Saturday, December 12, 2009

फिल्म पा ने मनोरंजन के साथ दिए गंभीर संकेत

कला मर्मज्ञ व् उसकी बारीकियों की समझ रखने वाले भी इस बात की गवाही देंगे कि फिल्म पा ने मनोरंजन के साथ साथ बिमारियों के प्रति समाज की समझ को गंभीरता प्रदान की है। अमितजी की अभिनय के प्रति समर्पण देखते बनती है। खैर, आज की हिन्दी फिल्मो को लटके झटके से दूर गंभीर मसलो के प्रति ध्यान देने के लिए बखूबी प्रयास शुरू कर दिया गया है। खासकर, आमिर खान की कमजोर मानसिक बचचो को लेकर कुछ दिनों पूर्व आई फिल्म तारे जमी पर इसी तरह की एक संवेदनशील तस्वीर प्रस्तुत करती थी । जब हमारे फिल्म निर्माता करोडो रुपया फिल्मो के निर्माण में लगाते है तो उन्हें एक बेहतर समाजोपयोगी फिल्मो के निर्माण से गुरेज क्यूकर होता है समझ में बात नही आती। अच्छे भवन निर्माण की सभी तारीफ करते है, चाहे उसमे रहने वाले हो या उसे बहार से निहारने वाले। खासकर समाज के सबसे उपेछित विकलांग चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक उनके भावनाओ व् संवेदनाओ को जब जब आवाज दी जाती है, समाज का हर वर्ग उससे अपना लगाव महसूस करता है। हद तो यह है की सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों में एक मानसिक विकलांग आरोग्यशाला स्थापित करने का निर्देश दे रखा है लेकिन कई ऐसे राज्य है जहा यह सुविधा सरकारों के द्वारा मुहैया नही करायी जा सकी है। हम रोजाना न जाने कितने ऐसे मामले रोज देखते है और सुनते है, लेकिन विकलांगो पर रहम बस उस श्मशान की अनुभूति मात्र होती है जैसे एक लाश फुकने के बाद शायद अब हमें तो मौत आयेगी ही नही। शारीरिक सौन्दर्य की अपनी एक सीमा है, लेकिन मानसिक तौर पर असुंदर लोगो की पहचान कौन करेगा , उन्हें स्वास्थ्य और सुंदर होने को कौन प्रेरित करेगा। हमें अपनी ओर और अपने आसपास भी नजर दौड़नी चाहिए।

उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के पटना दौरे की कवरेज करने के बाद थक सा गया हु, उनके विचारो पर भी खासा लिखना चाहता था, फिर कभी .....

Monday, November 23, 2009

प्रतिक्रियावादियों पर कार्रवाई हो, राष्ट्रीय एकता पर कर रहे घात

बाला साहेब ठाकरे हो या राज अथवा कोई अ ब स राष्ट्रीय एकता व अखंडता से खिलवाड़ करने वालो पर कड़ी कार्रवाई होनी बहुत जरुरी है। इस प्रकार के प्रतिक्रियावादियों को बकसना खतरे से खाली नही है। भाषा, प्रान्त, जातीयता, धर्म के नाम पर राष्ट्रीय भावना ले साथ खिलवाड़ करना किसी भी सूरत से मुआफ करने योग्य नही है। कांग्रेस सरकार आग से खेलती रही है। अभी अभी सूचना मिली है की संसद की कार्रवाही के दौरान हंगामा मचा है। इंडियन एक्शप्रेस ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की जाच के लिए गठित लिब्राहन आयोग की बंद रिपोर्ट के अंश को प्रकाशित कर दिया है। किसी भी रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखे बिना उसकी सूचना को कैसे सरकारे लिक करती है यह सरकार की गतिविधियों की निगरानी करने वाले पत्रकार बेहतर जानते है। अपने विरोधियो पर नियंत्रण करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टियों द्वारा किए जाने वाले कुकृत्यों पर एक सम्पूर्ण किताबे लिखी जा सकती है। सामना में समानांतर मिडिया का दुरपयोग करते हुए जिस प्रकार शिव सेना अपनी खुराफातो का इजहार कर रही है, उस पर प्रेस कोंसिल ऑफ़ इंडिया को भी कड़ा रूख अपनाना चाहिए। कभी सचिन तेंदुलकर तो कभी किसी को निशाना बनाने वाले को सबक सिखाने की जरुरत है। सत्ता जिस प्रकार अपने साधनों का दुरपयोग करती है इस पर विचार करने की जरुरत है । जिस देश की आधी से अधिक आबादी भूख, अशिछा,स्वस्थ्य सुविधाओ से वंचित हो वहा इस प्रकार की ओछी हरकते करने वाले को जनता अपने मताधिकार के माध्यम से सबक सिखाये। जनता को हर पल जागृत करने में युवा राष्ट्रिय्वादियो को सामने आना चाहिए। याद रखे देश के स्वाभिमान से खिलवाड़ करने वालो को इतिहास कभी माफ नही करेगा। बलिदानियों के इस देश में भारतीय मनस्विता उचतम स्तर की है, पहाड़ो की कन्दरा में निवास करने वाले, चीथडो में लिपटे रहने वाले लोगो के पास असीम उर्जा का स्रोत है। इनके ह्रदय में छिपे आग को हवा देने की हिमाकत कोई भी राजनितिक दल न करे। गरीबो की आह उन्हें ले डूबने के लिए काफी है।

Monday, November 16, 2009

साहित्य का महादलित परिवार है पत्रकारिता

हिन्दी साहित्य के बड़े परिवार में हिन्दी पत्रकारिता महादलित परिवार है। बहुत खूब मृणाल जी ने पटना में तिन दिन पहले कहा की, हमारा समाज जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उस तेजी से पत्रकारिता का विकास नही हुआ है। हिन्दी में शपथ लेने पर भले ही अबू आजमी को पीडा झेलनी पड़ी लेकिन इस प्रकरण में हिन्दी और रास्ट्रीय एकता मुखर हुई है। देश के लगभग सभी उर्दू अखबारों ने मनसे की कारगुजारियों की भर्त्सना तो की ही साथ ही रास्ट्र भाषा के सम्मान के प्रति भी अपनी चिंता प्रगत की। हिन्दी पत्रकारिता के महादलित होने का ही परिणाम है की हिन्दी के प्रति चंद बयानबाजी को प्रकाशित कर अपने कर्तब्यों की इतिश्री समझ ली। यह हिन्दी पत्रकारिता का ही कमाल है की बजार के समछ घुटने टेकते हुए हिन्दी के मानदंडो को दरकिनार करते हुए उसने भाषा का पुरा रूप ही बिगाड़ कर रख दिया है। हर भाषा की अपनी खुबशुरती होती है, उसमे लालित्य होता है उसे नस्त भ्रष्ट कर दिया गया है। राजनीति किसी को कभी अछूत समझती है तो कभी उसे हरिजन, अब तो उसे दलित बताया जा रहा है। इन के पीछे दौड़ती हिन्दी पत्रकारिता को पता नही की वो किसे अपनाए और किसे छोड़ दे। सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह को पटना में ही कहना पड़ा की अब तो पुस्तक विमोचन करते करते हाथ घिसा जा रहा है।यही होता है जब आप अपने पैनेपन को धर देते देते थक जाते है तो समाज आपकी भूमिका तय कर देता है । हिन्दी साहित्य व पत्रकारिता ने अपने अबतक के सफर में बहुत परिवर्तन देखे है । साहित्य की भूमिका समाज का मार्गदर्शन करना है, बाजार के दबाब के बीच नए रास्ते तलाश करना है , न की बाजार के आगे घुटने टेकना है। साहित्य को अपने महादलित परिवार के बारे में भी सोचना होगा। पत्रकारिता का काम जनमत का निर्माण करना है । बाजार के आगे घुटने टेक देने से वह अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित कर रहा है । राजनेताओ को लिखने पढने से कोई वास्ता तो रह नही गया है, और वह कोई मार्गदर्शन व सलाह पर चलने को तैयार नही है। भद्र लोगो ने बोलना कम कर दिया है। वो भी पत्रकारिता के बदली हुई भूमिका से वाकिफ है। दो दिन पूर्व जब सचिन ने स्वयं को पुरे देश का चहेता बताया तो बालासाहेब के कलेजे पर साप लोट गया। अमिताभ बचचन भी सार्वजानिक मुद्दों पर बच कर बोलते है। लता मंगेशकर भी उतनी रूचि नही दिखाती । क्या मुठ्ठी भर गुंडों व मवालियों के डर से हर खासो आम सहमा रहे तब सरकार, कानून व संविधान की जरूरत ही क्योकर है।

