Friday, August 29, 2008

भूख से बिलबिलाते बच्‍चे,उजडने व पुन बसने की नियति

उत्‍तर बिहार के कोशी अचंल में कोशी की धारा ने महाप्रलय मचा रखा है, नेपाल के कुसहा के समीप बांध टूटने के फलस्‍वरूप सहरसा जिला के पतरघाट,सौर बाजार एवं सोनबरसा प्रखंड में बाढ का पानी प्रवेश कर गया है, साथ ही सुपौल, मधेपुरा,पूर्णियां सहित छह जिलों के सैकडों गांव कोशी की धारा में विलीन हो गये. बच्‍चे भूख से बिलबिला रहे है, पिछले 10 दिनों से टीलों,भवनों, सार्वजनिक स्‍थानों पर शरण लिये हुए लोगों की सुधि लेने वाला कोई नही है. बडी ही ह़दयविदारक द़श्‍य है. सहरसा में सैकडों शरणार्थी पहुंच रहे है. कोशी कॉलोनी,सुपौल के रहने वाले संजीव कुमार बताते है कि सुपौल के ग्रामीण 100 रुपये किलो चुडा व दूध डेढ सौ रूपये लीटर खरीदने को बाध्‍य है,नमक 50 रुपये, अमूमन तीन रूपये में मिलने वाला बिस्‍कूट 20 से 50 रुपये किलो मिल रहा है. ऐसे समय में कालाबाजारियों की पौ बारह है. बांढ की विभीषिका से पत्‍नी व परिवार को निकाल कर किसी तरह सहरसा तक पहुंचे अमित कुमार बताते है कि मात्र 15 किलो मीटर की दूरी तय करने के लिए उन्‍हें साढे तीन हजार रूपये नाव वाले को देना पडा है. कहीं कही तो नाव वाले पांच हजार रुपये वसूल कर रहे है. मानव जीवन की इससे बडी त्रासदी क्‍या होगी जब लाखों लोग कोशी के प्रलय से जुझ रहे हो वैसे में कुछ टुच्‍चे लोग अपने स्‍वार्थ के कारण उसमें भी लाभ का योग ढूढ रहे है. मधेपुरा की सुनीता देवी इस लिए उदास है कि बांध व उंचे टीले के सहारे, नाव व पैदल वह परिवार को लेकर निकली किंतू उसके बढू ससूर छूट गये. कई परिवारों के आय का जरिया बने मूक जानवर बकरी, गाय,भैस को उन्‍हें मुक्‍त करना पडा ताकि वे अपना शरण ढूढे. बांध के टूटने, उसकी समय समय पर मरम्‍मति नही किये जाने के प्रति घोर लापरवाही बरतने के लिए राज्‍य सरकार को किसी भी तरह माफ नहीं किया जा सकता. कोशी ने पहली बार अपनी जलधारा नहीं बदली है, किंतू कोशी को पुन 1826 की स्थिति में ले जाने के लिए सूबे की अफसरशाही व राजनेता पूर्णतया दोष्‍ाी है. केंद्रीय सहायता, राजकीय सहायता, राष्‍ट्रीय आपदा घोषित किये जाने, राहत व मुआवजे का खेल बिहार में एक बार फिर शुरू हो गया है. गुरूवार को प्रधानमंत्री,यूपीए अध्‍यक्षा, कई केंद्रीय मंत्री, मुख्‍यमंत्री,बिहार सहित कई राजनेता पूर्णियां में उपस्थित थे. प्रधान मंत्री ने मुख्‍यमंत्री की मांग के अनुरूप एक हजार करोड रुपये राष्‍ट्रीय आपदा राहत कोष्‍ा से देने की घोषणा कर दी, चुनावी वर्ष में कोई भी राजनेता व दल बाढ को लेकर कुछ भी करने का मौका नहीं छोडना चाह रहे है. क्‍या इसके बावजूद इस समस्‍या के निदान के प्रति इनकी भावनाएं स्थिर है, क्‍या सचमुच बिहार को प्रत्‍येक वर्ष होने वाले बाढ की त्रासदी से मुक्ति मिल सकेगी, राहत