Wednesday, April 4, 2012

दुर्लभ पुस्तको का संग्रहण और उपलब्धता

इस देश में ज्ञान विज्ञानं की कई दुर्लभ पुस्तके यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं , उन के गुणग्राहक भी कम होते जा रहे हैं, उनकी उपलब्धता तो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। हिंदी पट्टी में इस मिजाज की शुरु से कमी रही हैं। लोग संग्रह करते नहीं, दुर्लभ पुस्तके हो तो उसकी चर्चा नहीं करते, किसी गुणग्राहक को उपलब्ध करना तो मुश्किल ही हैं। अंग्रेज इस मामले में हमसे आगे रहे हैं । उन्होंने कई महत्व की चीजे पहले ही संग्रह कर ली और उसे अपने देश ले गए। कुछ तो अनुवाद के साथ प्रकाशित भी किये। अभी कल की बाट हैं, नेपाल के राजप्रसाद में संगृहीत कालिदास रचित देवी स्त्रोत देखने को मिली। भगवती के श्री मुख से स्वयम की स्तुति वंदना। एक श्रद्धालु ने इसे प्रकाशित करा कर निशुल्क वितरित किया। पता चला कई विद्वानों ने नेपाल से निकल कर इस सामग्री के भारत-- बिहार आने के बाद साऊथ में ले कर चले गए थे जहा इसमें कुछ तथ्य जोड़ कर उसे प्रकाशित कराया था। बाद में वह भी मिलना मुश्किल हो गया । दावा किया गया की यह दख्खनमें पहले से उपलब्ध हैं। खैर, हम तो उस की प्राचीनता और उसकी उपादेयता को ले कर चिंतित हैं , क्या ऐसी दुर्लभ सामग्रियों को भारत में धुल ही खाना नसीब होता हैं। हमारे पेड़ पौधे, खाद्दान, परम्पराए सब पर जब तक पश्चिम की मुहर नहीं लगे, तब तक क्या वह महत्व की नहीं हैं। लाईब्रेरियो में बिखरी ऐसी सामग्रियों का कोई कद्रदा नहीं मिलता। सरकारी संस्थाए पैसे और अवार्ड की लुट खसोट में जुटी हैं । आखिर कब तक हमारी रगों में अपनी विरासत के प्रति ऐसा ठंडापन रहेगा। मैंने अपनी आँखों तीसरी से लेकर ९ वी शताब्दियों तक के भारतीय विद्वानों द्वारा लिखित भाष्य, टीका, पुस्तके देखी हैं। जिनके नाम भी सुनने को नहीं मिलते। कई पुस्तके तो तत्कालीन अंग्रेज अफसरानो द्वारा जिलो में तैनाती के दौरान संगृहीत की गयी और उसे अंग्रेगी अनुवाद के साथ प्रकाशित की गयी। उनके भी खस्ता हाल हैं । क्या हम ज्ञान को ले कर इस ज्ञान युग में दुसरो पर आधारित रहेंगे। बिहार के कई गाव आज भी हैं जहा १२ वी सदी की दुर्लभतम पुस्तके जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। देश में सरकारे घपलो घोटालो में जुटी हैं। नैतिक पतन पराकाष्ठा पर हैं। दिखावे की दुनिया अजब तेरी रीत, गजब तेरी प्रीति। इंटेर नेट के युग में भाषाए तो लुप्त हो ही रही हैं हमारे अमूल्य ज्ञान भी खोते जा रहे हैं। वे लोग जिन्होंने अथक साधना के बाद दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति की, उसे जन सामान्य के लिए सुलभ कराया , हम उसकी कद्र न कर सके।
फंतासिया गढ़ते रहे, रोजमर्रा की सामने थी दुश्वारिया -- न वो समझ सके न हमें समझ हुई ।

