Thursday, April 29, 2010

शब्दों के खेल विचारो की जमघट, शुचिता गोल

इन दिनों मिडिया में होती प्रिंट की भूल से या वाचन में भूल से उत्पन्न स्थिति को लेकर इंटर नेट पर शब्दों के खेल का दुखद अध्याय चल रहा हैं। इस में पत्रकारिता जगत के लोग जुड़े हैं। समय की किल्लत और टीआरपी की आपा धापी में अब कितना और स्तर गिरेगा इसे समझना मुश्किल है। क्यों इस बात को भूल जाते है कि अछर -गलत प्रिंट हो रहा है -को ब्रम्ह कहा गया है शब्द उस ब्रम्ह से निरसित अंश है। कई शब्द मेरे भी गलत छप जाते हैं। कई बार कोफ्त होता हैं, लेकिन यहाँ मुझे कम्पूयटर कि कम जानकारी के कारण होता हैं । लेकिन जब अखबार व् चैनल में बड़े बड़े पैकेज पर कार्य करने वाले, विद्वान अधिकारी इसे नहीं सुधर पाते तो क्या मशीन मैनसे या ओपरेटर से उम्मीद की जाये। शब्दों के प्रयोग के पूर्व क्या हमारी जिम्मेवारी नहीं बनती। क्या हम भूल गए पुरानी कहावत पानी पीजिये छान के, वाणी बोलिए जान के। बंद करे इस प्रकार से शब्दों की अश्लीलता व शीलता पर बहसे , इसकी शुचिता पर विचार करिए।

Tuesday, April 27, 2010

पत्रकारिता में विचारहीनता का बढ़ता खतरा

मूल्यपरक पत्रकारिता बाजारवाद व् उपभोक्तावाद के आगे दम तोडती नजर आ रही हैं। विचारहीनता का इतना बड़ा संकट फिजा में हैं जिसके फलस्वरूप समाज का वास्तविक स्वरुप नष्ट हो रहा हैं। प्रतिदिन प्रयोग के नाम पर भोंडी बातो को मिडिया तव्वजो दे रहा हैं। पैसे का खेल न सिर्फ राजनीति, क्रिकेट बल्कि मिडिया के विकेट भी डाउन कर रहा हैं। आपके मौलिक विचारो को मिडिया में स्पेस मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव सा होता जा रहा हैं। समाज के दबे, पिछड़े, अल्पसंख्यक व् आदिवासियों को तभी जगह दी जाती हैं जब वोट की बात हो, वे अपने हाथ में हथियार उठा ले या संघर्स के दौरान हताश हो कर आत्महत्या को मजबूर हो जाये। आपकी आवाज को इतना संगठित तरीके से कुचल दिया जाता हैं कि आपको उसका एहसास भी नहीं होता। प्रायः यह कह कर अपनी विश्वसनीयता को बचे रखने का उपक्रम किया जाता हैं कि देखीय खबरों का असर हो रहा हैं। जब आपके ऊपर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता हैं तब उलटे सीधे प्रयोग शुरू हो जाते हैं। नियूज रूम में इतने खुरात लोगो कि भरमार हो गयी हैं कि वे अपने आगे किसी को पल भर के लिए सुनने को तैयार नहीं हैं। क्या आप आज के किसी नौजवान को अपने विचारो के साथ आगे बढ़ने देने कि कल्पना कर सकते हैं। क्यों नहीं शशि थरूर व् आईपीएल वाले मोदी जैसे लोग आनन् फानन में पैसे कमाने कि जुगत भिड़ाने में अपनी उर्जा नष्ट करे। अखबार व् सिनेमा हो या संचार क्रांति के अन्य विविध उपकरण क्या अपनी उपयोगिता समाज के व्यापक हित में प्रमाणित कर पा रहा हैं इसे सिर्फ एक तरफा विचार मानकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता । आज भारत में ब्लड प्रेसर मापने कि कोई अपनी तकनीक नहीं हैं, विदेशी तकनीक पर आधारित मशीनों से हम अपने स्वास्थ्य को मापते हैं, दवाए उनके अनुसार ही खाते हैं, हमारी अपनी पूरी प्रणाली ही ध्वस्त हो चुकी हैं। हम हैं कि गौरव गान में ही लगे हैं। कोसी के पीड़ित, कालाहांडी के किसान, नार्थ इस्ट के मेहनती लोगो कि पीडाए हमें नहीं दिखती। लोग नकली सामानों के उपयोग के लिए मजबूर किये जा रहे हैं, बिना भ्रटाचार कि भेट चढ़े कोई कम नहीं होता, मानसिक रूप से विछिप्त पैदा हो रहे हमारे युवा को किसी दिशा का ज्ञान तक नहीं हो पा रहा । वे अपने स्वार्थ कि खातिर कुछ भी कर गुजरने को बेहतर मान ले रहे। मिडिया व् इसके माध्यम से रोजी रोटी पाने वालो को सजग होने कि जरुरत हैं.

