होगी, पत्नी की जगह पडोसन और बहन के स्थान पर बीबी का नाम होगा तो मतपेटी से सचरित्र नेता भला कैसे जन्म लेगा बात भी सही हैं । हमारे लिए सभी काम निहायत जरुरी हो जाते हैं जबतक वे निजी प्रतीत होते हैं लेकिन जब देश की बात आती हैं तो तरह तरह की परेशानी व पीडा होने लगती हैं । मुख्य चुनाव आयुक्त ने पिछले दिनों पटना में कहा की मतदाताओ में मतदान के प्रति रूचि जागृत करने के लिए अभिनेताओ का सहयोग लिया जायेगा । मुझे इस पर कोई आपति नहीं हैं लेकिन जरा सोचिये की कितनी भयावह परिस्थिति हैं । कम पढ़े लिखे, मजबूर,गरीब मतदाताओ को उपकृत करके उन्हें अपने पछ में वोट देने को मजबूर किया जाता हैं, लेकिन जो सछम हैं , वे अगर अपनी जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह हैं तो उसका दोष किसे दिया जाये । देश की मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए हम सब का दायित्व हैं की नेताओ के चयन में सतर्कता बरती जाये ।

Tuesday, February 24, 2009

स्‍लमडॉग मिलेनियर को आस्‍कर भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती

मैं यह नही कहता कि दूसरों के द्वारा की जाने वाली तारीफ बुरी होती है। किसी भी कार्य का मूल्‍यांकन स्‍वयं तब समझ में आता है, जब दूसरे उसकी तारीफ करते है। लेकिन जब आपके कार्यो को दूसरे अर्थो में तारीफ के काबिल बना दिया जाए तो थोडी देर के लिए ठहरकर सोचना पडता है। प्रसन्‍नता के साथ हमें आत्‍म विश्‍लेषण करना होगा। यह पुरस्‍कार भारतीय सिनेमा के लिए एक चेतावनी की माफिक है। भारतीय सिनेमा के लिए जो अस्‍प़श्‍य चीज है गरीबी उसने दो करोड की राशि जी‍ती है। मैं यह नही कहता की भारतीय सिनेमा गरीबी को प्रदर्शित करने में नाकाम रही है। लेकिन यार्थाथ से कटती जा रही हिंदी सिनेमा को देखना होगा कि आखिर भारतीय दर्शकों को हम क्‍या देखने को मजबूर किये जा रहे है। ग्‍लोबलाइजेशन का मंत्र ही यही है कि जो सबसे अधिक जानकारी अपने अनुभवों से रखेगा वही सफल होगा। स्‍लमडॉग के प्रदर्शन से भद्र लोगों को शक है कि उसने चीटिंग की है। भारतीय फिल्‍मों पर आप गौर करे तो पायेंगे कि यह स्‍टॉर आधारित है। यहां के स्‍टार बडे बडे लोकेशनों पर विदेशों में शुटिंग करना बेहतर समझते है। गजनी का हीरो अपनी प्रेमिका की हत्‍या का बदला लेने के लिए तत्‍पर रहता है। वह अपनी प्रेमिका को मुगालते में रखना चाहता है इसलिए टेम्‍पों पर चढता है, अविश्‍वनीय तरीके से खलनायक के डेन में बिना हथियार के प्रवेश कर जाता है। रब ने बना दी जोडी में भी नायक स्‍टार है। आप सोचे कि बिजली विभाग का कर्मचारी क्‍या किसी सूमों पहलवान से लडकर पत्‍नी के प्रेम को पाने की जुरूत कर सकता है। बिल्‍लू बार्बर भी नायक बनता है तो इसीलिए कि सुपरस्‍टार उसका दोस्‍त है. भारतीय सिनेमा अंडरवर्ल्‍ड, भूत, महानगरीय जीवन, सेक्‍स, विवाहेत्‍तर संबंध जैसे विषयों पर सिमट कर रही गयी है. इनका उदेश्‍य एक साथ दो हजार स्‍क्रीन पर मल्‍टीप्‍लेक्‍सों पर प्रदर्शित किया जाना मात्र रह गया है. गरीबी के प्रदर्शन के अपने मायने है. हमें अपने फिल्‍मों को उन परिस्थितियों से संबंद्व करना होगा जहां जाकर आम आदमी उससे अपना जुडाव महसूस कर सके. सच्‍चा पुरस्‍कार आम आदमी के समर्थन से मिलता है. किसी आस्‍कर द्वारा समर्थन दिये जाने के बाद उसको अंगीकार करना और उसपर झूमना मुर्खता हो सकती है. हमें अपनी प्रतिभा पर भरोसा रखना होगा. निसंदेह एआर रहमान, गुलजार प्रतिभावान है. बालीवुड में अगर वे अपनी ओर से कुछ ऐसा जोड सके जिससे उसकी मुख्‍य धारा में परिवर्तन हो, वह आम आदमी से जुड सके तो यह प्रशंसनीय होगा. दूसरों की तारीफ के बाद अपनी पीठ ठोकना उचित नही है. पिंकी के लिए यह पल यादगार बन गया। उसने विदेशी चकाचौंध को अपनी आंखों से देखा। इसके पूर्व भी हमें कई आस्‍कर मिले है, लेकिन इस बार भी जो सम्‍मान मिला उससे कही कोई लगाव महसूस कर पाना मुश्किल है।

