Monday, November 16, 2009

साहित्य का महादलित परिवार है पत्रकारिता

हिन्दी साहित्य के बड़े परिवार में हिन्दी पत्रकारिता महादलित परिवार है। बहुत खूब मृणाल जी ने पटना में तिन दिन पहले कहा की, हमारा समाज जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उस तेजी से पत्रकारिता का विकास नही हुआ है। हिन्दी में शपथ लेने पर भले ही अबू आजमी को पीडा झेलनी पड़ी लेकिन इस प्रकरण में हिन्दी और रास्ट्रीय एकता मुखर हुई है। देश के लगभग सभी उर्दू अखबारों ने मनसे की कारगुजारियों की भर्त्सना तो की ही साथ ही रास्ट्र भाषा के सम्मान के प्रति भी अपनी चिंता प्रगत की। हिन्दी पत्रकारिता के महादलित होने का ही परिणाम है की हिन्दी के प्रति चंद बयानबाजी को प्रकाशित कर अपने कर्तब्यों की इतिश्री समझ ली। यह हिन्दी पत्रकारिता का ही कमाल है की बजार के समछ घुटने टेकते हुए हिन्दी के मानदंडो को दरकिनार करते हुए उसने भाषा का पुरा रूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। हर भाषा की अपनी खुबशुरती होती है, उसमे लालित्य होता है उसे नस्त भ्रष्ट कर दिया गया है। राजनीति किसी को कभी अछूत समझती है तो कभी उसे हरिजन, अब तो उसे दलित बताया जा रहा है। इन के पीछे दौड़ती हिन्दी पत्रकारिता को पता नही की वो किसे अपनाए और किसे छोड़ दे। सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह को पटना में ही कहना पड़ा की अब तो पुस्तक विमोचन करते करते हाथ घिसा जा रहा है।यही होता है जब आप अपने पैनेपन को धर देते देते थक जाते है तो समाज आपकी भूमिका तय कर देता है । हिन्दी साहित्य व पत्रकारिता ने अपने अबतक के सफर में बहुत परिवर्तन देखे है । साहित्य की भूमिका समाज का मार्गदर्शन करना है, बाजार के दबाब के बीच नए रास्ते तलाश करना है , न की बाजार के आगे घुटने टेकना है। साहित्य को अपने महादलित परिवार के बारे में भी सोचना होगा। पत्रकारिता का काम जनमत का निर्माण करना है । बाजार के आगे घुटने टेक देने से वह अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित कर रहा है । राजनेताओ को लिखने पढने से कोई वास्ता तो रह नही गया है, और वह कोई मार्गदर्शन व सलाह पर चलने को तैयार नही है। भद्र लोगो ने बोलना कम कर दिया है। वो भी पत्रकारिता के बदली हुई भूमिका से वाकिफ है। दो दिन पूर्व जब सचिन ने स्वयं को पुरे देश का चहेता बताया तो बालासाहेब के कलेजे पर साप लोट गया। अमिताभ बचचन भी सार्वजानिक मुद्दों पर बच कर बोलते है। लता मंगेशकर भी उतनी रूचि नही दिखाती । क्या मुठ्ठी भर गुंडों व मवालियों के डर से हर खासो आम सहमा रहे तब सरकार, कानून व संविधान की जरूरत ही क्योकर है।

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