Saturday, October 31, 2009

कांग्रेस की सफलता और बीजेपी खस्ताहाल

राहुल गाँधी ने जबरदस्त चुनावी प्रबंधन किया, कांग्रेस को खेमेबाजी से बचाते हुए राज्यों को विकास के सपनो से जोड़ा। हालत उनके लिए भी कम मेहनत व जद्दोजहद वाला नही था। भारतीय जनता पार्टी ने मौका गवा दिया। उनकी आपसी फूट व कलह ने तीन राज्यों के चुनाव में पहले ही कांग्रेस को वाक ओवर दे दिया । पार्टी विथ डिफ़रेंस की छवि धूमिल होती जा रही है। कांग्रेस के वंशवाद, परिवारवाद, सत्तालोलुपता के विरूद्व धारदार अभियान चलाने में नाकाम रहे भाजपा नेतृत्व को अपनी अपनी कुर्सी की ही पड़ी थी। संघ नेतृत्व के प्रति आस्था जताने वालो ,उनसे सर्जरी की मांग करने वालो, जसवंत प्रकरण पर अपनी बेचैनी प्रदर्शित करने वालो की कोई कमी पार्टी में नही रही। बिना मजबूत विपछ के सत्ता व शासन में रहने वाली सरकार का नजरिया जनता के प्रति कैसी हो सकती है, इसकी उम्मीद पाठक कर सकते है। कांग्रेस ने बड़ी सोच समझ कर खासकर मुबई में राज ठाकरे को पुष्पित पल्वित होने दिया। शिव सेना के बड़बोले पण की हवा निकाल दी। आरुनाचल में कांग्रेस की सफलता लगभग तय थी। उतर पूर्वी राज्यों की और देश की शेष दछिन पंथी पार्टियों के बीच अब भी दुरी बनी हुई है। यह खतरनाक स्थिति है। वाम पंथी नक्सली संगठनो द्वारा नेपाल से बिहार, उडीसा होते हुए आन्ध्र प्रदेश तक बनाया गया रेड कारीडोर भारतीय एकता व अखंडता के लिए गंभीर चुनौती है। राजनीतिक दल खास कर राष्ट्रीय पार्टिया आपसी खीचतान में न उलझ कर राष्ट्रीय समस्याओ के प्रति गंभीर हो तो कोई बात बने। जिस देश में लाखो गरीबो के घर बच्चो को अब भी भर पेट भोजन नही मिल पा रहा हो वंहा आपसी फुट व अंतर्कलह से आख़िर हम किसे मुर्ख बनाते है। कलयुग में दरिद्रनारायण के घर ही नारायण का अवतार होने वाला है। जो सही मायनो में हमारा पथ प्रदर्शक, दुखो को हरने वाला होगा। हमारी गति मति यह है की हम इन्हे ह्रदय से लगाते चले। याद रखे की इस देश में कितने बादशाओ , शहंशाओ को इतिहास ने अपने पैरो तले कुचल दिया है। आपकी सारी नफरते, क्रोध, बेईमानी धरी की धरी रह जाएँगी। अपने साथ समाज व समुदाय का भला नही सोचने वालो का जीवन व्यर्थ ही है।

Wednesday, September 23, 2009

हिन्दी पट्टी की संवेदनाओ को कब मिलेगी जुबान

हिन्दी दिवस बीत गया, कई लोगो ने इस दिवस के नाम पर अपने अपने तरीके से कर्मकांड को पुरा किया। भाषा की पीडा को समझाने व् समझाने में अपनी उर्जा झोक दी। हिन्दी पट्टी की समस्याओ और भाषा के संकट के मध्य संबंधो को जोड़ने में असफल रहे। आखिरकार कब हिन्दी स्थानीय समस्याओ और पीडा को दूर करने का सशक्त माध्यम बनेगी। नवजागरण काल का तेवर हिन्दी में कब लौटेगा। माना की उस वक्त आजादी सम्पूर्ण राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्छ था हिन्दी उसकी वाहिका थी, लेकिन आज जब दूसरी आजादी की जरुरत महसूस की जा रही है, क्या हिन्दी को अपनी भूमिका नही बदलनी चाहिए। हिन्दी अखबारों ने अपनी भूमिका बदल ली है लेकिन दुसरे संदर्भो में, वह विशुद्ध तौर पर वयवसाय से जा मिली है। वहा कारपोरेट कल्चर हावी होता जा रहा है। उसे आम आदमी की पीडा सोने के बढ़ते घटते भावः से कमतर महसूस होता है। महानगरीय कल्चर उसे अपनी ओर खीच रहा है। उसे हर आदमी मशीन में तब्दील होता दिख रहा है। हिन्दी के साथ नये प्रयोग किए जा रहे है जहा हिंगलिश में उसका नया रूप देखने को मिल रहा है। हिन्दी पहले भी देश की आत्मा थी, कल भी रहेगी, कोई इस मुगालते में न रहे की पल पल मरती अन्य भाषाओ की भाति इसकी मौत होने जा रही है। लेखको को जनसरोकारों वाले मुद्दों को साहित्य का अधर बनाना होगा, रोमांटिक खयालो में आम आदमी की पीडा को नजरंदाज नही किया जा सकता। मंचीय कविताओ को भौदेपन से मुक्त कर धार देनी होगी। भाषा के साथ जीना होगा , उसमे संवेदनाओ की प्रबल हिस्से को महसूस करना होगा। आईये, इस ओ़र हम अपने कदम को आगे बढाये, उस पुण्य के भागी बने जिसे हमारे पूर्वजो ने अपने खून और पसीने से सीचा है। थोड़ा सा प्रलोभन या पुरस्कार हमें अपने मार्ग से नही डिगा सके।

Thursday, August 27, 2009

भाजपा आज नही जनसंघ के ज़माने से ही भटक चुकी है

आप कभी नवजागरण कालीन हिन्दी पत्रकारिता पर नजर डाले। पुरानी फाइलों को खंगाले। आप देखेंगे की भाजपा आज नही जनसंघ के ज़माने से ही भटकी हुई है। मेरी समझ जित्तनी है, उसके मुताबिक अटलजी भारतीय सनातन राजनीतिक परम्परा के अन्तिम राजनेता है। सबको साथ लेकर चलने की समझ न तो जनसंघ ही विकसित कर सका न ही भाजपा उस परम्परा का निर्वाह कर सकी है। भारतीय राजनीति की दिशा व् दशा तब से ही बदलनी शुरू हो चुकी थी जब कांग्रेस में गर्म व् नरम दल के बीच मत्भिनता चरम पर थी। १९३० के पूर्व गांधीजी के कई प्रयोग असफल सिद्ध हो चुके थे। गाँधी भारतीय समाज की धड़कन को समझाने का प्रयास कर रहे थे। जिन्ना को लेकर पब्लिशिटी बटोरने के इक्छुक राजनेताओ को जनसंघ के पूर्व की हिंदूवादी सहिष्णु विचारधाराओ का भी विश्लेषण करना चाहिए। उसमे आए भटकाव की भी चर्चा करनी चाहिए। उन्हें बताना चाहिए की कैसे ब्रिटिश सरकार ने रास्ट्रवादी पत्रकारों व् लेखको को मौत के घाट पहुचा दिया। कई लोग जेलों की सजा काटे। क्यो गणेश शंकर विद्यार्थी को बीच सड़क पर दंगा फसाद करने वालो ने कानपूर में मार गिराया। जिन्ना को उर्वर भूमि प्रदान करने वालो में क्या बड़े राजनेताओ के साथ भारतीय मानसिकता में आ रहे परिवर्तन की भूमिका नही थी। इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है की हम हरे चश्मे से लाल देखना चाहते है। अपनी गौरव गाथा को भुलाना कोई हम से सीखे। आज कितने घर है जहा बच्चो कों भारतीय वीरो की गाथा, भगत सिंह,असफाक , बिस्मिल की कहानिया सुनाये जाते है, शिवाजी, राणा प्रताप, सावित्री, लक्छमी बाई, सरवन कुमार की जानकारिया दी जाती है। बाजार की भाषा में बात करे तो अच्छे प्रोडक्ट के लिए थोडी तयारी तो करनी ही होगी।

