Saturday, June 21, 2008

साहित्यिक संस्‍थाओं की खस्‍ताहाल स्थिति,कैसे होगा सुधार

हिंदी पटटी में हिंदी साहित्‍य के विकास के लिए गठित सरकारी व गैर सरकारी संस्‍थाओं की खास्‍ताहाल स्थिति के प्रति न तो हिंदी सेवक व पाठक और न ही सरकार व हिंदी साहित्‍य के प्रकाशन संस्‍थाओं की ही कोई रूचि रह गयी है.बहुमूल्‍य साहित्यिक सामग्रियों को यू हीं नष्‍ट होते देख कर किसी भी सुह़दय हिंदी पाठक का कलेजा कांप जाएगा. हिंदी का भंडार भरते-भरते न जाने कितने लेखक,पत्रकार गुमनामियों के अंधेरे में खो गये, न जाने पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए उन्‍होने कितनी यातनाएं झेली होंगी, कष्‍ट उठाये होंगे, अंग्रेजी हुकूमत की दुश्‍वारियों को झेला होगा, इसे कोई देखने व समझने वाला नहीं है.हद तो यह है अब नये भडकदार कलेवर में छपने वाली साह‍ित्यिक साम्रग्रियों के सामने पुरानी सामिग्रिया तुच्‍छ लगती है. खासकर, बिहार के हिंदी साहित्यिक संस्‍थानों पर नजर दौडाएं तो यह कहना बेमानी लगता है कि बिहारवासी देश के हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के सबसे बडे पाठक है या देश में सबसे अधिक साहित्यिक सामग्रियां बिहार में ही पढी जाती है. ऐसे पठन पाठन का क्‍या मतलब जब हम अपनी बहुमूल्‍य संपदा को संभाल पाने में असमर्थ हो. पटना स्थि‍त बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद में अपने समय की मशहुर पत्र-पत्रिकाओं यथा मतवाला, माधुरी, साहित्‍य सम्‍मेलन पत्रिका, चांद, हिंदू-पंच, मर्यादा, चैतन्‍य पंचडिरा, बालक जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति बदतर है. इन्‍हें देखने वाला कोई नहीं है. यह सरकारी संस्‍था है. हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन राजनीति का अखाडा बना हुआ है. उसके परिसर में साहित्‍यक कार्यक्रम बस जयंती व पूण्‍य तिथि के आयोजन तक स‍ीमित हो कर रह गया है. इसके खाली पडे परिसर का उपयोग किराये पर मेले- ठेले के आयोजन से प्राप्‍त होने वाली धन उगाही के लिए किया जा रहा है. बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी से नये प्रकाशन के कार्य बंद हो चुके है. सरकार ने 75 वर्षीय वयोव़द्व हिंदी प्राध्‍यापक प्रो रामबुझावन सिंह को बिहार राष्‍ट्रभाषा परिष्‍द व अकादमी का निदेशक बना रखा है, हद तो यह है कि उन्‍हें जब से पदस्‍थापित किया गया है यानि पिछले 14 महीनों से एक फूटी कौडी तक नहीं दी गयी है. उन्‍होने एक मुलाकात में बताया कि संस्‍थान में 40 कर्मचारी है जिनमें 18 चतुर्थवर्गीय कर्मचारी, व शेष्‍ा में टंकक व शार्टर व अन्‍य त़तीय वर्गीय कर्मचारी है. उनका काम बस परिसर में लगे ताड व खजुर के व़क्षों की व्‍यवस्‍था करना भर रह गया है. निजी साहित्‍यक संस्‍थाएं अपने बलबूते पर कुछ करने के लिए प्रयास करती है जो कि पर्याप्‍त नहीं है. कई ऐसे साह‍ित्‍यकार ऐसे है जिनके परिजनों के प्रयास से कोई कार्यक्रम नहीं हो तो उन्‍हें बाद में याद रखना भी नई पीढी के लिए मुश्किल हो जायेगा. यह स्थिति कमोबेश न सिर्फ बिहार में है बल्कि अन्‍य प्रांतों में भी है. ऐसे में हमें ठहर कर हालात पर गौर करना होगा. एक ओर ख्‍यात हिंदी सेवी अमरकांत बिमार पडते है तो उन्‍हें राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में कोई पुछने वाला नहीं होता तो दूसरी ओर बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह बिमार पडते है तो उन्‍हें कोई देखने वाला नहीं सामने आता. यह दुर्गति पहले भी हुआ करती थी आज भी देखने को मिल रही है. क्‍या इसका कोई सामाधान है. विचारें और हमें भी मागर्दशन दें.
कौशलेंद्र मिश्र