Saturday, February 21, 2009

मौत का लाइव टेलीकास्ट सभ्य समाज के मुह पर एक तमाचा

अभी अभी यह जानकारी मिली की जेड़ गुडी जो की एक रियलिटी शो में शिल्पा शेट्टी को लेकर कभी नस्लीय टिपण्णी कर बैठी थी, उनकी संभावित मौत को लाइव टेलीकास्ट करने की तयारी की जा रही है। जेड़ गुड्डी कैंसर से पीड़ित है । उनकी मौत को टीवी पर सीधा प्रसारित करने के अधिकार किसी चैनल ने प्राप्त कर लिया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार जेड़ गुड्डी ने भी अपने दो छोटे छोटे बच्चो की परवरिश की खातिर धन की जरूरत का हवाला देते हुए एक अच्छी खासी रकम प्राप्त करने के लिए अपनी मौत का लाइव टेलेकास्ट कराने को तैयार हो गई है । मानव समाज इतना निष्ठुर हो चुका है की किसी की जान जाए तो जाए उसे तो अपनी मस्ती व मनोरंजन की ही पडी है। हद तो यह है की पथ भ्रष्ट हो चुकी मिडिया भी अपने दायरे को भूल मौत को तमाशा बनाने में लगी है। यह सामाजिक पतन की पराकाष्ठा है । एक सज्जन ने फरमाया की भारत में तो मृत्यु के बाद वर्षो तक पंडित, ठाकुर, व गाव समाज के लोग जश्न मनाते है। मरने वाले के नाम पर पुरिया तोडी जाती है । कई लोगो की आजीविका चलती है । पंडे पिंड दान के नाम पर मजे करते है । एसे में जेड़ गुड्डी का अपने बच्चो की खातिर मौत के लाइव टेलीकास्ट का अधिकार बेचना सही है। क्या इंग्लैंड की जनता इतनी निक्कमी है की वह दो बच्चो का भरण पोषण नही कर सकती। उस समाज की संवेदनाये इतनी मर चुकी है की अब उनमे धन के लिए मौत के खौफ का भी असर जाता रहा । क्या भारतीय कर्म कांड व सनातन संस्कृति में किसी की मृत्यु को इसप्रकार से हास्यास्पद बनाया गया है । यह तो वह भूमि है जहा स्वमेव समाधि ले ली जाती है। किसी महिला के देह का दर्शन करते हुए उसके जीवन भर उसे सो बिजनेस का साधन बना देना, फिर उसकी मौत का तमाशा बना देना पश्चिम की देन हो हो सकती है , हमारी अपनी भूमि में यह निंदा का karan ही हो सकती है। अब कल को कोई कह दे की bachche का जन्म लाइव होगा, कितनी ghatiya bate होगी। अपने को सभ्य कहने वाली prajati और वह समाज, wha की मिडिया इतनी nikrist हरकत karegi यह aaklpaniya है।