Tuesday, March 27, 2012

बोलियों के बीच खड़ी बोली हिंदी

भारत में कई बोलिया हैं जो हिंदी पट्टी में बोली और हिंदी भाषियों के बीच स्वीकारी जाती हैं। २०११ की जनगणना में इनकी संख्या भी दर्शायी गयी हैंजो की दो अंको में हैं। साथ ही एक सर्वमान्य तथ्य हैं कि खड़ी बोली को ही हिंदी मान लिया गया हैं। अवधी, ब्रज, भोजपुरी सहित अन्य बोलिया हिंदी के पास नहीं दिखती। खड़ी बोली का प्रयोग संपर्क भाषा के रूप में न केवल हिंदी पट्टी में बल्कि अन्य क्षेत्रो में की जाने लगी हैं। ऐसे में वर्तमान हिंदी के मानक रूप को विस्तृत पटल पर ले जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही हैं। हिंदी की नीरसता को दूर करने की दृष्टि से ऐसा करना जरुरी हैं । आम पाठको तक उसे ले जाने की पहल आवश्यक हैं। हिंदी भाषा का शब्द सामर्थ्य दिनों दिन बढे , उसकी सर्व ग्राहता में इजाफा हो। ऐसा नहीं की हिंदी की अन्य बोलियों में ताजगी और भावो की अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं हैं। कई शब्द तो विशिष्टता के साथ अपनी अभिव्यक्ति में सफल हैं। दूसरा पक्ष ये भी हैं कि क्या मानक हिंदी में छेड़छाड़ की जानी चाहिए। क्या भाषा की शुद्धता की दृष्टी से ऐसा किया जाना उचित होगा। भाषा को कोई एक मानक आधार तो चाहिए ही जिस पर रचना की प्रक्रिया निर्धारित की जा सके । यहाँ ध्यान रखने की जरुरत हैं कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी को अब गैर जरुरी मान लिया गया हैं। सुधि पाठक इसे अपनाने में कठिनाई महसूस करते हैं। आज की युवा पीढ़ी तो कंप्यूटर के की बोर्ड पर हिंदी शब्दों को अंग्रेजी में लिखती हैं। उनके लिए तो क्लिष्ट हिंदी को भाव रूप को प्रस्तुत करना असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल भरा काम अवश्य हैं। फिर कैसे हमे विभिन्न बोलियों के बीच खड़ी बोली को रखना हैं या सब की स्वतंत्र सत्ता को गडमड करना हैं इस पर विचार करना होगा। लोकतान्त्रिक प्रणाली में सब बोलियों की अपनी अहमियत हैं तो क्या हमें खड़ी बोली के समक्ष अन्य बोलियों की प्रतिस्पर्धात्मक स्वरुप को खड़ा करना होगा। इससे इतर भी एक स्वरुप ये भी हो सकता हैं कि हमें सब को समान भाव से अंगीकार करते हुए उसे के नये स्वरुप को स्वीकार कर लेना होगा.