Tuesday, August 11, 2009

पीठ पीछे वार कर रहा बाजार हमारी जेब पर

महंगाई को लेकर पुरे देश में हाय तौबा मची है। सुखा व् बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे लोगो के ऊपर महंगाई की मार तेज है। स्वैईन फ्लू ने अपने पाव जमने शुरू कर दिए है। मिडिया सब कुछ को हलके में ले रही है सिर्फ स्वैईन फ्लू को छोड़ कर। अपनी प्रथामिकताये तय करने मिडिया का कोई जबाब नही है। तथ्यों के पीछे न जा कर हलके में कोई बात कैसे की जाती है यह इसे वर्तमान समय में सिखा जा सकता है। जब अमेरिका, जापान सहित एनी देशो में लाखो लोग स्वैईन फ्लू से पीड़ित है और मरने वालो की संख्या कही ८५ तो कही ३०० के आसपास है। फिर भारत में इसको लेकर हाय तौबा मचाना कहा की फितरत है। शहरो में मरने वाले लोग मिडिया कोई दिख जाते है, लेकिन दूर गाव में जो भूख से मर रहे है, उन्हें प्रशासन भी रोग से मौत बता देता है। चीनी की कीमत ३२ रूपये हो गई है तो दाल आम आदमी केथाली से गायब होता जा रहा है। इथनौल के उत्पादन को लेकर पहले तो चीनी के उत्पादन पर झटका लगा, फिर बिक्री कैसे हो। हद तो यह है की बिहार जैसे सर्वाधिक गन्ना उत्पादक राज्य में भी दुसरे राज्यों की तरह धन अर्जित करने को लेकर सरकार के स्तर से ही गन्ना से सीधे इथनौल बनने की अनुमति देने की मांग की जा रही है। कई बड़ी कंपनियों ने तो हजारो करोड़ के प्रस्ताव भी दे रखा है । राज्य सरकार भी केन्द्र की ओर उम्मीद लगाये बैठी है । विकास की नीति बनाने वालो को धरती पर रह कर सोचना होगा। चीनी के बाद गुड की सोचे तो, सरकारी नीतियों की पोल ही खुल जाती है। गाव चौबारे में गुड आज की तारीख में दुर्लभ चीज हो गई है। गुड उत्पादन पर इतने तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए गए है की कोई किसान सोचता तक नही, अगर उत्पादन करता भी है तो सिर्फ अपने उपयोग भर ही। कई खाद्य पदार्थ तो खेत खलिहानों से गायब होती जा रही है। कोई इस पर शोध करे तो कई रोचक जानकारिया प्राप्त हो सकती है। आप कविताये लिख कर या कंप्युटर चलाकर ही अपने पेट नही भर सकते, हमें अपने अन्दताओ की ख़बर रखनी ही होगी।

Saturday, July 25, 2009

लूटती रही अस्मत, न्यूज़ रूम में शुरू हुआ विश्लेषण

पटना के भीड़ भरी सड़क पर गुरुवार को एक महिला की अस्मत लुटती रही। उसके कपड़े तार तार किए जाते रहे,
जैसे ही अखबार के दफ्तर में ख़बर पहुची सन्नाटा पसर गया। सब ख़बर के हर पहलु को जानने को बेताब हो उठे। फिर शुरू हुआ विश्लेषण का सिलसिला। कोई महिला को बाजारू बता रहा था तो कोई पुलिस प्रशासन की गर्दन नाप रहा था। कोई इस बात को समझने को तैयार नही था की एक औरत की सरेआम हो रही बेइज्जती, हम सबो के गाल पर एक करार तमाचा है। मानसिक रूप से विकलांग हो चुके युवक या एक स्त्री के बाजार तक पहुचने के पीछे हम सबो की कोई सामाजिक जिमेमेवारी है भी या नही । हद तो यह है की एक दो सज्जन तो तीसरे दिन यानि आज सरकार द्वारा भारी सामाजिक दबाब में आने के बाद आईजी से लेकर छोटे पदाधिकारियों का तबादला कर दिए जाने को भी एक ग़लत महिला के चच्कर में की गई कार्रवाई बताते रहे। प्रेम के नाम पर, पैसे के नाम पर महिलाओ का मानसिक शारीरिक शोषण करने वाले लोगो की कमी नही है। उन्हें दुनिया के हर संबंधो में सिर्फ व सिर्फ सेक्स की बू आती है। कोई मजबूर महिला मिली नही की उसका शोषण किया जाने लगता है। हद तो यह है की इसके बीच पड़ने वालो को ही बाद में अपने जान की बन आती है। व्यक्तिगत तौर पर लोगो ने किसी सामाजिक बुराई को रोकने के लिए हस्तछेप करना बंद कर दिया है। लेकिन बीच सड़क पर किसी के साथ अनहोनी होती रहे और लोग तमाशबीन बने रहे यह पचने वाली बात नही है । यह सामाजिक नपुंसकता को दर्शाता है। माना की कोई महिला ग़लत हो सकती है, लेकिन उसके साथ भी शारीरिक बल का प्रयोग करना, बीच रास्ते पर नंगा करने की कोशिश करना इसे किसी भी सूरत से उचित नही ठराया जा सकता है । शर्मनाक घटनाओ की भर्त्सना की जानी चाहिए न की उसे किसी की गलती का नाम देकर उससे पीछा छुडाना या हलके में लेना चाहिए ।

Friday, July 24, 2009

सच का सामना कितना सच

इनदिनों बिंदास बोली, रहन सहन , फिल्म, प्रदर्शन , मिडिया के नाम पर अर्ध सत्य को सत्य बनाने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है । एक निजी चैनल पर संचालित किए जा रहे सच का सामना शीर्षक कार्यक्रम में जी प्रकार के साक्छात्कार दिखाए जा रहे है उसे बदलती मानसिकता के नम पर परोसा जन किसी भी दृष्टी से उचित नही है। बाजार आपके घर को नंगा व् बेपर्द करता जा रहा है इसकी समझ भी रखनी होगी। सच के नम पर पोल्योग्रफिक मशीन के सहारे उलुलजुलुल प्रश्नों को रखना, उसे प्रसारित करना ग़लत है प्रवृति को बढ़ावा देना होगा। आप आखिर क्या चाहते है, सभ्य समाज की रूप रेखा आपके दिमाग में क्या है , इसे तो पहले स्पस्ट करना होगा। क्या मर्यादाओ का उलाघन ही हमारी आजादी की परिचायक है। अपने अर्ध्य सत्य को हम कबतक मशीनों के शेयर सत्य साबित करते रहेगे ।

Monday, July 20, 2009

खाद्य आपूर्ति की प्रणाली ध्वस्त

राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य वितरण की जनवितरण प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। गरीबो और निम्न मध्यम स्तर के लोगो के जीवन के लिए यह महत्वपूर्ण योजना है। जिस देश में ७० फीसदी आबादी प्रतिदिन १६ रूपये पर गुजरा करता हो, महंगाई चरम पर हो , वहा इस प्रमुख योजना का बेमौत मरना शोक का विषय है। हल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश दी पि बढावा की अध्छ्ता में एक कमिटी का गठन कर इसकी जाच कर अपनी अनुशंसा करने को कहा है। बधवा कमेटी ने पॉँच राज्यों का दौरा क्र के अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौप दी है। शेष राज्यों का दौरा कमेटी कर रही है। आयोग का स्पस्ट मानना है की पुरी प्रणाली को दुरुस्त करने की जरूत है। बीपीएल, अन्त्योदय के नम पर गरीबो को सस्ता अनग सुलभ करना सपना हो गया है। मध्यम वर्गीय परिवारों की आधी से अधिक कमाई दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही चुक जा रही है। अनाज के गोदाम भरे है , विदेशो से अनाज मंगाया जा रहा है, लोगो को राशन की लम्बी लाइनों में राशन किराशन नही मिल पा रही है । धोदा इधर भी देखिये।

Friday, July 3, 2009

समलैगिकता को लेकर हो रहे सब गुमराह

समलैगिकता को लेकर इन दिनों गली कूचो, कोर्ट व धार्मिक संगठनो, नेताओ के मध्य हरतरफ चर्चा हो रही है। मनोवैज्ञानिको की थ्योरिया बताई जा रही है। हर कोई अपने अपने तरीके से इसकी व्याख्या कर रहा है। कई बार हमें लगता ही नही की हम आखिर कौन सी विरासत आने वाले समय के लिए छोरे जा रहे है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा से निचे गुजरबसर अपना जीवन करती हो, वहा न्यायालयों, संसद, और विद्वद समाज की उर्जा समलैगिकता को अनुमति देने या न देने के निर्णय के बीच व्यय हो रही है। यौन संबंधो की उच्सृखालता न केवल सार्वजानिक तौर पर देखि जा रही है बल्कि इसने अब अनिवार्य रूप से मांगो का, धरना, प्रद्र्सनो को अपना हथियार बना लिया है। प्रकृति के नियमो का उल्लंघन करने की सजा भुगतने के लिए तैयार रहे। आपके विचारो का वहा कोई देखने वाला नही होगा। भारतीये समाज का यह विभत्स्य रूप सायद ही कभी देखने को मिला हो । धारा ३७७ को लागु करने वाला लार्ड मैकाले माना भारतीय ज्ञान व् व्यवहारों का विरोधी था लेकिन उसे इतनी समझ जरूर थी, की इस समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित। जानवर भी अपने सामान जीव के साथ सामान्तया यौन व्यवहार नही करते। असामान्य तौर पर तो कोई भी कुछ भी करने को स्वतंत्र है। १८६० इसवी से अबतक आईपीसी की धारा ३७७ लागु है, अंग्रेजो से ज्यादा खुलापन शायद देखने को मिलता है, क्या फिर से हम किसी गफलत के शिकार होने नही जा रहे है.