Thursday, February 12, 2009

वेलेन्‍टाइन और युग भ्रम

'' वेलेन्‍टाइन डे'' हर वर्ष देश में एक नये आतंक का आगाज कर रहा है। कोई इसके पक्ष में तो कोई इसके विपक्ष में स्‍वयं को खडा कर अपने को समय सापेक्ष घोषित करने में लगा है। नये युग में नयी नयी सामाजिक दूश्‍चक्र व विक़तियां उत्‍पन्‍न हो रही है। इसमें स्‍वयं को उलझा कर देश का युवा वर्ग अपने आपकों नये संकट व तनावों की ओर ले जा रहा है. 21 सदी के युवा इस प्रकार के युग भ्रम का शिकार न हो, राष्‍ट्रीय मर्यादा व उन्‍नति की दिशा में अग्रसर हो कुछ ऐसा होना चाहिये। मर्यादा पुरूषतोम श्रीराम के नाम पर संगठन खडा करना, उसके बाद हिंसा उत्‍पन्‍न कर समाज के एक वर्ग में आतंक पैदा करना, फिर गलथेथरई करते हुए अपने आपकों धर्म के साथ जोडना जहां विक़त मानसिकता का द्योतक है, वही युवाओं के किसी समुह विशेष्‍ा का उसके प्रतिरोध में गुलाबी चडढी अभियान चलाना स्‍वयं में हास्‍यास्‍पद है। आखिरकार, इसका प्रतिफल क्‍या होगा। बाजार तो नये नये अवसर खडा करने की ताक में रहता ही है, आप किसी भी अभियान का हिस्‍सा बने, वह आपके आर्थिक सामाजिक दोहन में कब लग जाता है आपको पता भी नही चलता। सामान्‍य आदमी जिसे न तो वेलेन्‍टाईन से मतलब है न किसी सेना व संगठन से वह हंसता रहता है। देखिए ये दोनों किस प्रकार की मुर्खता उत्‍पन्‍न कर रहे है. कई बार हम पश्चिम सभ्‍यता की अच्‍छी बातों को नजर अंदाज करते हुए,उसकी बुराईयों की आकर्षित होते चले जाते है. संस्‍कार,शुचिता व सभ्‍य आचरण को अपने जीवन का आधार बनाने वाला भारतवर्ष, वीर बलिदानियों का देश अपना भारत, मर्यादा पुरूषोत्‍तम, भगवती सीता की भूमि, नानक व कबीर की भूमि, हीर व रांझा की भूमि,सोनी व महिवाल की भूमि में वेलेन्‍टाइन के बिना प्रेम की कोई परिभाषा नही हो सकती । क्‍या भगवान क़ष्‍ण से बढकर भी कोई प्रेम के प्रतीक हो सकते है। जिनकी बांसूरी की धून पर नर नारी, जीव जंतू, पशु प‍क्षी सब मदहोश हो जाया करते थे। वह अलौकिक प्रेम जो भगवतसता से तादात्‍मय स्‍थापित करा देता है, जहां जन्‍म जन्‍म के बंधन टूट जाते है. संत वेलेन्‍टाईन कोई त्‍याज्‍य व्‍यक्ति नही है. लेकिन सोचिए कि क्‍या प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ गिफट लेने व देने से संपूर्ण होता है, खुले आकाश या झाडियों में बाहुपाश में बंधने से होता है, स्‍वतंत्र विचारधारा के नाम पर मर्यादा को ताक पर रखने से होता है। अगर ऐसा है भी तो क्‍या हम माने कि प्रेम प्रदर्शन की चीज है। हवा को सिलेंडर में भरकर आप आक्‍सीजन नाम देकर किसी को जरूरत मंद को जीवन प्रदान कर सकते है लेकिन जिसे स्‍वच्‍छ वायु में श्‍वास लेना हो वह सिलेंडर ढूंढे तो उसे क्‍या कहेंगे. विश्‍व को मागदर्शन देने की तैयारी में खडा भारत अगर इसी प्रकार के विरोध व तनावों में उलझा रहेगा तो अनावश्‍यक समय व उर्जा की बर्बादी से कुछ खास हाथ लगने वाला नही. आईए इससे इतर हम वसुधैव कुंटुबकम को अपनाते हुए पूरी मानवता को प्रेममय कर दें.