Saturday, February 4, 2012

मानसिक रूप से बीमार बच्चे की तरह हैं भारतीय लोकतंत्र

सुप्रीम कोर्ट का २ जी स्पेक्ट्रम मामले में दिया गया फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ जबरदस्त हमला हैं। भारतीय लोकतंत्र का दुखद पहलु यह हैं की जितना देर से सरकारी राशी के गबन या भ्रष्ट आचरण की जाँच होती हैं, उससे कही ज्यादा देर न्याय निर्णय के आने में लग जाता हैं । लम्बी सुनवाई के बाद जब फैसला होता भी हैं तो उसे अमलीजामा पहनने में और भी देर हो जाती हैं । न्याय की जरुरत ऐसी हैं जो न्याय होता दिखे। आम आदमी के गाढ़ी खून की कमाई को डकार कर कैसे कोई रह सकता हैं। संसद में जिस प्रकार की नुख्ताचिनी होती हैं , वह लोगो के गले नहीं उतरती। भारतीय लोकतंत्र के हालत मानसिक रूप से विकलांग बच्चे की तरह हैं। ६० साल से ऊपर की उम्र हो चुकी लेकिन लोकतान्त्रिक मानसिकता १५ साल के बच्चे की तरह हैं । सरीर रोग से जीर्ण शीर्ण होने चला हैं लेकिन हम हैं कि अभी लेमनचूस के लिए लड़ रहे हैं । भारतीय प्राकृतिक संसाधनों कि जिस प्रकार बंदरबाट कि जा चुकी हैं उससे अव्यवस्था होनी ही हैं । हम भारत के लोग लोकतान्त्रिक गणराज्य का दावा करते हैं और मानवता कि दुहाई देते हैं किन्तु हर नागरिक दुसरे के अधिकारों के अतिक्रमण में जुटा हैं ।
२ जी या कोई भी घोटाला नियमो कायदों को तक पर रख कर कैसे हो जाता हैं जबकि एक सामान्य आदमी को राशन कार्ड बनाने से लेकर अस्पताल में इलाज करने तक कु व्यवस्था का अंतहीन दौर देखना पड़ता हैं । अन्ना के समर्थक हो या विरोधी, गाँधी के अनुयायी हो या सुभाष के भ्रष्टाचार के कोढ़ से कौन अछूता हैं। पर्यटन , उधोग या उपभोक्ता वर्ग को संतुष्ट करने वाले सामानों के ब्रांड अम्बेसडर बनाने से तो बेहतर हैं सामाजिक राजनीतिक कुरीतियों के खिलाफ शंखनाद करे। पोलियो को जड़ से मिटाए , कुपोषण दूर करे। बच्चो को शुद्ध दूध उपलब्ध कराए, देश में उर्जा शक्ति, सैन्य शक्ति का विकास करे।

Monday, January 2, 2012

नववर्ष का आगमन, नई उर्जा का संचार

नई उर्जा, नई चेतना, हर चीज में नयापन, दृष्टी नई , सोच नई, नया कुछ करने का संकल्प । नए वर्ष का शुभ आगमन। भारत भूमि की उर्वरता बढे , अन्न हमारी रगों में नई जोश और उमंग का संचार करे। जल अपने सा निर्मल बनने की प्रेरणा दे, वायु जीवन को गतिशील बनाए, उर्जावान बनाए। छितिज की ओर दृष्टी हो, जो कभी न मिलकर भी अपनी सम्पूर्णता का अहसास कराए। आकाश ईश्वर की कृपा हम सबो के प्रति बनाए रखे। अग्नि तो स्वयं देव हैं, वे हमारे कष्टों का निवारण कर कुंदन सी आभा प्रदान करे। जब हम नए का सृजन करते हैं तो पहला अन्न ईश्वर को समर्पित करते हैं, भारत भूमि की मिटटी में इस संस्कृति का विस्तार हुआ हैं। हम सब उसी परम पिता की संतान हैं जिसने हमें जन्म दिया हैं , जीवन बक्शी हैं। क्षमा हमारा धर्म हैं, परोपकार करना हमारा कर्तब्य हैं । अंग्रेजी कैलेंडर किसी नई बात का सृजन नहीं करता, वह धान की कटनी के बाद आयोजित होने वाला हर्षौल्लास का वक्त नहीं हैं , फिर भी हम तनाव से इतने भरे हैं कि ख़ुशी का एक पल इसमें ढूढ़ लेते हैं। उत्सव के बिना जीवन एकाकी हो जाता हैं, यही कारण हैं कि हम किसी के विदा लेने पर दुखी हो जाते हैं तो किसी के मिलने पर खुशी का अनुभव करते हैं । जीवन में पल प्रति पल छुट रहे को हम नहीं अनुभव कर रहे, वर्ष में एक दिन संकल्प का ढूंढते, यह दिन हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता हैं। हम पल प्रति पल को महत्वपूर्ण बनाए तो कितना सुन्दर हो । आइये, हम अपनी सकारात्मक उर्जा को राष्ट्र सेवा में लगाये। भ्रष्टाचार का खात्मा करे , शांति स्थापित करे