Sunday, July 25, 2010

बहस से भागते राजनेता, सड़क से संसद तक होता हैं हंगामा

हमारे देश के राजनेताओ में सहनशक्ति की भारी कमी हो गयी हैं। किसी भी बात पर तवरित प्रतिक्रिया देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वे यह समझाने को तैयार नहीं होते कि इससे आम जनता पर कितना प्रभाव पड़ता हैं। सड़क से संसद तक उनके व्यवहारों को देखा जा सकता हैं। संसद के दृश्य देखे या किसी राज्य कि विधान सभा की आपको एक से दृश्य देखने को मिलेंगे । क्या यह परिलछित नहीं करता की समाज में दिनों दिन हो रही गिरावट के कारण हर खासो आम अपने आप में सिमटा जा रहा हैं । बंधुत्व की भावना का संचार इन्टरनेट या मोबाईल क्रांति के कारण विस्तार पाने की जगह व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा हैं। आखिर क्यों हम जनहित के मुद्दों से भटक जा रहे हैं। सारी योजनाए भ्रस्टाचार की भेट चढ़ती जा रही हैं। युवा वर्ग के सामने कोई आदर्श नहीं दिखता। हमारे आइकोन भी घबरा जाते हैं जब एक ओर उनकी नुख्ताचिनी की जाती हैं तो दूसरी ओर बाजार के दबाब के कारण उन्हें अपनी भावनाओ को प्रगत करने में परेशानी का सामना करना पड़ता हैं। कितना कठिन हैं मौजूदा दौर में किसी गरीब की आहो को जगह मिलाना। क्या संसदीय जीवन में आरोप प्रत्यारोप से इतर हमे मुख्य समस्याओ को हल करने में अपनी उर्जा का व्यय नहीं कर सकते हैं। मिडिया को बाजार ने कब्जे में लेलिया हैं। उसमे रह कर चाहे कोई लाख दावा करे कही न कही उसे बाजार से समझौता करना पड़ रहा हैं । जिसे आवाज बनना था बेजुबानो का वह चाटुकारों , दलालोंके साथ मिलकर अमीरों की रखैल बनती जा रही हैं। माफ करेंगे ऐसे शब्दों को स्त्री विरोधी करार देने वाले समझ ले, इसे क्यों इस कदर निकृष्ट बनाया गया हैं । किसी शक्ति को बंधक बना कर उसका निजी स्वार्थ के लिए उपयोग में लगा देने पर क्या इससे भी बुरा कुछ कहा जा सकता हैं । व्यापारी सिन्धु घाटी सभ्यता कालखंड में भी अपने वयापार वाणिज्य के विस्तार के लिए दूर देशो की यात्राये करते थे, भारतीय वाणिज्य व्यापार का डंका पुरे विश्व में बजता था उनमे ईमानदारी कूट कूट कर भरी थी, विदेशी भी सम्मान करते थे लेकिन आज क्या हो रहा हैं। विदेशी व्यापारियों को देश को लुटने की खुली छुट दे दी गयी हैं.

Wednesday, July 7, 2010

गंभीरता से मुर्खता की उत्पत्ति होती हैं......