Monday, February 2, 2009

बदलते समाज में सर्वहारावर्ग की चिंताएं

वक्‍त बदल रहा है। कल तक जो चेहरे सामान्‍य दिखते थे, उनके उपर बडी बडी कंपनियों की क्रीम पुत गयी है। जीवन जीने की जददोजहद बढ गयी है। उदारीकरण के दौर में जहां सभी देश एक दूसरे की ओर निहारा करते थ्‍ो, आज एक साथ मंदी की चपेट में लुढकते नजर आ रहे है। अमेरिका के राष्‍ट्रपति का चेहरा ही सिर्फ नही बदला है बल्‍िक पहले अश्‍वेत बराक ओबामा के आने से दलितों व अभिवंचित समुदाय में उम्‍मीदें बढी है। अपने देश भारत में भी 19 वीं शताब्‍दी में समाजवाद का दौर चल रहा था। आम लोगों को ध्‍यान में रखकर नीतियां गढी जा रही थी। आज उदारीकरण के दौर में प्रवेश करने के बाद हम उद्योगपतियों का ख्‍याल रख रहे है। हमें डर है कि गरीबों की ओर हमने मुख किया तो हमारी सारी प्रगति व विकासवाद का पैमान टूटकर बिखर जायेगा। सर्वहारावर्ग आज दो दो कौडियों को जोडने में अपनी सारी उर्जा लगा रखा है। उसे पता है कि अपना बेटा अगर कंप्‍यूटर नही सीखेंगा, मोबाइल का प्रयोग करना नही जानेगा तो आने वाले समय में उसके लिए जीवन जीना और भी कठिन हो जायेगा। चांदी व सोने के चमचमाते मेडलों को खेल के मैदान में जीतने के लिए उसे कब्‍बडी, खो खो, या अपने देशी खेलों की जगह क्रिकेट, टेनिस या शूटिंग के कारनामे सीखने होंगे। उसके लिए न तो घर में न समाज के किसी भी हिस्‍से में अपनी उपयोगिता नजर आती है. बढती स्‍पर्द्वा के बीच उसकी हौसलाअफजाई के लिए भी कोई सामने नही आता. कोई आता भी है तो कारपोरेट बाबाओं की टोलीयां आती है. उन्‍हें रंगीन स्‍क्रीन पर अपने मीठे बोलों को सुनाने से फुसरसत कहां है. प्रभु को भी कैसे सीडी व बिडियों में बांध दिया गया है. साहित्‍य की जितनी विधाएं थी, सस्‍ती पु‍स्‍तकों की उपलब्‍धता थी वह दूर की चीज हो गयी है. अब प्रेमचंद को पढने के लिए, निराला को गुनने के लिए, विश्‍व साहित्‍य की सर्वश्रेष्‍ठ क़तियों को आत्‍मसात करने के लिए उत्‍तम साधनों का अभाव हो गया है, यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गयी है. यही कारण है कि ईदगाह का हामिद अब नही मिलता, झूरी के दो बैल आपस में नही बतियाते. वक्‍त बदल रहा है. नि संदेह प्रेम की गाथाएं नयी गढी जा रही है लेकिन कभी वो मटुकनाथ तो कभी चांद मोहम्‍मद के अंजाम पर जाकर स्थिर हो जाती है. अब तो श्‍वास लेना भी मुश्किल होता जा रहा है. नवजागरण कालीन पत्रकारों की देश भक्ति, अपने समाचार पत्रों के प्रति समर्पण लुप्‍त होता जा रहा है. कारपोरेट कंपनियों की भांति परिवार भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल रहे है. आज समझौता है कल टूटा तो अपनी राह इधर से उधर. भगवान बुद्व ने अंगुलीमाल डाकु के सामने आ गये थे, उनसे उसने कहा था ठहरो. बुद्व ने ठहरते हुए कहा था मै तो ठहर गया तुम कब ठहरोगे. आज भी यही शास्‍वत प्रश्‍न है. सब कुछ बदल रहा है हम कब ठहरेंगे.