व पुनर्वास के नाम पर राजनीति चमका कर सांसद व जनप्रतिनिधि बनने का मौका छोड विकास की ओर राजनेता सक्रिय हो सकेगा कई सारे प्रश्‍न अनुतरति है, कोशी क्षेत्र की जनता बार बार उजडने व बसने की नियति से निकल सकेगी यह कहना ब‍हुत ही मुश्किल है. वर्ष 93 में तत्‍कालीन मुख्‍य सचिव वीएस दूबे ने ऐसी परिस्थिति का पूर्व में आकलन करते हुए 18 दिनों तक कोशी के बांध पर कैम्‍प कर उसकी मरम्‍मति का कार्य किया था, रात 12 बजे उन्‍होने सिचाई मंत्री को सूचित किया था कि 'सर, वर्क इज ओवर, तब मंत्री ने मुख्‍यमंत्री लालू प्रसाद को उसी समय मुख्‍यमंत्री निवास में जाकर सूचित किया कि सर, उत्‍तर बिहार को बाढ की भयानक विपदा से बचा लिया गया. इस बार तो एनडीए के शासन काल में तो हद ही हो गयी, विकास व न्‍याय के शासन का राग अलापते नेता व नौकरशाह इस कदर निश्चित हो गये कि किसी को भी पिछले दो वर्षो से बांध की मरम्‍मति की नहीं सूझी. जब पानी का रिवाव शुरू हो गया तो बांध की मरम्‍मति को लेकर चहेते ठीकेदार की खोज शुरू हुई. तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी. मात्र एक एज्‍यकुटिव इंजीनियर के सहारे पुरे क्षेत्र को भगवान भरोसे छोड दिया गया था. स्‍थानीय ग्रामीणों के भडकने को लेकर राज्‍य सरकार की यही बेत्‍लखी थी. बाढ के जाने माने वशिेषज्ञ टी प्रसाद कहते है कि अंग्रेजी शासनकाल होता तो शायद इतनी बडी समस्‍या नहीं होती,अंग्रेजी प्रारंभ से ही मूल समस्‍या का आकलन करते हुए चरणबद्व तरीके से काम कर रहे थे. बाद की सरकारों ने इस पर बहुत अधिक ध्‍यान नहीं दिया, अब भी समस्‍या को लेकर एक दूसरे पर दोषारोपण करने के सिवाय किसी के पास कोई अन्‍य विकल्‍प नहीं है. ऐसे ही परिस्थितियों में हिंदी साहित्‍य ने फणिश्‍वर नाथ रेणु, बाबा नागार्जुन जैसे साहित्‍यकारों को पैदा किया था, कोशी क्षेत्र के साहित्‍यकारो्ं के अतिरिक्‍त हवलदार त्रिपाठी सहदय ने तो बिहार की नदियों पर पुस्‍तक ही लि खी जिसकी उपादेयता आज भी बरकरार है. आज आवश्‍यकता है कि बडे पैमाने पर 25 लाख्‍ा से अधिक बाढ पीडितों के बीच बडे पैमाने पर राहत व पुनर्वास कार्य किये जाने की, क्षति का आकलन करते हुए मूल समस्‍या के निदान किये जाने की. मीडिया की जिम्‍मेवारी भी इस में बढ जाती है. 18 अगस्‍त को बाढ आया लेकिन राष्‍ट्रीय मीडिया ने उसे प्रारंभ में तवज्‍जों नहीं दिया, जब विनाश की भयंकरता का उसे अहसास हुआ तब जाकर कैमरे की फोकस उधर बढायी गयी, उधर से आ रही रिपोर्ट पर नजर जानी शुरू हुई, बात बात में हल्‍ला मचाने वाली मिडिया इसीप्रकार कारपोरेट घरानों के हाथों में खेलती रही तो इसमें कोई शक व सुबह नहीं कि इनकी लोकप्रियता सिर्फ बुद्वू बक्‍से तक ही सीमित हो कर न रह जाये, अथवा कागज काले करने के बावजूद उस कागज को रददी से ज्‍यादा महत्‍व नहीं मिले.