Tuesday, June 9, 2009

बात दुःख या खुश होने की नही

बेवजह टिपण्णी किए जाने को लेकर साथियों के विचारो का स्वागत है। बात दुःख या खुश होने की नही है । सर्वप्रथम मै स्पस्ट कर दू की लिखने के बाद मै किसी से अपने विचारो की सहमती या असहमति की उम्मीद नही रखता । न ही किसी के टिपण्णी को लेकर मुझे शिकायत है । अति उत्साह में आप या हम अपनी समझ को ही प्रर्दशित कर देते है । ब्लॉग लेखन मेरे लिए रोग या नशा नही है। कोई मेरे ब्लॉग पर आए या नही इसकी भी उम्मीद नही रखता। हा, अच्छे विचारो का स्वागत है । कई लोग बेहतर लिख रहे है, उन्हें किसी के हिट्स की चिंता नही है। हमें उनसे प्रेरणा मिलती है।

Monday, June 8, 2009

टिपण्णी करने में संयमता का अभाव

बहुत दुखद बात हैं लेखन की स्वतंत्रता ने ब्लोगरो को उच्च्श्रीन्ख्ल बना दिया हैं । खास कर विषय की गंभीरता को समझे बिना ही टिपण्णी तक कर दी जाती हैं । ऐसे लोगो को अपने आसपास नजर दौड़नी चाहिए । टिपण्णी सकारात्मक हो विषय को स्पस्ट करने में सहायक हो तो बात समझ में आती हैं ।

Saturday, June 6, 2009

गरीबो की सुनो वो तुम्हरी सुनेगा

सर्व प्रथम बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आने के लिए माफी चाहता हु। मारकेश के प्रभाव से गुजरने का ताजा अनुभव हुआ है। लोकसभा चुनाव की भागमभाग अलग रही। कई विचारो के बीच से गुजरता रहा। काफी कुछ जीवन में अनुभव हुआ। फिलवक्त सरकारी तंत्रों के क्रिया कलाप की चर्चा करूँगा। अकसर ही हमारे द्वारा चुनी गई सरकारे अजीबो गरीब प्रथामिक्ताये तय करती है । शहरों के लिए बिजली पानी आवास की जुगाड़ सरकार करे हम अपने अपने कामो में दौलत अर्जित करने में लगे रहे । देहातो में अवश्यक सुविधाओ के लिए लोग तरस जाए । गावो के विकास की बात होती है तो कहा जाता है की वहा सुविधाओ के विकाश के लिए स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा रहा है। गाव के लोग स्वयं ही अपनी सुविधाओ की देख रेख करेंगे। शहरो के लिए कर्मचारियों की फौज हो और गाव के लोग अपनी देखभाल ख़ुद करे। यह कैसा विकास है।

Saturday, April 25, 2009

कैसे करे नेताओ पर भरोशा

१५ वी लोकसभा के गठन के लिए चुनाव अभियान तेज हैं । नेताओ के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा जारी हैं । इनके बयानों के निहितार्थ निकलना मुश्किल हैं। जनता की मुलभुत समस्याओ से अलग बोलने में ये माहिर हैं। इनके चाल व् चरित्र को जागरूक मतदाता समझ रहे हैं। कई नामचीन नेता लाखो करोडो रूपये मतदाताओ के बीच वाट रहे हैं। कोई देखने वाला नही हैं। नोटों पर बिकने वाली जनता को इनके द्वारा किए जाने वाले लूट पर बोलने का क्या अधिकार हैं । जनता को प्रतिकार की भाषा सिखानी होगी। उन्हें मतदान के दौरान मतदान अधिकारी से किसी भी पसंदीदा उमीदवार के न होने पर अपना अभिमत दर्ज करना चाहिए आख़िर नेताओ पर जनता कैसे भरोसा करेराजनितिक दलों ने गठबंधन तैयार करे लिया हैं सत्ता में हिस्सेदारी के लिए । दुर्भाग्य यह हैं की किसी भी गठबंधन की और से कोई संयुक्त घोसना पत्र जारी नही किया गया हैं । कौन चुनाव बाद किस करवट बैठेगा कहना मुश्किल हैं । भारतीय लोकतंत्र के तारीफ करने वाले ग्रामीण क्षेत्रो में जाकर मतदान के पूर्व की हालातो का जायजा लेना चाहिए । २३ को मुजफ्फरपुर लोकसभा क्षेत्र में था । जार्ज को कैसे राजनितिक रूपसे भुला दिया गया

Wednesday, April 8, 2009

नोट, जूता और भारतीय राजनीति

सर्दियों का मौसम समाप्त हो चूका है, गर्मी का प्रकोप बढाने लगा है. चुनाव के इस मौसम में क्या नेता क्या पत्रकार सभी की त्योरिया चढी हुई है. अभिनेता परदे पर चरित्र बदलते थे, अब तो लगे हाथ उन्हें भी पाला बदलने का मौका मिल गया है .कई दिनों से चुनाव कवरेज़ में लगे होने के कारन ब्लॉग के लिए अलग से लिखना मुस्किल हो रहा था. खैर, नेताओ के नोट बदलते हाथो के बीच एक पत्रकार के हाथो में जूता देख कर मन ग्लानि से भर गया. इसी तरह से देश का हर नागरिक अपनी मर्याद की सीमाए लांघता फिरेगा तो काहे का लोकतंत्र व काहे का चुनाव. हथियार उठाने वाले हाथो को जूता उठाने वाले हाथ भला कैसे रोक सकते है. राष्ट्रिय राजनीति तथा पत्रकारिता की नीव हमारे पुरखो ने इसी लिए रखी थी. अब तो सोचने का वक्त आ गया है की, २५ करोड़ की आबादी के लिए अपनाया गया लोकतंत्र क्या एक अरब से अधिक भारतीयों के लिए मुनासिब नहीं रह गया है. पश्चिम से क्या जूता संस्कृति तक आयात करने की मानसिकता वाले हम हो गए है.सत्य का सामना करने का साहस हमारे अन्दर नहीं रह गया है. देश का सौभाग्य है की १५ वी लोकसभा के लिए सबसे अधिक मतदाता युवा वर्ग से है. क्या एक बार अपनी मातृभूमि के लिए अपने आने वाले सुनहरे कल के लिए जाति,संप्रदाय, छुद्र राजनीति से ऊपर उठाकर देश के नव उत्थान के लिए संकल्पित हो कर स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को संसद के अंदर भेजने का प्रयास नहीं कर सकते. नोट बाटने वाले हाथो से धन लेकर फिर उन्हें सार्वजानिक धन लुटने का अवसर प्रदान करना कितना खतरनाक है इसकी कल्पना करना मुश्किल है. भ्रष्टाचार को सार्वजनिक व सामूहिक रूप प्रदान करना राष्ट्रद्रोह है. भूख,गरीबी व लाचारी को पैसे से कीमत अदा कर के अपने निजी उपयोग में लाना, ओछी मानसिकता है. चुनाव आचार संहिता का बार बार उलंघन किया जाना संगेये अपराध घोषित किया जाना चाहिए. किसी जर्नलिस्ट को भी किसी व्यक्ति विशेष के साथ आभ्द्रतापूर्वक पेश आने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. महात्मा गाँधी, राजेंद्र प्रसाद सहित कई शहीद पत्रकारों ने अपने खून पसीने से पत्रकारिता को सीचा है.