Friday, January 30, 2009

ट्रस्‍टी बनाम फ्रस्‍टी जर्नलिस्‍ट

पत्रकारिता की दूनिया में अजीबो गरीब घटनाएं होती रहती है। कई बार आम आदमी को इससे कोई मतलब नही होता, उन्‍हें प्रकाश में भी अमूमन नही लाया जाता। इन घटनाओं की फेहरिस्‍त सामने आ जाये तो दूनिया को मौजूदा पत्रकारिता के उनसे संबंद्व पत्रकारों की सोच व समझ में खालीपन की अनुभूति हो सकती है। हाल ही में पटना के पत्रकारों ने या यूं कहे कि जर्नलिस्‍टों ने ट्रस्‍ट बनाकर प्रेस कल्‍ब आफ पटना की स्‍थापना करने की सोची। राज्‍य के मुखिया के कानों तक यह बात पहुंची,उन्‍होने झटपट इस पर अपनी सहमति प्रदान करते हुए अधिकारियों को एक अदद अच्‍छे भवन सुसज्जित करने का निर्देश दे दिया. स्‍थान भी चिन्हित कर लिया गया. भवन में तेजी से कार्य शुरू हो गये. रंग तब जमा जब ट्रस्‍ट के साथ राज्‍य के सूचना जनसंपर्क विभाग ने बैठक कर उसे सौंपे जाने को लेकर वार्ता शुरू की. बैठक में मौजूद कई पत्रकारों ने जमकर ट्रस्‍ट के पत्रकारों की खबर ली. बात तू तू मैं मैं तक पहुंच गयी. अधिकारी हक्‍के बक्‍के थे. अब क्‍या होगा इनका. जो पत्रकार वहां धीरे धीरे पहुंच रहे थे उनसे पूछा जाने लगा की आप ट्रस्‍टी है या फ्रस्‍टी. फ्रस्‍टीयों की जमात अधिक थी. बहरहाल बैठक में सर्व सम्‍मति से निर्णय किया गया कि एक समिति बनायी जाये,जो लोकतांत्रिक तरीके चुनाव कर क्लब के संचालन की जिम्‍मेवारी ले. इसके लिए सूचना जनसंपर्क के अधिकारियों को अधिक़त किया गया कि वे समिति का गठन करें. बैठक के बाद बाहर निकल कर अलग अलग पत्रकारों की राय भिन्‍न भिन्‍न थी. उन रायों में जाने का कोई मतलब यहां नही है, अनावश्‍यक आप भी परेशान होंगे। वैसे, आकलन करें कि अचानक नयी सरकार के विकासवाद से प्रभावित होकर क्‍यूं प्रेस क्‍लब के स्‍थापना की सूझ जगी. वह भी वैसे पत्रकारों को जो इसके लिए बनाये गये स्‍व निर्मित ट्रस्‍ट के आजीवन सदस्‍य बने हुए थे. कही यह नीतीश जी के गले की हडडी न बन जाए.

Thursday, January 29, 2009

श्रीलंका सरकार की कार्रवाई से सबक ले भारत

भारतीय नीति निर्धारकों को श्रीलंका में लिटटे के खिलाफ के विरूद्व छेडे गये अभियान से सबक लेनी चाहिये। श्रीलंका सरकार द्वारा चलाये जा रहे अभियान का दूरगामी असर होगा। किसी भी मूल्‍क में आतंकवादी गतिविधियों, उग्रवादी गतिविधियों के संचालन को जोरदार तरीके से कुचल देना चाहिये। ये कौन लोग है जो मनमाफिक परि‍णामों को प्राप्‍त करने के लिए एक बडी आबादी को निरीह जनता को आतंक व भय के साये में रहने को मजबूर कर देते है। हमारी सेना व नीति निर्धारकों के बीच बेहतर तालमेल की बात की जाती रही है, निसंदेह ऐसा है भी तभी भारतीय लोकतंत्र 60 वर्षो के बाद भी अपने पैरों पर मजबूती से खडा है। लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि जम्‍मू कश्‍मीर हो या आसाम,जहां वर्ष भर युद्व व तनातनी की स्थिति बनी होती है. झारखंड व छतीसगढ के जंगलों में पल रहा उग्रवाद हो जिसका शिकार न केवल सरकारी मशीनरी होती है बल्कि आम जनता भी तबाह व बरबाद होती है. उनकी ओर भी ध्‍यान दिया जाना आवश्‍यक है. लोकसभा चुनाव होने को है एक बार फिर भारतीयों को अपने प्रतिनिधियों के चुनाव का अवसर प्राप्‍त होगा। क्‍या हम इस दिशा में कुछ नहीं सकारात्‍मक कार्य कर सकते है। अच्‍छे लोगों की राजनीति से दूराव न हो बल्कि वे सामने आकर राजनीति के समक्ष खडी चुनौतियों का सामना करें। ऐसा प्रयास नही किया जाना चाहिये। बुद्विजीवी वर्ग क्‍यों नही अपने देश के युवाओं को भरोसे में लेकर उन्‍हें आगे बढने का मौका देता है। इतना तो निश्चित है कि युवा वर्ग अपनी परेशानियों को निकटता से महसूस कर रहा है। उसे पता है कि श्रीराम सेना के नाम पर आतंक फैलाने वाले व तालिबानी मानसिकता से ग्रसित लोगों में क्‍या समानताएं है. हद तो यह है कि हमारे देश में लोकतंत्र के चारों प्रहरी विधायिका, कार्यपालिका, न्‍यायपालिका व प्रेस अपने वजूद के संकट से जूझ रहे है, उन्‍हें यह एहसास ही नही हो रहा है कि जिसे हम आम आदमी कहते है उसके जीवन की रोजमर्रा की जरुरते कैसे पुरी हो,उसमें उनका क्‍या योगदान हो सकता है. हम जिसे चाहे गालियां दे ले, चाहे जितनी भी शिकायते कर ले, लेकिन हमें थोडी थोडी ही सही अपने लिए न सही उन आम आदमियों के लिए ही सही करने का प्रयास करना चाहिये जिनकी आंखों के आंसू रुकते नही, सूख जाते है, इसी आशा में कि कोई तो तारनहार आयेगा, उनकी परेशानियों को समझेगा, उन्‍हें अपने मूल्‍क व अपने परिवार के लिए कुछ करने की थोडी स्‍पेश, स्‍थान प्रदान करेगा.

