इस देश में ज्ञान विज्ञानं की कई दुर्लभ पुस्तके यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं , उन के गुणग्राहक भी कम होते जा रहे हैं, उनकी उपलब्धता तो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। हिंदी पट्टी में इस मिजाज की शुरु से कमी रही हैं। लोग संग्रह करते नहीं, दुर्लभ पुस्तके हो तो उसकी चर्चा नहीं करते, किसी गुणग्राहक को उपलब्ध करना तो मुश्किल ही हैं। अंग्रेज इस मामले में हमसे आगे रहे हैं । उन्होंने कई महत्व की चीजे पहले ही संग्रह कर ली और उसे अपने देश ले गए। कुछ तो अनुवाद के साथ प्रकाशित भी किये। अभी कल की बाट हैं, नेपाल के राजप्रसाद में संगृहीत कालिदास रचित देवी स्त्रोत देखने को मिली। भगवती के श्री मुख से स्वयम की स्तुति वंदना। एक श्रद्धालु ने इसे प्रकाशित करा कर निशुल्क वितरित किया। पता चला कई विद्वानों ने नेपाल से निकल कर इस सामग्री के भारत-- बिहार आने के बाद साऊथ में ले कर चले गए थे जहा इसमें कुछ तथ्य जोड़ कर उसे प्रकाशित कराया था। बाद में वह भी मिलना मुश्किल हो गया । दावा किया गया की यह दख्खनमें पहले से उपलब्ध हैं। खैर, हम तो उस की प्राचीनता और उसकी उपादेयता को ले कर चिंतित हैं , क्या ऐसी दुर्लभ सामग्रियों को भारत में धुल ही खाना नसीब होता हैं। हमारे पेड़ पौधे, खाद्दान, परम्पराए सब पर जब तक पश्चिम की मुहर नहीं लगे, तब तक क्या वह महत्व की नहीं हैं। लाईब्रेरियो में बिखरी ऐसी सामग्रियों का कोई कद्रदा नहीं मिलता। सरकारी संस्थाए पैसे और अवार्ड की लुट खसोट में जुटी हैं । आखिर कब तक हमारी रगों में अपनी विरासत के प्रति ऐसा ठंडापन रहेगा। मैंने अपनी आँखों तीसरी से लेकर ९ वी शताब्दियों तक के भारतीय विद्वानों द्वारा लिखित भाष्य, टीका, पुस्तके देखी हैं। जिनके नाम भी सुनने को नहीं मिलते। कई पुस्तके तो तत्कालीन अंग्रेज अफसरानो द्वारा जिलो में तैनाती के दौरान संगृहीत की गयी और उसे अंग्रेगी अनुवाद के साथ प्रकाशित की गयी। उनके भी खस्ता हाल हैं । क्या हम ज्ञान को ले कर इस ज्ञान युग में दुसरो पर आधारित रहेंगे। बिहार के कई गाव आज भी हैं जहा १२ वी सदी की दुर्लभतम पुस्तके जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं। देश में सरकारे घपलो घोटालो में जुटी हैं। नैतिक पतन पराकाष्ठा पर हैं। दिखावे की दुनिया अजब तेरी रीत, गजब तेरी प्रीति। इंटेर नेट के युग में भाषाए तो लुप्त हो ही रही हैं हमारे अमूल्य ज्ञान भी खोते जा रहे हैं। वे लोग जिन्होंने अथक साधना के बाद दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति की, उसे जन सामान्य के लिए सुलभ कराया , हम उसकी कद्र न कर सके।
फंतासिया गढ़ते रहे, रोजमर्रा की सामने थी दुश्वारिया -- न वो समझ सके न हमें समझ हुई ।
Wednesday, April 4, 2012
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