Thursday, March 12, 2009

लोकसभा चुनाव में कैसे नेताओ का हो चयन

होली की खुमारी ख़त्म होने के बाद अब सभी का ध्यान आगामी लोकसभा चुनाव पर होगा । कई सियासी पार्टिया पूर्व से ही जोड़ तोड़ में जुट गयी हैं । भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व में सबो की भागीदारी हो, सचरित्र राजनेता संसद में पहुचे , इसकी भी जिम्मेवारी हम सभी को लेनी होगी ।
एक हास्य कवि महोदय ने फरमाया की जब मतदाता सूचि में गडबडी के कारण फुआ मौसा जी के साथ होगी, पत्नी की जगह पडोसन और बहन के स्थान पर बीबी का नाम होगा तो मतपेटी से सचरित्र नेता भला कैसे जन्म लेगा बात भी सही हैं । हमारे लिए सभी काम निहायत जरुरी हो जाते हैं जबतक वे निजी प्रतीत होते हैं लेकिन जब देश की बात आती हैं तो तरह तरह की परेशानी व पीडा होने लगती हैं । मुख्य चुनाव आयुक्त ने पिछले दिनों पटना में कहा की मतदाताओ में मतदान के प्रति रूचि जागृत करने के लिए अभिनेताओ का सहयोग लिया जायेगा । मुझे इस पर कोई आपति नहीं हैं लेकिन जरा सोचिये की कितनी भयावह परिस्थिति हैं । कम पढ़े लिखे, मजबूर,गरीब मतदाताओ को उपकृत करके उन्हें अपने पछ में वोट देने को मजबूर किया जाता हैं, लेकिन जो सछम हैं , वे अगर अपनी जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह हैं तो उसका दोष किसे दिया जाये । देश की मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए हम सब का दायित्व हैं की नेताओ के चयन में सतर्कता बरती जाये ।

Tuesday, February 24, 2009

स्‍लमडॉग मिलेनियर को आस्‍कर भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती

मैं यह नही कहता कि दूसरों के द्वारा की जाने वाली तारीफ बुरी होती है। किसी भी कार्य का मूल्‍यांकन स्‍वयं तब समझ में आता है, जब दूसरे उसकी तारीफ करते है। लेकिन जब आपके कार्यो को दूसरे अर्थो में तारीफ के काबिल बना दिया जाए तो थोडी देर के लिए ठहरकर सोचना पडता है। प्रसन्‍नता के साथ हमें आत्‍म विश्‍लेषण करना होगा। यह पुरस्‍कार भारतीय सिनेमा के लिए एक चेतावनी की माफिक है। भारतीय सिनेमा के लिए जो अस्‍प़श्‍य चीज है गरीबी उसने दो करोड की राशि जी‍ती है। मैं यह नही कहता की भारतीय सिनेमा गरीबी को प्रदर्शित करने में नाकाम रही है। लेकिन यार्थाथ से कटती जा रही हिंदी सिनेमा को देखना होगा कि आखिर भारतीय दर्शकों को हम क्‍या देखने को मजबूर किये जा रहे है। ग्‍लोबलाइजेशन का मंत्र ही यही है कि जो सबसे अधिक जानकारी अपने अनुभवों से रखेगा वही सफल होगा। स्‍लमडॉग के प्रदर्शन से भद्र लोगों को शक है कि उसने चीटिंग की है। भारतीय फिल्‍मों पर आप गौर करे तो पायेंगे कि यह स्‍टॉर आधारित है। यहां के स्‍टार बडे बडे लोकेशनों पर विदेशों में शुटिंग करना बेहतर समझते है। गजनी का हीरो अपनी प्रेमिका की हत्‍या का बदला लेने के लिए तत्‍पर रहता है। वह अपनी प्रेमिका को मुगालते में रखना चाहता है इसलिए टेम्‍पों पर चढता है, अविश्‍वनीय तरीके से खलनायक के डेन में बिना हथियार के प्रवेश कर जाता है। रब ने बना दी जोडी में भी नायक स्‍टार है। आप सोचे कि बिजली विभाग का कर्मचारी क्‍या किसी सूमों पहलवान से लडकर पत्‍नी के प्रेम को पाने की जुरूत कर सकता है। बिल्‍लू बार्बर भी नायक बनता है तो इसीलिए कि सुपरस्‍टार उसका दोस्‍त है. भारतीय सिनेमा अंडरवर्ल्‍ड, भूत, महानगरीय जीवन, सेक्‍स, विवाहेत्‍तर संबंध जैसे विषयों पर सिमट कर रही गयी है. इनका उदेश्‍य एक साथ दो हजार स्‍क्रीन पर मल्‍टीप्‍लेक्‍सों पर प्रदर्शित किया जाना मात्र रह गया है. गरीबी के प्रदर्शन के अपने मायने है. हमें अपने फिल्‍मों को उन परिस्थितियों से संबंद्व करना होगा जहां जाकर आम आदमी उससे अपना जुडाव महसूस कर सके. सच्‍चा पुरस्‍कार आम आदमी के समर्थन से मिलता है. किसी आस्‍कर द्वारा समर्थन दिये जाने के बाद उसको अंगीकार करना और उसपर झूमना मुर्खता हो सकती है. हमें अपनी प्रतिभा पर भरोसा रखना होगा. निसंदेह एआर रहमान, गुलजार प्रतिभावान है. बालीवुड में अगर वे अपनी ओर से कुछ ऐसा जोड सके जिससे उसकी मुख्‍य धारा में परिवर्तन हो, वह आम आदमी से जुड सके तो यह प्रशंसनीय होगा. दूसरों की तारीफ के बाद अपनी पीठ ठोकना उचित नही है. पिंकी के लिए यह पल यादगार बन गया। उसने विदेशी चकाचौंध को अपनी आंखों से देखा। इसके पूर्व भी हमें कई आस्‍कर मिले है, लेकिन इस बार भी जो सम्‍मान मिला उससे कही कोई लगाव महसूस कर पाना मुश्किल है।

Saturday, February 21, 2009

मौत का लाइव टेलीकास्ट सभ्य समाज के मुह पर एक तमाचा

अभी अभी यह जानकारी मिली की जेड़ गुडी जो की एक रियलिटी शो में शिल्पा शेट्टी को लेकर कभी नस्लीय टिपण्णी कर बैठी थी, उनकी संभावित मौत को लाइव टेलीकास्ट करने की तयारी की जा रही है। जेड़ गुड्डी कैंसर से पीड़ित है । उनकी मौत को टीवी पर सीधा प्रसारित करने के अधिकार किसी चैनल ने प्राप्त कर लिया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार जेड़ गुड्डी ने भी अपने दो छोटे छोटे बच्चो की परवरिश की खातिर धन की जरूरत का हवाला देते हुए एक अच्छी खासी रकम प्राप्त करने के लिए अपनी मौत का लाइव टेलेकास्ट कराने को तैयार हो गई है । मानव समाज इतना निष्ठुर हो चुका है की किसी की जान जाए तो जाए उसे तो अपनी मस्ती व मनोरंजन की ही पडी है। हद तो यह है की पथ भ्रष्ट हो चुकी मिडिया भी अपने दायरे को भूल मौत को तमाशा बनाने में लगी है। यह सामाजिक पतन की पराकाष्ठा है । एक सज्जन ने फरमाया की भारत में तो मृत्यु के बाद वर्षो तक पंडित, ठाकुर, व गाव समाज के लोग जश्न मनाते है। मरने वाले के नाम पर पुरिया तोडी जाती है । कई लोगो की आजीविका चलती है । पंडे पिंड दान के नाम पर मजे करते है । एसे में जेड़ गुड्डी का अपने बच्चो की खातिर मौत के लाइव टेलीकास्ट का अधिकार बेचना सही है। क्या इंग्लैंड की जनता इतनी निक्कमी है की वह दो बच्चो का भरण पोषण नही कर सकती। उस समाज की संवेदनाये इतनी मर चुकी है की अब उनमे धन के लिए मौत के खौफ का भी असर जाता रहा । क्या भारतीय कर्म कांड व सनातन संस्कृति में किसी की मृत्यु को इसप्रकार से हास्यास्पद बनाया गया है । यह तो वह भूमि है जहा स्वमेव समाधि ले ली जाती है। किसी महिला के देह का दर्शन करते हुए उसके जीवन भर उसे सो बिजनेस का साधन बना देना, फिर उसकी मौत का तमाशा बना देना पश्चिम की देन हो हो सकती है , हमारी अपनी भूमि में यह निंदा का karan ही हो सकती है। अब कल को कोई कह दे की bachche का जन्म लाइव होगा, कितनी ghatiya bate होगी। अपने को सभ्य कहने वाली prajati और वह समाज, wha की मिडिया इतनी nikrist हरकत karegi यह aaklpaniya है।