Tuesday, January 27, 2009

थोडी सी शर्म व आत्मालोचन

इस देश को कौन संचालित करेगा गणतंत्र या भीड़तंत्र या इन सब से इतर छिपे हुए चेहरों के बीच अपने असली चेहरों को भूल गये लोग. अगर आपका अंतःकरण अशुद है तो बाहरी आवरण बहुत दिनों तक किसी को उल्लू नही बना सकता. अजब सी सियासत है इस देश की जब आतंकी वारदात के खतरों से देश जूझ रहा हो,सीमा पार से गर्म हवाए आ रही हो, गणतंत्र दिवस के अवसर पर शहीदों को अशोक चक्र व अन्य सम्मान प्रदान किये जा रहे हो, नासिक के एक विद्यालय में गणतंत्र दिवस समारोह को तोड़ फोर कर बंद करा देना,महज इस लिए की भोजपुरी गीत की प्रस्तुति हो रही थी,बडे ही शर्म व शोक की बात है- कैसे किसी का दिल इस बात की गवाही देता हैं की जिस घर में हम रहे उसी घर में अपने हाथो से आग लगा दे । इस देश को ऐसे लोगो से निजात मिलनी चाहिए,जो किसी भी प्रकार की वैमनस्यता फैलाते हो । ६० वे गणतंत्र को करीब से जी भरकर देख लो, इसकी हड्डियों में भरपूर जवानी हैं, यह वही मुल्क हैं जहा ८० वर्ष के बाबु वीर कुवर सिंह ने अंग्रेजो के दांत खट्टे का दिए थे, १८५७ की क्रांति में एक बड़े भूखंड को विजित कर अपने प्राण त्यागे थे। अब हमें उन कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए की कौन से तत्व हमें अन्दर व बाहर से खोखला बना रहा हैं। बंद करे यह भाषा, प्रान्त, मजहब और निर्ल्लाजता की बाते। देश की ६० फीसदी आबादी में शामिल युवा किसी भी देशद्रोही को बर्दाश्त कराने की हालत में नही हैं। यहाँ आपको तय करना होगा की आने वाली संतति को आप कैसा मुल्क सौपना चाहते हैं। क्या सुभाष ने इसीलिए अपना घर बार त्यागा था। गाँधी ने रामराज्य का सपना देखा था। बिस्मिल की कुर्बानी यु ही जाया हो जायेगी। विचारे, क्यों सच्चा देश भक्त मुस्लमान भी दहशत गर्दी के विरूद्ध जुबान खोलने में समर्थ नही पाता,क्यों किसी भी खास भाषा प्रान्त के नाम पर भीड़ तंत्र अँधा बन कर विवेक खो बैठती हैं, गणतंत्र किनारे खड़ा सिसकता रहता हैं। हम अपना अनुशासन कहा भंग करते हैं। कभी इस देश की गरीबी के आकडे इक्कठे किए जाते हैं, उन्हें गीत ,कला , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बेचा जाता हैं, तो कभी कभी अनकर देखही लाल आपण फोरी कपार को प्रदर्शित किया जाता हैं ।हम अपने आप पर इस देश पर यहाँ की मिटटी पर कब गर्व करना सीखेंगे.