Tuesday, June 17, 2008

आम जनता के प्रति कितनी जबाबदेह है हिंदी पत्रकारिता

आज मैं आप सभी ब्‍लॉगरर्स व रीडर्स के समक्ष हिंदी पत्रकारिता के मौजूदा दौर व उसके प्रति आम लोगों के नजरिये पर बात करना चाहता हूं. आखिर हिंदी पत्रकारिता आम जनता के प्रति कितनी जिम्‍मेवार है, व्‍यावसायिकता का समावेश उसे किस कदर जनता से दूर करती जा रही है. क्‍या यह सचमुच में पत्रकारिता है या कुछ और....... हमें यह ध्‍यान रखना होगा कि लोकतंत्र का इसे चौथा स्‍तंभ कहा जाता है. मीडिया सरकार व जनता के बीच एक महत्‍वपूर्ण कडी है. यह एक सॉकआब्‍जरबर की तरह कार्य करता है, इसके लचीलापन के खो जाने से इसकी महत्‍ता भी नष्‍ट हो जाती है. सरकार व जनता के बीच संवाद का यह माध्‍यम तो है ही साथ ही दोनो को अपने अधिकार व कर्तव्‍य के प्रति जागरूक भी करती चलती है. यह ठीक है कि पत्रकारिता के नये दौर में बडी बडी मशीनों व उपकरणों की जरूरत पडती है. इसके संसाधनों पर लाखों खर्च होते है. इस क्षेत्र में पूंजी लगाने वाले को जनसेवा के साथ ही मेवा बटरोने की भी उम्‍मीद होती है. तो प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या यह मेवा आम जनता के हित अथवा राष्‍ट्रहित को तिलांजलि देकर हासिल की जा सकती है. क्‍या ऐसी पत्रकारिता को समाज स्‍वीकार करेगा. नहीं करेगा तो फिर लाखों की पूंजी के डूबने का भी खतरा सामने हो सकता है. जाहिर सी बात है अंतिम अस्‍.त्र जनता के पास सुरक्षित है. यहां यह ध्‍यान देने योग्‍य है कि जनता स्‍वयं में एक परिपूर्ण शब्‍द है. यह व्‍यक्तियों का वैसा समूह है जो शांति व सह अस्तित्‍व में विश्‍वास करता है. इसे अपने स्‍व नुकसान की बेहतर समझ है. हम चाहे लाख किसी को दोष दे दे किंतू यह भी उतना ही बडा सत्‍य है कि आम जनता को भूल कर न तो किसी उत्‍पाद की बिक्री की जा सकती है, न कोई विचारधारा या राजनीति पनप सकती है और न ही कोई संगठन ही संचालित की जा सकती है. ऐसे में हमें जागरूक करने वाली माध्‍यम मीडिया या समाचार पत्र की भूमिका महत्‍वपूर्ण है. व्‍यावसायिक घरनों के प्रकाशन के क्षेत्र में आने से भले ही मीडियाकर्मियों पर व्‍यावसायिक दबाब बढा है,खबरों की आपाधापी में नैतिकता व अनैतिकता का भेद मिटता नजर आ रहा है लेकिन आज भी सच्‍चाई व शुचिता के साथ ही मीडिया खडा है. एक पुराना दौर भी था जब न तो बडे प्रकाशन समूह थे न खुर्राट व घोर व्‍यावसायी मीडिया वाले. छोटे से कमरे में दो चार लोग आपस में मिलकर ही हिंदी के फॉन्‍ट ठीक करते थे.मशीन मैन उसे छाप दिया करता था. संपादक व लेखक दिनरात मेहनत कर आम जनता की आवाज बनने की कोशिश करते थे. उनके भीतर समाज की बेहतरी के लिए कुछ कर गुजरने का जज्‍बा हुआ करता था. राष्‍ट्रहित में वे स्‍वयं को नियोच्‍छावर करने के लिए तत्‍पर रहा करते थे. आज का भी एक दौर है जब पलक झपकते ही दूनिया के किसी भी कोने में घटने वाली घटना पुरी जानकारी के साथ,तस्‍वीर के साथ आपके सामने होती है.
समाज में जबतक अच्‍छे लोग होंगे, कुछ कर गुजरने का माददा रखने वाले लोग होंगे, हिंदी पत्रकारिता अथवा किसी भी भाषा की पत्रकारिता हो उसके प्रति समर्पित मीडिया कर्मी होंगे तब तक वह सच्‍चाई व शुचिता के साथ खडी रहेंगी, घूटने नहीं टेकेगी. इस संबंध में मेरे निजी विचार से आप असहमत भी हो सकते है,साथ ही इस बारे में अपने विचार व भावनाओं से आप अवगत करा सकते है.