Friday, August 22, 2008

शुद्वतावादियों से कैसे बचे हिंदी

कल ही वरिष्‍ठ साहित्‍यकार व साहित्‍य आलोचक डा नामवर सिंह ने जेएनयू में दिये गये एक व्‍याख्‍यान में कहा कि हिंदी को सबसे अधिक शुद्वतावादियों से खतरा है. उनका मानना है कि भाषा का क्रमिक विकास जारी रहता है. हिंदी के मनीषी नामवर जी का पुरा व्‍याख्‍यान प्रिंट माध्‍यम से सामने नहीं आ पाया है,इसलिए कतिपय बातों पर स्‍पष्‍टीकरण प्राप्‍त करना अनिवार्य लगता है. शुद्वतावादियों को लोग पहले तो पुचकारते है फिर भाषा के विकास को लेकर, उन्‍हें अपने डंडे से हांकने का प्रयास किया जाता है.शुद्वतावादी का चोला पहनकर मठाधीशी करने के उपरांत लगता है कि कई लोग इससे उबने लगे है. हिंदी निसंदेह 60 वर्षो के बाद अपने मूल रुप से अलग दि खने लगी है, उसके तेवर व सौंदर्य का भी विकास क्रमिक रुप से हुआ है. वर्तमान पीढी तकनीक पर सवार होकर अपने भाषा को विकसित करने में लगी है. संभव है कि हिंदी भाषा में कई नए शब्‍द व उसके रुप बदल रहे है. लेकिन शुद्वतावाद से अलग होने पर व्‍याकरण के बंधन से भी मुक्‍त होने को साहित्‍य प्रेमी प्रेरित होंगे. भडास सहित कई ब्‍लॉगवार्ता पर इसके रुप भी देखने को मिल रहे है. फिर तो मुक्‍ता अवस्‍थ्‍ाा में क्‍या हिंदी जिन मूल्‍यों व विचारों को लेकर आगे बढ रही थी वह आगे कायम रह पायेगा. शुद्वतावाद से अलग होकर निसंदेह हिंदी का विकास होगा, लेकिन उसे नये रुप में आगे बढने का मार्ग भी प्रशस्‍त करना होगा. हिंदी के विकास में साहित्‍यकारों के साथ 20सदी के पूर्वाद्व में नए नए पत्रों के द्वारा पत्रकारों के द्वारा भी भाषा के रुप गढे जा रहे थे. विदेशों से आने वाली खबरों को जनता तक पहुंचाने के लिए अंग्रेजी भाषा के सटीक हिंदी रुपांतरण के लिए वे अथक प्रयास कर रहे थे. इनमें कई अनाम साहित्‍यकार पत्रकार थे,जिन्‍हें हिंदी के वर्तमान आलोचकों द्वारा लगभग विस्‍म़त सा कर दिया गया है. हिंदी अपने जन्‍म काल से ही शुद्व रुप से अपने स्‍व को विकसित करने के क्रम में विभिनन देशी विदेशी भाषाओं को समाहित करती रही है. दूनिया की अन्‍य भाषाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है. जापान में मेइजी ने समाज सुधार के लिए चयनित नवयुवकों को अमेरिका भेज कर उनकी भाषा व तकनीक के ज्ञान प्राप्‍त करने को प्रेरित किया था. उसका फलाफल हम आज देख सकते है. भारत में मैकाले ने भले ही गुलामी को पुख्‍ता करने के लिए अपनी शिक्षा नीति नि र्धारित की थी लेकिन उस शिक्षा नीति ने हिंदी व हिंदूस्‍तान के विकास में दूसरे रूप से सहयोग किया. हर किसी चीज के सकारात्‍मक पहलू को भी स्‍वीकारना चाहिये. शुद्वतावादियों से हिंदी को बचाने के नाम पर हिंदी का अहित न हो जाये, उसका रुप विक़त न हो जाये इसका भी ध्‍यान रखना होगा. जीवंत भाषा व समाज बदलते रहते है, हिंदी बदली है, हिंदूस्‍तान बदला है, परिवर्तन संसार का नियम है. हिंदी नहीं बदली तो उसका भी हाल संस्‍क़त की तरह हो जायेगा. हिंदू शब्‍द की तरह हिंदी भी भारत में नहीं बना, ईरान से आया है ऐसे ही कई नए शब्‍द आयेंगे,जुडेंगे.
उसकी निजता बरकरार है व रहेगी, इस निजता के साथ छेडछाड संभव नहीं है. बाकि वाहय आवरण तो सदा बदलते रहेंगे.