Saturday, January 10, 2009

मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल

हिंदी पत्रकारिता अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. सारे सिद्वांत व नियम बाजारवाद के आगे नतमस्‍तक हो गये है. दिग्‍गज पत्रकारों को भी नही सूझ रहा कि आखिर इसका क्‍या समाधान होगा. स्‍टील, प्‍लास्टिक, आयल,फूड प्रोडक्‍ट की तरह ही बाजार हिंदी पत्रकारिता को अपने अनुरूप मोड रही है. ऐसा नही कि इससे मनोरंजन व सूचना से संबंद्व अन्‍य उद्योग जैसे फिल्‍म, टेलिविजन व संचार कंपनियां प्रभावित नही हो रही है. उनमें भी इसका खासा असर दिख रहा है. आम आदमी अपनी पहचान इनमें तलाशने की कोशिश कर रहा है. सावधान हो जाये, अगर एक आम आदमी गति मति बिगडेगी तो शायद उससे इतर खास आदमी प्रभावित नही होगा ऐसा नहीं है. समाज की एक कडी कमजोर होगी या टूटेगी तो दूसरा पक्ष निसंदेह प्रभावित होगा. खासकर, राष्‍ट्रीय मुददों पर हिंदी मि‍डिया के रूख्‍ा को समझना मुश्किल हो रहा है. पूरे तथ्‍य अब खुल कर सामने आ रहे है. चैनलों पर आतंकवाद के विरोध में भले ही चिल्‍लाकर अपनी प्रतिबद्वता को प्रदर्शित करने का दौर जारी है किन्‍तु यह भी सत्‍य है कि आम हो या खास मीडिया के रवैयें से स्‍वयं आतंकित है. उससे नही लगता कि मीडिया के पास जाकर किसी की समस्‍या का सामाधान ढुढा जा सकता है. चाहे अपराध की बात हो या ज्‍योतिषीय समाधान की यह समझ से परे है कि कैसे चंद मिनटों के प्रदर्शन के बाद किसी को भी कैसे खबर का असर प्राप्‍त हो सकता है. जब तक मूल समस्‍याओं को निबटाने को लेकर राष्‍ट्रीय नीतियों पर तीखे चोट करने,उसकी अच्‍छाईयों को जन जन तक प्रसारित करने की दिशा में कार्रवाई नही की जायेगी तब तक समस्‍याएं मुंह बाये खडी रहेंगी. आतंकवाद एक बडा मुददा है. यह पूरे देश को अपनी आगोश में लेने के लिए बेताब है. पडोसी मूल्‍कों से हमारे संबंध पुराने ढर्रे पर बने हुए है. इनकी लगातार समीक्षा होनी चाहिये. अटल जी ने क्‍या खूब कहा था कि हम नये नये दोस्‍त बना सकते है लेकिन पडोसी नही बना सकते. हमें अपने पडोसियों के सुख दूख उनकी समस्‍याओं में साझीदार होना सीखना होगा. मीडिया को इस दिशा में भी फोकस करनी चाहिये कि पडोसी मूल्‍कों में कौन कौन सी समस्‍याएं है. उनके समाधान की दिशा में अंतर्राष्‍‍ट्रीय प्रयासों को भी बल देना होगा. मीडिया एक ओर आम आदमी से आतंकवाद के विरूध खडे होने की अपील कर रहा है ऐसे में उसे आम आदमी के विश्‍वास को भी जीतना होगा. वैसे भी निजी प्रक्षेत्र के इलेक्‍ट्रानिक मीडिया की पहुंच मध्‍यम वर्ग में भी फिलवक्‍त शतप्रतिशत नही है. अखबारों को अपने तेवर में परिवर्तन लाने के पूर्व ठहर कर सोचना होगा कि बाजारवाद कही देश को पतन की गर्त में लेकर न चला जाये. हमें पश्चिमी मूल्‍कों में पूंजीवाद के विकास के दूष्‍परिणामों की ओर भी देखना होगा.