Thursday, February 12, 2009

वेलेन्‍टाइन और युग भ्रम

'' वेलेन्‍टाइन डे'' हर वर्ष देश में एक नये आतंक का आगाज कर रहा है। कोई इसके पक्ष में तो कोई इसके विपक्ष में स्‍वयं को खडा कर अपने को समय सापेक्ष घोषित करने में लगा है। नये युग में नयी नयी सामाजिक दूश्‍चक्र व विक़तियां उत्‍पन्‍न हो रही है। इसमें स्‍वयं को उलझा कर देश का युवा वर्ग अपने आपकों नये संकट व तनावों की ओर ले जा रहा है. 21 सदी के युवा इस प्रकार के युग भ्रम का शिकार न हो, राष्‍ट्रीय मर्यादा व उन्‍नति की दिशा में अग्रसर हो कुछ ऐसा होना चाहिये। मर्यादा पुरूषतोम श्रीराम के नाम पर संगठन खडा करना, उसके बाद हिंसा उत्‍पन्‍न कर समाज के एक वर्ग में आतंक पैदा करना, फिर गलथेथरई करते हुए अपने आपकों धर्म के साथ जोडना जहां विक़त मानसिकता का द्योतक है, वही युवाओं के किसी समुह विशेष्‍ा का उसके प्रतिरोध में गुलाबी चडढी अभियान चलाना स्‍वयं में हास्‍यास्‍पद है। आखिरकार, इसका प्रतिफल क्‍या होगा। बाजार तो नये नये अवसर खडा करने की ताक में रहता ही है, आप किसी भी अभियान का हिस्‍सा बने, वह आपके आर्थिक सामाजिक दोहन में कब लग जाता है आपको पता भी नही चलता। सामान्‍य आदमी जिसे न तो वेलेन्‍टाईन से मतलब है न किसी सेना व संगठन से वह हंसता रहता है। देखिए ये दोनों किस प्रकार की मुर्खता उत्‍पन्‍न कर रहे है. कई बार हम पश्चिम सभ्‍यता की अच्‍छी बातों को नजर अंदाज करते हुए,उसकी बुराईयों की आकर्षित होते चले जाते है. संस्‍कार,शुचिता व सभ्‍य आचरण को अपने जीवन का आधार बनाने वाला भारतवर्ष, वीर बलिदानियों का देश अपना भारत, मर्यादा पुरूषोत्‍तम, भगवती सीता की भूमि, नानक व कबीर की भूमि, हीर व रांझा की भूमि,सोनी व महिवाल की भूमि में वेलेन्‍टाइन के बिना प्रेम की कोई परिभाषा नही हो सकती । क्‍या भगवान क़ष्‍ण से बढकर भी कोई प्रेम के प्रतीक हो सकते है। जिनकी बांसूरी की धून पर नर नारी, जीव जंतू, पशु प‍क्षी सब मदहोश हो जाया करते थे। वह अलौकिक प्रेम जो भगवतसता से तादात्‍मय स्‍थापित करा देता है, जहां जन्‍म जन्‍म के बंधन टूट जाते है. संत वेलेन्‍टाईन कोई त्‍याज्‍य व्‍यक्ति नही है. लेकिन सोचिए कि क्‍या प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ गिफट लेने व देने से संपूर्ण होता है, खुले आकाश या झाडियों में बाहुपाश में बंधने से होता है, स्‍वतंत्र विचारधारा के नाम पर मर्यादा को ताक पर रखने से होता है। अगर ऐसा है भी तो क्‍या हम माने कि प्रेम प्रदर्शन की चीज है। हवा को सिलेंडर में भरकर आप आक्‍सीजन नाम देकर किसी को जरूरत मंद को जीवन प्रदान कर सकते है लेकिन जिसे स्‍वच्‍छ वायु में श्‍वास लेना हो वह सिलेंडर ढूंढे तो उसे क्‍या कहेंगे. विश्‍व को मागदर्शन देने की तैयारी में खडा भारत अगर इसी प्रकार के विरोध व तनावों में उलझा रहेगा तो अनावश्‍यक समय व उर्जा की बर्बादी से कुछ खास हाथ लगने वाला नही. आईए इससे इतर हम वसुधैव कुंटुबकम को अपनाते हुए पूरी मानवता को प्रेममय कर दें.

Monday, February 2, 2009

बदलते समाज में सर्वहारावर्ग की चिंताएं

वक्‍त बदल रहा है। कल तक जो चेहरे सामान्‍य दिखते थे, उनके उपर बडी बडी कंपनियों की क्रीम पुत गयी है। जीवन जीने की जददोजहद बढ गयी है। उदारीकरण के दौर में जहां सभी देश एक दूसरे की ओर निहारा करते थ्‍ो, आज एक साथ मंदी की चपेट में लुढकते नजर आ रहे है। अमेरिका के राष्‍ट्रपति का चेहरा ही सिर्फ नही बदला है बल्‍िक पहले अश्‍वेत बराक ओबामा के आने से दलितों व अभिवंचित समुदाय में उम्‍मीदें बढी है। अपने देश भारत में भी 19 वीं शताब्‍दी में समाजवाद का दौर चल रहा था। आम लोगों को ध्‍यान में रखकर नीतियां गढी जा रही थी। आज उदारीकरण के दौर में प्रवेश करने के बाद हम उद्योगपतियों का ख्‍याल रख रहे है। हमें डर है कि गरीबों की ओर हमने मुख किया तो हमारी सारी प्रगति व विकासवाद का पैमान टूटकर बिखर जायेगा। सर्वहारावर्ग आज दो दो कौडियों को जोडने में अपनी सारी उर्जा लगा रखा है। उसे पता है कि अपना बेटा अगर कंप्‍यूटर नही सीखेंगा, मोबाइल का प्रयोग करना नही जानेगा तो आने वाले समय में उसके लिए जीवन जीना और भी कठिन हो जायेगा। चांदी व सोने के चमचमाते मेडलों को खेल के मैदान में जीतने के लिए उसे कब्‍बडी, खो खो, या अपने देशी खेलों की जगह क्रिकेट, टेनिस या शूटिंग के कारनामे सीखने होंगे। उसके लिए न तो घर में न समाज के किसी भी हिस्‍से में अपनी उपयोगिता नजर आती है. बढती स्‍पर्द्वा के बीच उसकी हौसलाअफजाई के लिए भी कोई सामने नही आता. कोई आता भी है तो कारपोरेट बाबाओं की टोलीयां आती है. उन्‍हें रंगीन स्‍क्रीन पर अपने मीठे बोलों को सुनाने से फुसरसत कहां है. प्रभु को भी कैसे सीडी व बिडियों में बांध दिया गया है. साहित्‍य की जितनी विधाएं थी, सस्‍ती पु‍स्‍तकों की उपलब्‍धता थी वह दूर की चीज हो गयी है. अब प्रेमचंद को पढने के लिए, निराला को गुनने के लिए, विश्‍व साहित्‍य की सर्वश्रेष्‍ठ क़तियों को आत्‍मसात करने के लिए उत्‍तम साधनों का अभाव हो गया है, यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गयी है. यही कारण है कि ईदगाह का हामिद अब नही मिलता, झूरी के दो बैल आपस में नही बतियाते. वक्‍त बदल रहा है. नि संदेह प्रेम की गाथाएं नयी गढी जा रही है लेकिन कभी वो मटुकनाथ तो कभी चांद मोहम्‍मद के अंजाम पर जाकर स्थिर हो जाती है. अब तो श्‍वास लेना भी मुश्किल होता जा रहा है. नवजागरण कालीन पत्रकारों की देश भक्ति, अपने समाचार पत्रों के प्रति समर्पण लुप्‍त होता जा रहा है. कारपोरेट कंपनियों की भांति परिवार भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल रहे है. आज समझौता है कल टूटा तो अपनी राह इधर से उधर. भगवान बुद्व ने अंगुलीमाल डाकु के सामने आ गये थे, उनसे उसने कहा था ठहरो. बुद्व ने ठहरते हुए कहा था मै तो ठहर गया तुम कब ठहरोगे. आज भी यही शास्‍वत प्रश्‍न है. सब कुछ बदल रहा है हम कब ठहरेंगे.