Saturday, August 16, 2008

स्‍व तंत्र और स्‍वतंत्रता को कैसे समझे नवयुवक

मौजूदा संदर्भ में स्‍व तंत्र, स्‍वयं विकसित किये गये तंत्र और वास्‍तविक स्‍वतंत्रता का मतलब आज के युवा कैसे समझे. हद हो गयी शुक्रवार को, बीते 15 अगस्‍‍त के दिन. राजधानी पटना से 60 किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान न तो राजधानी में न तो रास्‍ते में और न ही 60 किलोमीटर दूर स्थित शहर में कहीं भी लाउडस्‍पीकर पर किसी कोने से देशभक्ति गीतों के स्‍वर सुनाई दिये. अपनी स्‍वतंत्रता के इस गौरवपूर्ण दिन को लेकर, राष्‍ट्रीय स्‍वाभिमान को लेकर ऐसी खोमीशी इससे पूर्व मैने अपने छोटे से जीवन में कभी नही देखी. इसलिए इस बात को आमलोगों के बीच पहुंचाने के लिए बाध्‍य हो गया. हमने जो अपने तंत्र विकसित कर लिये है उसमें कही से भी स्‍वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह गया है. भारतीय चिंतन पद्वति के अनुसार वैसे भी इस धरा पर कोई भी पूर्णतया स्‍वतंत्र नहीं है, सब ईश्‍वर, एक दिव्‍यशक्ति के नियंत्रणाधीन है.अगर बात ऐसी है तो कोई बात नहीं है.