कभी कभी बच्चे जब नादानी करते हैं तो उन्हें कहा जाता हैं कि गंभीर बनो। क्या ऐसा लगता हैं कि गंभीरता जीवन की इतनी ही नायाब जरुरत हैं। अभी एक केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का बयान पढ़ा। उन्होंने कहा कि योजना आयोग एसी कमरे में बैठ कर गरीबो के लिए योजनाये बनाता हैं। क्या इस प्रकार के आयोगों में गंभीर लोगो की भरमार नहीं हैं जो बड़ी ही आकर्षक योजनाये गरीबो के लिए तैयार करते हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना होगा कि वे उसके साथ ही अम्बानियो, मोदियो का भी ख्याल करते हैं , नहीं तो ये कम्पूटर , मोबाईल , चमचमाती कारे कहा से आती। ये सचमुच गरीबो की सुध लेते तो जगह जगह गाँधी बाबा की खद्दर ही दिखाई देती। पेट तो भरा होता लेकिन अमेरिकी सोच कहा से आती। लोगो ने उलटी राह पकड ली हैं। कमलनाथ जी विचारवान पुरुष हैं, उनकी आत्मा कभी तो सत्य को परखती हैं। इतने भारी भरकम आयोगों , मंत्रालयों का कोई मतलब भी हैं क्या जो इन्हें इस देश कि गरीब जनता अपने पीठ पर ढोए जा रही हैं। सचमुच अब तो लगने लगा हैं कि गंभीरता से मुर्खता कि उत्पत्ति होती हैं। आब कोई बाप अपने बच्चे को नहीं सिखाता - झूठ बोलना पाप हैं, बिना झूठ को सच किये आदमी अपने आप को इस दुनिया से परे पाता हैं। आज इस देश में महापुरुष मिथक में तब्दील होते जा रहे हैं। गांधीजी जैसे महापुरुष कि कल्पना करना मुश्किल होगा तो , दुनिया बिनोबा को सोच कर भी हैरत में रह जाएगी कि उसे हजारो एकड़ भूमि लोगो ने दान कर दिया था, एक मदन मोहन मालवीय जी थे जिन्होंने बिना किसी ग्रांट कमिशन के जन सहयोग से विश्विद्यालय स्थापित कर दियाउन्हें किसी आयोग कि अनुशंसा पर काम करने के लिए फंड नहीं मिला था। नियत सही हो तो कोई उदेश्य से भटका नहीं सकता। नेताजी, हमारे बुधिजिवियोगंभीर बने लेकिन मुर्खता छोड़े, आपको इतिहास माफ नहीं करने जा रहा हैं, जितने गरीबो के सिने से आह निकलेगी वह आपकी चिता कि धधकती ज्वाला को और भी जलाएगी। देखिये आप तो अभी से जल रहे हैं, इसकी tapish आपकी नींद गायब किये हैं.

Monday, July 5, 2010

भारत बंद के आईने में मिडिया के सरोकार

आज देश भर में भाजपा सहित तमाम विरोधी दलो ने महंगाई के मुद्दे पर भारत बंद का आह्वान किया। दिन भर रात भर धोनी की शादी में भोपू बजने वाली मिडिया अचानक से जनसरोकार के मुद्दे प्रदर्शित करने लगी। तमाम बड़े विरोधी दल के नेता स्क्रीन पर नजर आने लगे। कल के अख़बार में भी ये छाये रहेंगे । महगाई अपने जगह पर रहेगी , हा नेता और मिडिया अपना बाजार बना लेंगे। यहाँ मिडिया को इतनी ही पीड़ा होती तो जनसरोकार के मुद्दों को हासिये पर नहीं फेक दिया जाता। आज आजादी के ६० वर्षो बाद जिन्हे आम आदमी के बतौर नामित किया जाता हैं उनकी सामाजिक राजनितिक हैसियत क्या बच गयी हैं इसे समझा जा सकता हैं। देश के कई प्रान्तों में पिने का साफ पानी मयस्सर नहीं, महिलाओ के शौच की सही व्यवस्था नहीं, पेट भरने को मुठी भर दाना नहीं तो महंगाई की मार उनपर कैसी होती होगी इसे समझ पाना क्या इतना मुश्किल हैं । घडियाली आंसू बहाने वाले नेता अपने गिरेबान में झाके। मिडिया अपने को लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा स्तम्भ मानती रहे , आम जनता का भरोसा उसपर नहीं रहा । कोई खबरे अब उन्हें चौकाती नहीं। ये कानून अब उनके लायक नहीं रहे । खेत मजदूरों को कार्पोरेट नेताओ की भाषा समझ नहीं आती। गाँधी इतिहास हो गए हैं, उनकी मान्यताये गीता पुराण की भाति किताबो में दर्ज हो कर रह गयी हैं। इन पुस्तकों को कम्पूटर भाषी संताने समझने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं । महंगाई को लेकर न तो सत्ताधीश न ही विरोधी कोई दीर्घ कालीन नीति तय करने की इच्छुक हैं । बंद ,विरोध, नित नये मूल्यों की घोषणा जनता के हिस्से में बस यही रह गयी हैं, सब अपनी अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं । जय हो , भारत माता की जय हो , तुम्हारी संताने , इस परिणति को पहुच जाएँगी इसे ब्रम्हा भी समझाने में असमर्थ हैं .