Friday, January 30, 2009

ट्रस्‍टी बनाम फ्रस्‍टी जर्नलिस्‍ट

पत्रकारिता की दूनिया में अजीबो गरीब घटनाएं होती रहती है। कई बार आम आदमी को इससे कोई मतलब नही होता, उन्‍हें प्रकाश में भी अमूमन नही लाया जाता। इन घटनाओं की फेहरिस्‍त सामने आ जाये तो दूनिया को मौजूदा पत्रकारिता के उनसे संबंद्व पत्रकारों की सोच व समझ में खालीपन की अनुभूति हो सकती है। हाल ही में पटना के पत्रकारों ने या यूं कहे कि जर्नलिस्‍टों ने ट्रस्‍ट बनाकर प्रेस कल्‍ब आफ पटना की स्‍थापना करने की सोची। राज्‍य के मुखिया के कानों तक यह बात पहुंची,उन्‍होने झटपट इस पर अपनी सहमति प्रदान करते हुए अधिकारियों को एक अदद अच्‍छे भवन सुसज्जित करने का निर्देश दे दिया. स्‍थान भी चिन्हित कर लिया गया. भवन में तेजी से कार्य शुरू हो गये. रंग तब जमा जब ट्रस्‍ट के साथ राज्‍य के सूचना जनसंपर्क विभाग ने बैठक कर उसे सौंपे जाने को लेकर वार्ता शुरू की. बैठक में मौजूद कई पत्रकारों ने जमकर ट्रस्‍ट के पत्रकारों की खबर ली. बात तू तू मैं मैं तक पहुंच गयी. अधिकारी हक्‍के बक्‍के थे. अब क्‍या होगा इनका. जो पत्रकार वहां धीरे धीरे पहुंच रहे थे उनसे पूछा जाने लगा की आप ट्रस्‍टी है या फ्रस्‍टी. फ्रस्‍टीयों की जमात अधिक थी. बहरहाल बैठक में सर्व सम्‍मति से निर्णय किया गया कि एक समिति बनायी जाये,जो लोकतांत्रिक तरीके चुनाव कर क्लब के संचालन की जिम्‍मेवारी ले. इसके लिए सूचना जनसंपर्क के अधिकारियों को अधिक़त किया गया कि वे समिति का गठन करें. बैठक के बाद बाहर निकल कर अलग अलग पत्रकारों की राय भिन्‍न भिन्‍न थी. उन रायों में जाने का कोई मतलब यहां नही है, अनावश्‍यक आप भी परेशान होंगे। वैसे, आकलन करें कि अचानक नयी सरकार के विकासवाद से प्रभावित होकर क्‍यूं प्रेस क्‍लब के स्‍थापना की सूझ जगी. वह भी वैसे पत्रकारों को जो इसके लिए बनाये गये स्‍व निर्मित ट्रस्‍ट के आजीवन सदस्‍य बने हुए थे. कही यह नीतीश जी के गले की हडडी न बन जाए.

Thursday, January 29, 2009

श्रीलंका सरकार की कार्रवाई से सबक ले भारत

भारतीय नीति निर्धारकों को श्रीलंका में लिटटे के खिलाफ के विरूद्व छेडे गये अभियान से सबक लेनी चाहिये। श्रीलंका सरकार द्वारा चलाये जा रहे अभियान का दूरगामी असर होगा। किसी भी मूल्‍क में आतंकवादी गतिविधियों, उग्रवादी गतिविधियों के संचालन को जोरदार तरीके से कुचल देना चाहिये। ये कौन लोग है जो मनमाफिक परि‍णामों को प्राप्‍त करने के लिए एक बडी आबादी को निरीह जनता को आतंक व भय के साये में रहने को मजबूर कर देते है। हमारी सेना व नीति निर्धारकों के बीच बेहतर तालमेल की बात की जाती रही है, निसंदेह ऐसा है भी तभी भारतीय लोकतंत्र 60 वर्षो के बाद भी अपने पैरों पर मजबूती से खडा है। लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि जम्‍मू कश्‍मीर हो या आसाम,जहां वर्ष भर युद्व व तनातनी की स्थिति बनी होती है. झारखंड व छतीसगढ के जंगलों में पल रहा उग्रवाद हो जिसका शिकार न केवल सरकारी मशीनरी होती है बल्कि आम जनता भी तबाह व बरबाद होती है. उनकी ओर भी ध्‍यान दिया जाना आवश्‍यक है. लोकसभा चुनाव होने को है एक बार फिर भारतीयों को अपने प्रतिनिधियों के चुनाव का अवसर प्राप्‍त होगा। क्‍या हम इस दिशा में कुछ नहीं सकारात्‍मक कार्य कर सकते है। अच्‍छे लोगों की राजनीति से दूराव न हो बल्कि वे सामने आकर राजनीति के समक्ष खडी चुनौतियों का सामना करें। ऐसा प्रयास नही किया जाना चाहिये। बुद्विजीवी वर्ग क्‍यों नही अपने देश के युवाओं को भरोसे में लेकर उन्‍हें आगे बढने का मौका देता है। इतना तो निश्चित है कि युवा वर्ग अपनी परेशानियों को निकटता से महसूस कर रहा है। उसे पता है कि श्रीराम सेना के नाम पर आतंक फैलाने वाले व तालिबानी मानसिकता से ग्रसित लोगों में क्‍या समानताएं है. हद तो यह है कि हमारे देश में लोकतंत्र के चारों प्रहरी विधायिका, कार्यपालिका, न्‍यायपालिका व प्रेस अपने वजूद के संकट से जूझ रहे है, उन्‍हें यह एहसास ही नही हो रहा है कि जिसे हम आम आदमी कहते है उसके जीवन की रोजमर्रा की जरुरते कैसे पुरी हो,उसमें उनका क्‍या योगदान हो सकता है. हम जिसे चाहे गालियां दे ले, चाहे जितनी भी शिकायते कर ले, लेकिन हमें थोडी थोडी ही सही अपने लिए न सही उन आम आदमियों के लिए ही सही करने का प्रयास करना चाहिये जिनकी आंखों के आंसू रुकते नही, सूख जाते है, इसी आशा में कि कोई तो तारनहार आयेगा, उनकी परेशानियों को समझेगा, उन्‍हें अपने मूल्‍क व अपने परिवार के लिए कुछ करने की थोडी स्‍पेश, स्‍थान प्रदान करेगा.

Tuesday, January 27, 2009

थोडी सी शर्म व आत्मालोचन

इस देश को कौन संचालित करेगा गणतंत्र या भीड़तंत्र या इन सब से इतर छिपे हुए चेहरों के बीच अपने असली चेहरों को भूल गये लोग. अगर आपका अंतःकरण अशुद है तो बाहरी आवरण बहुत दिनों तक किसी को उल्लू नही बना सकता. अजब सी सियासत है इस देश की जब आतंकी वारदात के खतरों से देश जूझ रहा हो,सीमा पार से गर्म हवाए आ रही हो, गणतंत्र दिवस के अवसर पर शहीदों को अशोक चक्र व अन्य सम्मान प्रदान किये जा रहे हो, नासिक के एक विद्यालय में गणतंत्र दिवस समारोह को तोड़ फोर कर बंद करा देना,महज इस लिए की भोजपुरी गीत की प्रस्तुति हो रही थी,बडे ही शर्म व शोक की बात है- कैसे किसी का दिल इस बात की गवाही देता हैं की जिस घर में हम रहे उसी घर में अपने हाथो से आग लगा दे । इस देश को ऐसे लोगो से निजात मिलनी चाहिए,जो किसी भी प्रकार की वैमनस्यता फैलाते हो । ६० वे गणतंत्र को करीब से जी भरकर देख लो, इसकी हड्डियों में भरपूर जवानी हैं, यह वही मुल्क हैं जहा ८० वर्ष के बाबु वीर कुवर सिंह ने अंग्रेजो के दांत खट्टे का दिए थे, १८५७ की क्रांति में एक बड़े भूखंड को विजित कर अपने प्राण त्यागे थे। अब हमें उन कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए की कौन से तत्व हमें अन्दर व बाहर से खोखला बना रहा हैं। बंद करे यह भाषा, प्रान्त, मजहब और निर्ल्लाजता की बाते। देश की ६० फीसदी आबादी में शामिल युवा किसी भी देशद्रोही को बर्दाश्त कराने की हालत में नही हैं। यहाँ आपको तय करना होगा की आने वाली संतति को आप कैसा मुल्क सौपना चाहते हैं। क्या सुभाष ने इसीलिए अपना घर बार त्यागा था। गाँधी ने रामराज्य का सपना देखा था। बिस्मिल की कुर्बानी यु ही जाया हो जायेगी। विचारे, क्यों सच्चा देश भक्त मुस्लमान भी दहशत गर्दी के विरूद्ध जुबान खोलने में समर्थ नही पाता,क्यों किसी भी खास भाषा प्रान्त के नाम पर भीड़ तंत्र अँधा बन कर विवेक खो बैठती हैं, गणतंत्र किनारे खड़ा सिसकता रहता हैं। हम अपना अनुशासन कहा भंग करते हैं। कभी इस देश की गरीबी के आकडे इक्कठे किए जाते हैं, उन्हें गीत ,कला , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बेचा जाता हैं, तो कभी कभी अनकर देखही लाल आपण फोरी कपार को प्रदर्शित किया जाता हैं ।हम अपने आप पर इस देश पर यहाँ की मिटटी पर कब गर्व करना सीखेंगे.