Wednesday, August 13, 2008

1857 के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम का जश्‍न

आज हम सभी 1857 की क्रांति अथवा प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम के 150 वें वर्ष का जश्‍न मना रहे है. कैसा दुर्भाग्‍य है इस देश का जब हम अपने जश्‍न के दौरान मौजूदा हालात पर जरा भी गंभीर नहीं है. सभी राज्‍य सरकारें इस जश्‍न को मनाने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रही है. लेकिन कहीं से भी मूल्‍क के आंतरिक हालात, पडोसी देशों के साथ हमारे बिगडते संबंध, वैश्विक नीति, बाजारबाद इत्‍यादि के मूल्‍यांकन की तैयारी नहीं दि खाई पड रही है. 1857 का सशस्‍त्र विद्रोह, आधुनिक भारत के इतिहास का एक माइल स्‍टोन है. इस विद्रोह के फलस्‍वरूप जहां एक ओर भारत में ईस्‍ट इंडिया कंपनी का अस्तित्‍व समाप्‍त हो गया और सीधा ब्रिट‍ि श शासन शुरु हुआ, वही दूसरी ओर भारत पर ब्रिटि श शासन के संबंध में भारतीयों व अंग्रेजों का नजरिया भी पुरी तरह बदल गया. वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में क्‍या प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम को याद करते हुए हमारे जेहन में कहीं से भी यह बात आती है कि पिछले 150 वर्षो के बाद भी मूल्‍क में भ्रष्‍टाचार,भाई भतीजावाद, चरमपंथ, राजनैतिक पतन जैसे असाध्‍य रोगों से हम मुक्‍त हो पाये है. पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के तहत पोषित होने वाली बडी बडी कंपनियों के साथ कदम ताल मिलाते मिलाते हम क्‍या से क्‍या कर बैठे है. जीवन का सुकून व चैन छिन सा गया है.
पूंजीपतियों के सहारे भारतीय राजनीति को सीचिंत करने की शुरूआत बीसवी सदी के प्रारंभ से ही शुरू हो गया था. तब के कई वरिष्‍ठ साहित्‍यकार व पत्रकार इस स्थिति को भली भांति समझ रहे थे. वे स्‍पष्‍ट तौर पर देख रहे थे कि नेशनल एसेबली व प्रिवी कौसिंल की सदस्‍यता को लेकर कैसे पुराने व नये राजनीतिज्ञों में होड मची है. पत्रकारिता भी इससे अछूति नहीं रही थी. लोकमान्‍य तिलक की प्रशंसा करते नहीं थकने वाले तत्‍कालीन दक्षि ण भारत के एक पत्र के संपादक कैसे बाद में 3500 रुपये संगठन के फंड का गबन करने का आरोप लगाते हुए बाद में तिलक के विरोध में खडे हो गये थे. उत्‍तर भारत व पं बंगाल से निकलने वाले कई पत्र लगातार स्थिति का मुआयना कर रहे थे. इसमें कई जागरूक पत्रकार दंगे का विरोध करते हुए बीच सडक पर मारे गये, वही कईयों पर जातीय व देश सेवा के स्‍थान पर सांप्रदायिकता का लेबल चस्‍पा कर दिया गया. उन्‍हें देश ने बाद में याद करना भी मुनासिब नहीं समझा. हमें रूक कर फिर एक बार सोचना चाहिये.

Monday, August 11, 2008

हिंदूस्‍तान के नौजवान खिलाडी को सैल्‍यूट

अभिनव बिंद्रा ने ओलंपिक खेल में स्‍वर्णपदक प्राप्‍त कर 28 साल बाद भारत माता की झोली में लाल ओ जवाहर लाकर रख दिया है.

व्‍याकरण की भूलें व हास्‍य परिहास

कभी कभी व्‍याकरण की छोटी छोटी भूले हिंदी लेखन को हास्‍यास्‍पद बना देती है. माना कि कंप्‍यूटर के की बोर्ड पर कई बार उगंलियां अक्षरों को चिन्हित करने में भूलें कर बैठती है. कुछ अज्ञानतावश तो कुछ कंप्‍यूटर के की बोर्ड की विस्‍त़त जानकारी के अभाववश. अधिकांश ब्‍लॉगर चाहते हुए भी हिंदी की वर्तनी की भूलों से बच नहीं पाते. फिर भी हमारा प्रयास व्‍याकरण के अनुशासन में रहकर लेखन को विकसित करना होना चाहिये. संभव है इसमें कई त्रुटियां हो, लेकिन उसे समझने का भी प्रयास करना होगा. उदाहरण के लिए सिर्फ पूर्णविराम की गलतियों से कैसी हास्‍यास्‍पद स्थिति पैदा हो सकती है इसकी बानगी पर जरा गौर करें.