Wednesday, April 21, 2010

आईपीएल व् बीपीएल पर भाजपा ने केंद्र को घेरा

आईपीएल के मुद्दे पर केंद्र सरकार का एक विकेट लेने के बाद अब भाजपा ने बीपीएल के लोगो के लिए मुसीबत बनी महंगाई को लेकर कांग्रेस को घेरने की कवायद शुरू कर दी हैं। आईपीएल ने खेल के नाम पर दौलत , ग्लैमर व् एयासी की जो तस्वीर देश के सामने रखी हैं उसका मिसाल मिलना मुश्किल हैं । भूख,गरीबी, अशिछा से जूझ रहे भारतवासी, नक्सलवाद से लड़ते हमारे जाबांज सिपाही क्या सोचते होंगे। हमारे राजनेताओ ने कैसे कैसे तरीके इजाद कर रखे हैं दौलत अर्जित करने के। और तो और मंत्रिमंडल से हटाये गए विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने यह कह कर की वे अभी भारतीय राजनीति में बच्चे हैं, पुरे देश को शर्मशार कर दिया। उन्हें विदेश मंत्री बनाकर किसने अंतराष्ट्रीय राजनीति में धकेल दिया। भाजपा को लगे हाथ एक मौका भले ही मिल गया लेकिन गंभीरता से विवेचना हो तो कई लोगो के नाम सामने आ सकते हैं। आईपीएल सहित देश में खेले जा रहे क्रिकेट के सभी मैचो की जाच करायी जानी चाहिए। यह पैसे उगाही के खेल में पूरी तरह से तब्दील हो चूका हैं। हमारे राजनेता राजनीति में खेल भावना को भूल कर खेल में राजनीति की शुरुआत कर चुके हैं। इनकी गीध दृष्टि से समाज का शायद ही कोई अंग आछूता रह गया हो। महंगाई सिर्फ भाषण व् प्रदर्शन का मुद्दा भर बन कर रह गयी हैं ।

Saturday, April 10, 2010

नक्सलवाद से निबटने को तैयार हो देश

नक्सलवाद की भीषण समस्या से निबटने के लिए देश के हरेक नागरिक को तैयार होना चाहिए। यह आयातित विचारधारा देश को घुन की तरह चाट रहा हैं। हमें यह सोचना होगा की आखिर भूख व् गरीबी से निबटने की जगह आखिर कबतक देश के अन्दर सामाजिक बदलाव की हिंसक प्रवृति को झेलते रहेंगे। क्या इस देश ने बिनोबा के भूदान से सीख नहीं ली जब बड़े बड़े भूपतियो ने अपने गरीब भूमिहीन भाइयो के लिए सहर्ष भूमि का दान कर दिया। यह बेहद शर्मनाक हैं की अभी तक कई राज्यों में उन भूमियो का सही तरीके से वितरण तक नहीं किया गया। बिहार के राजनितिक इतिहास में एक वह भी घटना दर्ज हैं की कैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक स्वतंत्रता सेनानी ने अतरिक्त भूमि पर अपने संघर्ष की दुहाई देते हुए कब्ज़ा करने का पहला हक़ करार दिया। सरकारी योजनाओ में मची लूटपाट की, गरीबो की हकमारी की लम्बी दस्ता हैं । आज नक्सलवाद स्वय में भस्मासुर बन चूका हैं। गरीबो की हक़ की बात करते हुए , उन इलाको के बच्चो की स्कुल भवनों को उड़ने में लगा हैं। कैसे स्वयं सहायता समूह के नाम पर माइक्रो वितीय प्रोग्राम किसानो को आत्महत्या पर मजबूर किये हुए हैं इस पर भी विचार करने की जरुरत हैं। थोडा ठहर कर सोचे मासूम बच्चो को हथियार उठाकर अपने ही देश की पुलिस से वे संघर्ष कर रहे हैं। उनके खून के प्यासे बने हुए हैं। राह से भटके अपने देश वासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए हमें हर संभव उपाय करना होगा। नितीश कुमार की यह टिपण्णी की गृह मंत्री पी चिदम्बरम को काम ज्यादा बाते कम करना चाहिए, बेतुका सलाह हैं। वे नक्सल इलाको में जिस प्रकार से सबको लुट में हिस्सेदार बनाकर अपनी इमेज बिल्डिग में लगे हैं वह शोभा नहीं देता। न तो उन इलाको में सड़क पहुची हैं न ही कोई रोजगार के साधन व् अवसर उपलब्ध कार्य गए हैं। बिजली तो पुरे बिहार की समस्या हैं। यह ठीक ही हुआ की मिस्टर चिदंबरम के इस्तीफे की पेशकश को प्रधान मंत्री ने ठुकरा दिया। नितीश कुमार का यह कहना की कानून तोड़ने पर उनपर कारवाई हो, बेतुकी बात हैं। हमें हथियार के बल पर उनके दादागिरी को तोडना होगा। साथ ही साथ उनके दिलो को भी जितने का कार्य करना होगा। जखम बहुत गहरा हैं, जरा संभल कर निर्णय करे।