Saturday, January 10, 2009

मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल

हिंदी पत्रकारिता अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. सारे सिद्वांत व नियम बाजारवाद के आगे नतमस्‍तक हो गये है. दिग्‍गज पत्रकारों को भी नही सूझ रहा कि आखिर इसका क्‍या समाधान होगा. स्‍टील, प्‍लास्टिक, आयल,फूड प्रोडक्‍ट की तरह ही बाजार हिंदी पत्रकारिता को अपने अनुरूप मोड रही है. ऐसा नही कि इससे मनोरंजन व सूचना से संबंद्व अन्‍य उद्योग जैसे फिल्‍म, टेलिविजन व संचार कंपनियां प्रभावित नही हो रही है. उनमें भी इसका खासा असर दिख रहा है. आम आदमी अपनी पहचान इनमें तलाशने की कोशिश कर रहा है. सावधान हो जाये, अगर एक आम आदमी गति मति बिगडेगी तो शायद उससे इतर खास आदमी प्रभावित नही होगा ऐसा नहीं है. समाज की एक कडी कमजोर होगी या टूटेगी तो दूसरा पक्ष निसंदेह प्रभावित होगा. खासकर, राष्‍ट्रीय मुददों पर हिंदी मि‍डिया के रूख्‍ा को समझना मुश्किल हो रहा है. पूरे तथ्‍य अब खुल कर सामने आ रहे है. चैनलों पर आतंकवाद के विरोध में भले ही चिल्‍लाकर अपनी प्रतिबद्वता को प्रदर्शित करने का दौर जारी है किन्‍तु यह भी सत्‍य है कि आम हो या खास मीडिया के रवैयें से स्‍वयं आतंकित है. उससे नही लगता कि मीडिया के पास जाकर किसी की समस्‍या का सामाधान ढुढा जा सकता है. चाहे अपराध की बात हो या ज्‍योतिषीय समाधान की यह समझ से परे है कि कैसे चंद मिनटों के प्रदर्शन के बाद किसी को भी कैसे खबर का असर प्राप्‍त हो सकता है. जब तक मूल समस्‍याओं को निबटाने को लेकर राष्‍ट्रीय नीतियों पर तीखे चोट करने,उसकी अच्‍छाईयों को जन जन तक प्रसारित करने की दिशा में कार्रवाई नही की जायेगी तब तक समस्‍याएं मुंह बाये खडी रहेंगी. आतंकवाद एक बडा मुददा है. यह पूरे देश को अपनी आगोश में लेने के लिए बेताब है. पडोसी मूल्‍कों से हमारे संबंध पुराने ढर्रे पर बने हुए है. इनकी लगातार समीक्षा होनी चाहिये. अटल जी ने क्‍या खूब कहा था कि हम नये नये दोस्‍त बना सकते है लेकिन पडोसी नही बना सकते. हमें अपने पडोसियों के सुख दूख उनकी समस्‍याओं में साझीदार होना सीखना होगा. मीडिया को इस दिशा में भी फोकस करनी चाहिये कि पडोसी मूल्‍कों में कौन कौन सी समस्‍याएं है. उनके समाधान की दिशा में अंतर्राष्‍‍ट्रीय प्रयासों को भी बल देना होगा. मीडिया एक ओर आम आदमी से आतंकवाद के विरूध खडे होने की अपील कर रहा है ऐसे में उसे आम आदमी के विश्‍वास को भी जीतना होगा. वैसे भी निजी प्रक्षेत्र के इलेक्‍ट्रानिक मीडिया की पहुंच मध्‍यम वर्ग में भी फिलवक्‍त शतप्रतिशत नही है. अखबारों को अपने तेवर में परिवर्तन लाने के पूर्व ठहर कर सोचना होगा कि बाजारवाद कही देश को पतन की गर्त में लेकर न चला जाये. हमें पश्चिमी मूल्‍कों में पूंजीवाद के विकास के दूष्‍परिणामों की ओर भी देखना होगा.

Saturday, January 3, 2009

नव वर्ष में अज्ञात भय से मुक्‍त हो

नव वर्ष का आगाज हो चुका है, बीते वर्ष की बिदाई व नये वर्ष के आगमन के बीच कई लोगों ने अपनी अपनी प्राथमिकताएं तय की होगी. बीते वर्ष की समाप्ति आतंकवाद के भीषण रुप को सामने लेकर आया. जबकि कई अच्‍छी बातें भी देखने को मिली थी. अच्‍छी बातों को याद करने से प्राय लोग कतराते है. खैर, आम मानसिकता की तरह ही हम भी उसी पर बातें करते है. प्राय देश के खास ओ आम लोगों के मन में पाकिस्‍तान की बातें आते ही,अपने देश में निवास करने वाले अल्‍पसंख्‍यकों को लेकर धारणाएं बनने बिगडने लगती है. हद तो यह है कि कई बार अल्‍पसंख्‍यकों के मन में ऐसा अज्ञात भय पैदा हो जाता है, मानों उनका भारतीय गणतंत्र से कोई वास्‍ता नही है. जाति व धर्म से उपर उठ कर सोचने व विचार करने का जज्‍बा अब भी अपनी शैश्‍वावस्‍था में ही है. वेद व कुरान की गुढ बातें न तो बहुसंख्‍यक समझते है, न अल्‍पसंख्‍यक. चूंकि अल्‍पसंख्‍यको में मुसलमान निशाने पर होते है, इसलिए पहले हम जान ले कि मुसलमान वस्‍तुत है कौन. मुसलमान, मुस्‍सलसल हो ईमान जिसका वही सच्‍चा मुसलमान है. जो अपने ईमान पर अडिग रहता हो. आप स्‍वयं देखें कि कितने ऐसे मुसलमान है जो अपने ईमान पर कायम रहते है. खासकर, अल्‍लाह( ईश्‍वर ) पर ईमान लाने वाला व्‍यक्ति कैसे बिना सिर पैर की सोच रख सकता है. दूसरा, वेद की ऋचाएं व कुरान की आयतों को गौर से पढे. कई बातें एक दूसरे को दुहराती प्रतीत होती है. वेद के अंतर्गत सूर्योपासना पर बल दिया गया है तो सूर ए जिन की चर्चा किस कदर उससे अभिन्‍न है यह भी देखें. खैर, गुढ रहस्‍यों की विवेचना यहां मेरा उदेश्‍य नही है. यह जो अज्ञात भ्‍ाय है उससे कैसे हम निकल सकते है, इस पर हमें विचार करना चाहिये. हमें इस पर विचार करना चाहिये कि जिस इस्‍लाम में ढुढ ढुढ कर बुराईयों की खोज की जाती है, उसी के मानने वाले पीर व फकीरों के दरबार में क्‍यों जाति और मजहब भूलकर सभी बंदे अपना सिर झूकाते है. क्‍यों वहां हर हदय भयरहित हो जाता है. क्षेत्रीयता, भाषाई संकीर्णता, धार्मिक कटटरता, आतंकवाद इत्‍यादि हमें थोडी देर के लिए भले ही डराते हो, इससे खबराना नहीं है. भारत भूमि पवित्र आत्‍माओं की निवास भूमि है. यही कारण है कि शक, हूण, कुषाण से लेकर इस्‍लाम व ईसाईयत ने भी यहां आकर अपना बसेरा बनाया है. आप और हम रहे न रहे यह मूल्‍क रहेगा. इसकी खुशबू दिनों दिन विश्‍व में बिखरती रहेगी, बशर्ते हम अपनी भावनाओं में पवित्रता, भाईचारगी, खुदा ईश्‍वर, गुरू, जिसे भी आप अपना पथ प्रदर्शक मानते हो उनमें आस्‍था बनायें रखे. प्राचीन भारत के अंश भाग चाहे गंधार अब अफगानिस्‍तान, बन जाये या गुरू नानक की जन्‍मभूमि ननकाना साहिब पाकिस्‍तान का अंश हो जाये, बुल्‍लेशाह के भजन हो या मीरा की भूमि उसकी गूंज बहरे को भी ईश्‍वर का ध्‍यान कराती रहेगी, आईए इस नये वर्ष में हम भयमुक्‍त होकर जीना सीखें. ऐसे किसी भी तत्‍व को प्रश्रय न दे जो देश की एकता व अखंडता को खतरे में डालने का प्रयास करता है. आर्यावर्त की इस भ‍ूमि पर भरत बचपन से ही शेर के मूंह में हाथ डालकर उसकी दांतें गिना करता है. अपनी संवेदनाओं को जाग्रूत करें, वतन पर कुर्बान होने का मौका विरले को ही प्राप्‍त होता है. अमर शहीदों की इस भूमि अशफाक, भगत सिंह, महात्‍मा गांधी, विवेकानंद की भूमि के कण कण में शक्ति विराजमान है.