एक गांव में एक स्त्री थी । उसके पति यूनिक कंप्‍यूटर सेंटर मे कार्यरत थे । वह आपने पति को पत्र लिखना चाहती थी पर अल्पशिक्षित होने के कारण उसे यह पता नहीं था कि पूर्णविराम कहां लगेगा । इसीलिये उसका जहां मन करता था वहीं पूर्णविराम लगा देती थी ।उसने चिट्टी इस प्रकार लिखी--------मेरे प्यारे जीवनसाथी मेरा प्रणाम आपके चरणो मे । आप ने अभी तक चिट्टी नहीं लिखी मेरी सहेली कॊ । नौकरी मिल गयी है हमारी गाय को । बछडा दिया है दादाजी ने । शराब की लत लगा ली है मैने । तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे । भेडीया खा गया दो महीने का राशन । छुट्टी पर आते समय ले आना एक खुबसुरत औरत । मेरी सहेली बन गई है । और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी । बेच दी गयी है तुम्हारी मां । तुमको बहुत याद कर रही है एक पडोसन । हमें बहुत तंग करती है तुम्हारी बहन । सिर दर्द मे लेटी है तुम्हरी पत्नी .

Friday, August 8, 2008

रामसेतू विवाद और कंब रामायण

राम सेतू विवाद के निपटारे के लिए हाल ही में केंद्र सरकार को अचानक साहित्‍य की शरण में जाना पडा. सुप्रीम कोर्ट में तमिल में मूल रूप से लि खे गये कंब रामायाण को उद्वत किया गया. इसी कंब रामायण का हिंदी अनुवाद बिहार राष्‍ट्रभाषा परि षद द्वारा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है. इसका अनुवाद एनवी राजगोपालन ने किया है. साहित्‍य सदा से ही समाज व राष्‍ट्र का पथ प्रदर्शक रहा है. हमारे कई साहित्‍यमनीषीयों ने अपने अनुभव व ज्ञान से कई ऐसी प्रेरक रचनाएं प्रस्‍तुत की है जिनका अध्‍ययन व अवलोकन हमें सत्‍य के मार्ग पर आगे बढने में सहायता पहुंचाता है. महापंडित राहुल सांस्‍क़त्‍यान ने तिब्‍बत व हिमालय की पहाडियों में घूम घूम कर विपूल साहित्‍य एकत्रित किया, वह भी पटना म्‍यूजियम में सुरक्षित है. उनके द्वारा रचित मध्‍य एशिया का इतिहास का भी प्रकाशन बिहार राष्‍ट्रभाषा परि षद द्वारा किया गया है. 1956 में इस पुस्‍तक को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार भी मिला है. आज इतने महत्‍वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन करने वाले संस्‍थान की हालात कैसी है, इसे देखकर हिंदीसेवी व प्रेमियों की आंख भर आ सकती है.नौकरशाही व राजनीति की छाया से यह अबतक मुक्‍त नहीं हो पायी है. तीन वर्षो से इस संस्‍थान द्वारा पुरस्‍कार वितरण साहित्‍यकारों के बीच नहीं किया गया है. साथ ही, इसके ज्‍यादातर पुरस्‍कार हमेशा विवादों के केंद्र में रहे है. मानव संसाधन विकास व‍ि भाग बिहार सरकार को इसकी कोई चिंता नहीं. इस संस्‍थान को महापंडित गोपीनाथ कविराज जी की कई क़तियों के प्रकाशन का गौरव भी हासिल है. आज जो हिंदी हम प्रयोग में लाते है उसमें प्रस्‍तुत प्रथम गद्य रचना पं सदल मिश्र द्वारा रचित नासिकेतोपाख्‍यान के प्रकाशन का भी गौरव इस संस्‍थान को है. इस रचना की मूल प्रति आज भी इंपीरियल लाइब्रेरी लंदन में अंग्रेजों द्वारा सुरक्षित रखी गयी है. प्रसिद्व आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने भी इसे आधुनिक हिंदी के करीब होने वाली पहली रचना माना है. जब विकास प्रिय सरकारों का ध्‍यान अपने समाज के साहित्‍य संस्‍क़ति की सुरक्षा की ओर नहीं जाता है तो यह जिम्‍मेवारी समाज को स्‍वयं आगे बढकर उठानी चाहिये. आखिर कब तक सरकार को दोष देकर हम बचने का प्रयास करते रहेंगे. साहित्‍य के पहरूओं को अपने अपने प्रदेशों के हिंदी सेवी संस्‍थानों की भी खोज खबर लेनी चाहिये.