Friday, June 13, 2008

पत्रकारों पर हो रहे हमले,दोषी कौन

आज पत्रकारों पर दिनों दिन हमले बढते जा रहे है, इसके लिए मूल रूप से किसी को दोषी ठहराये जाने से अच्‍छा है कि इस पुरे मुददे पर विस्‍त़ार से बात चीत की जाए
' कई बार हमें लगता है कि समाज में घटती सहनशीलता के कारण ऐसा हो रहा है लेकिन इससे भी इतर कई कारण हो सकते है.' भूमंडलीकरण व बढती व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्द्वा ने मीडिया व आम जनता को एक दूसरे का पुरक न बनाकर विरोधी बना दिया है' मीडिया का सामान्‍य जीवन में हस्‍तक्षेप बढा है, वही जनता अब सब कुछ जानने व समझने के लिए मांग करने लगी है'. सूचना क्रांति के युग में सूचना की मांग हर ओर से हो रही है'वही दूसरी ओर चाहे हम माने या ना माने ऐसा है कि पत्रकारिता के समक्ष मूल्‍यविहीनता का संकट खडा हो गया है. समाज का हर तबका चाहे व्‍यवसायी हो या राजनेता, नौकरशाह हो या पुलिस सब ये मान कर कार्य कर रही है कि उनके बिना समाज की कल्‍पना नहीं की जा सकती तथा उनकी उपयोगिता इस लिए है कि शेष सभी उनकी हां में हां मिलाये. हाल के दिनों में चाहे व अफगानिस्‍तान में बीबीसी संवाददाता के उपर किये गये हमले की घटना हो या बिहार की राजधानी पटना के ख्‍यात पटना मेडिकल कॉलेज अस्‍पताल में पत्रकारों को खदेड कर डाक्‍टरों द्वारा पीटे जाने की घटना सब यही बयां कर रही है कि कोई आज अपनी स्थिति से थोडी बहुत भी पीछे नहीं हटना चाहता. अमेरिका तानशाही करे, या तालिबानी अत्‍याचार, डाक्‍टर इलाज व जनसेवा की शपथ लेकर पिस्‍तौल गोली चलाने लगे उन्‍हे लगता है कि वे ही अपनी जगह सही है बाकि का पुरा मीडिया जगत अंधेरे में जी रहा है. मेरे ऐसा कहने के पीछे यह मकसद नहीं कि मीडिया के सभी कार्य साफ सुथरे है. मीडिया की भी आलोचना होनी चाहिये. समाज के अंतस्‍थल से विचार आने चाहिये. मीडिया को अपने भीतर झांक कर मूल्‍यांकन करना चाहिये. जिस प्रकार समाज के सभी वर्गो में हताशा, स्‍पर्द्वा, घ़णा बढी है, तनाव बढा है, संघर्ष करने की क्षमता घटी है वैसे ही मीडिया भी इसका शिकार हुआ है. हम अक्‍सर ऐसा सुनते है कि फलां तो गडबड था लेकिन मीडिया को ठीक होना चाहिये था. ऐसा कहकर हम क्‍या कहना चाहते है कि बाकी सब चोर हो जाए और मी्डिया साधुता प्रद्वर्शित करते रहे. नही ऐसा कदापि नहीं हो सकता. हमे गलत को गलत व सही को सही कहने की आदत डालनी होगी. थोडी देर के लिए जो अच्‍छा प्रतीत हो रहा हो उसे समाजहित में हमेशा के लिए अच्‍छा नहीं कह सकते. हमें उसकी पहचान करनी होगी कि अमूक घटना या विचार अपने आप में कितनी सार्थकता लिए हुए है. हमें अपने प्राचीन गौरव को याद करना होगा कि क्‍या इसी के लिए हमें स्‍वतंत्रता मिली थी, इसके लिए ही बलिदानों ने अपनी आहुति दी थी.