08/08/08 का चक्‍कर व मीडिया

हद हो गयी, अब बस भी करो, ये क्‍या है आम आदमी के बीच ज्ञान बांटा जा रहा है या हमारे मनीषियों, साधकों द्वारा वर्षो साधना कर प्राप्‍त किये गये ज्‍योति षय ज्ञान का बंटाधार किया जा रहा है. शाम होते ही हमारे घूमंतु मित्रों ने जाने कहां कहां से चक्रवर्ती ज्ञानियों को पकडकर ले आये, और शुरू होगयी बहस 08/08/08 के समान अंकों के कारण ये होगा, आप ये न करे, आप वो न करे, मानो कयामत टूट पडने वाली हो. ज्ञान को भय का साधन न बनाओं, अब बस भी करो. माना कि भारत भूमि ज्ञानियों से अटी पडी है, ज्‍यादातर लोग पढे से ज्‍यादा सुने पर विश्‍वास करते है, जब आप ब्राह़ांड की घूमती तस्‍वीर के साथ अनर्गल बातें बतायेंगे तो लोगों का दिमाग चक्‍कर में पडेगा ही. ऐसी बात नही कि ये सभी ज्ञान व जानकारियां सिर्फ विद्वतजनों के लिए ही सुरक्षित रहनी चाहिये, हम तो कहते है इसे सब को जानना चाहिये, किंतू क्‍या इस तरह से भय व मानसिक विक़तियों को परोश कर. बहुत अच्‍छा लगा जब किसी ने देश के प्रसिद्व ज्‍योि‍तषविद बेजान दारूवाला से चंद मिनटों की बातें लगे हाथ कर ली. उन्‍होने बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट कहा कि बेखौफ होकर,ईमानदारी पूर्वक अपना कार्य करें,घबराने की कोई जरूरत नहीं है. उन्‍होने कहा कि इस अंक के कमाल से भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है, भय हो तो मात्र दस फीसदी. किसी बात को बिना समय गवायें लपक लेने वाली मीडिया बस यही आकर गच्‍चा खा जाती है, किसी व्‍यक्ति के जीवन में जितनी महता प्रेम की है, उतनी ही भय की भी. नमक का प्रयोग तो खाने में अवश्‍य होता है किंतू ज्‍यादा नमक युक्‍त भोज्‍य पदार्थ किस प्रकार उच्‍च रक्‍तचाप को नि‍मंत्रण देता है इसका भी ख्‍याल रखना चाहिये. देश के सभी विजुअल चैनल जब एक साथ एक वि षय पर लगातार हाय तौबा करने लगे तो अचानक यह बात समझ से परे हो जाती है कि आखिर इस वि शेष ज्ञान का क्‍या मतलब है. देश में कई समस्‍याएं है. जम्‍मू कश्‍मीर भूमि के मामले को लेकर जल रहा है, विभिन्‍न प्रदेशों में आतंकी घटनाएं बढ गयी है. राजनीतिक दल अपने अपने स्‍वार्थो में लिप्‍त है. मंहगाई की मार से आम आदमी की कमर टूट रही है. पडोसी हमारी गतिविधियों पर नजर गडाए बैठा है, हम है कि इनसे दूर ग्रहों के मिलने व उसके पर‍ि णाम को लेकर चितिंत है. इस चिंता को दूर करने के साधन होने चाहिये किंतू इसका खुलासा ऐसे तो न हो कि आम आदमी भय के मारे अधमरा हो जाये.

Friday, August 1, 2008

मीडिया में आज भी हासिए पर है साहित्‍यकार

प्रिंट व इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में समान रुप से साहित्‍य व साहित्‍यकार हासिए पर ढकेले जा रहे है. प्रिंट मीडिया तो थोडी बहुत इज्‍जत बचाने के लिए साहित्‍यकारों की पुण्‍यतिथि व जन्‍मतिथि को स्‍थान भी उपलब्‍ध करा देता है किंतू इलेक्‍ट्रानिक मीडिया तो इससे परहेज करने में ही अपनी चतुराई समझता है. 31 जुलाई को ख्‍यात साहित्‍यकार प्रेमचंद की जंयती थी, साथ ही उसी दिन गायकी के बेताज बादशाह मो रफी पुण्‍यतिथि भी. प्रिंट मीडिया ने तो थोडा बहुत स्‍थान दोनो महानायकों को दिया किंतू इलेक्‍ट्रानिक मीडिया यहां भी डंडी मार जाने में भलाई समझी. क्‍योकि मो रफी को याद करने के बहाने गीत व संगीत के रुप में दर्शकों को मनोरंजन परोसा जा सकता है किंतू प्रेमचंद इसके लिए बिल्‍कुल ही अनुपयुक्‍त साबित होते है. वैसे भी प्रेमचंद पर मीडिया कवरेज के लिए भारी मशक्‍त करने की जरूरत हो सकती है. हद तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता व हिंदी में महत्‍वपूर्ण योगदान देने वाले व्‍यक्तित्‍व चाहे वह प्रेमचंद हो, प्रताप के संपादक रहे बलिदानी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हो, या अंग्रेजी हुकूमत से जुझने वाले माखनलाल चतुर्वेदी, पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा इन्‍हें याद करने की फुसर्त किसे है. संयोगवश पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा की 81 वीं पुण्‍यतिथि 23 जुलाई को थी. उनके बारे में तो नयी साहित्यिक पीढी को शायद बहुत कुछ मालूम भी नहीं है. साहित्य सेवियों की नयी पौध को शोध व अपने पुर्वजों के बारें में जानने की फुर्सत भी नहीं है. साहित्यसेवियों को मीडिया द्वारा व्‍यापक फलक तब प्रदान किया जाता है जब उन्‍हें बुकर पुरस्‍कार या अन्‍य उल्‍‍लेखनीय पुरस्‍कार प्रदान किये जाते है. जैसे ये पुरस्‍कार इस बात के मानक बन चुके है कि उन्‍हें चर्चा के लिए कितना स्‍थान दिया जाना है. मो रफी को तवज्‍जों दिये जाने से मेरी कतई मंशा नहीं है कि उनका सामाजिक अवदान कम है या उन्‍हें कमतर स्‍थान मिलनी चाहिये. साहित्‍यकार अपने समय व समाज का प्रतिनिधि होता है. उसे भूलकर हम सिर्फ मनोरंजन के द्वारा अपने समाज को किस मार्ग पर ले जाना चाहते है यह तय करने की जरूरत है. द़श्‍य व श्रव्‍य माध्यम से आज की युवा पीढी ज्‍यादा प्रभावित हो रही है. पढने की आदत छूटती जा रही है. इस आदत के कारण मीडिया में वह मांग नहीं पैदा हो पा रही है, जिस कारण पुस्‍तकों की महत्‍ता पुर्नस्‍थापित हो सके. यह अलग बात है कि इतने सारे अवरोधों के बावजूद हिंदूस्‍तान के किसी भी शहर में पुस्‍तक मेलों का आयोजन हो, भीड खींची चली आती है. यह स्‍वत र्स्‍फूत भीड होती है. यहां कोई ग्‍लैमर नहीं होता. भीड में वेद, भाष्‍य के साथ ओशों के भी पाठक होते है, वही ज्ञान विज्ञान, साहित्‍य, पाक कला, मनोरंजक पुस्‍तकों के रसिक भी होते है. इन्‍हें मीडिया की चमक दमक की जरूरत
नहीं पडती.