Saturday, January 10, 2009

मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल

हिंदी पत्रकारिता अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. सारे सिद्वांत व नियम बाजारवाद के आगे नतमस्‍तक हो गये है. दिग्‍गज पत्रकारों को भी नही सूझ रहा कि आखिर इसका क्‍या समाधान होगा. स्‍टील, प्‍लास्टिक, आयल,फूड प्रोडक्‍ट की तरह ही बाजार हिंदी पत्रकारिता को अपने अनुरूप मोड रही है. ऐसा नही कि इससे मनोरंजन व सूचना से संबंद्व अन्‍य उद्योग जैसे फिल्‍म, टेलिविजन व संचार कंपनियां प्रभावित नही हो रही है. उनमें भी इसका खासा असर दिख रहा है. आम आदमी अपनी पहचान इनमें तलाशने की कोशिश कर रहा है. सावधान हो जाये, अगर एक आम आदमी गति मति बिगडेगी तो शायद उससे इतर खास आदमी प्रभावित नही होगा ऐसा नहीं है. समाज की एक कडी कमजोर होगी या टूटेगी तो दूसरा पक्ष निसंदेह प्रभावित होगा. खासकर, राष्‍ट्रीय मुददों पर हिंदी मि‍डिया के रूख्‍ा को समझना मुश्किल हो रहा है. पूरे तथ्‍य अब खुल कर सामने आ रहे है. चैनलों पर आतंकवाद के विरोध में भले ही चिल्‍लाकर अपनी प्रतिबद्वता को प्रदर्शित करने का दौर जारी है किन्‍तु यह भी सत्‍य है कि आम हो या खास मीडिया के रवैयें से स्‍वयं आतंकित है. उससे नही लगता कि मीडिया के पास जाकर किसी की समस्‍या का सामाधान ढुढा जा सकता है. चाहे अपराध की बात हो या ज्‍योतिषीय समाधान की यह समझ से परे है कि कैसे चंद मिनटों के प्रदर्शन के बाद किसी को भी कैसे खबर का असर प्राप्‍त हो सकता है. जब तक मूल समस्‍याओं को निबटाने को लेकर राष्‍ट्रीय नीतियों पर तीखे चोट करने,उसकी अच्‍छाईयों को जन जन तक प्रसारित करने की दिशा में कार्रवाई नही की जायेगी तब तक समस्‍याएं मुंह बाये खडी रहेंगी. आतंकवाद एक बडा मुददा है. यह पूरे देश को अपनी आगोश में लेने के लिए बेताब है. पडोसी मूल्‍कों से हमारे संबंध पुराने ढर्रे पर बने हुए है. इनकी लगातार समीक्षा होनी चाहिये. अटल जी ने क्‍या खूब कहा था कि हम नये नये दोस्‍त बना सकते है लेकिन पडोसी नही बना सकते. हमें अपने पडोसियों के सुख दूख उनकी समस्‍याओं में साझीदार होना सीखना होगा. मीडिया को इस दिशा में भी फोकस करनी चाहिये कि पडोसी मूल्‍कों में कौन कौन सी समस्‍याएं है. उनके समाधान की दिशा में अंतर्राष्‍‍ट्रीय प्रयासों को भी बल देना होगा. मीडिया एक ओर आम आदमी से आतंकवाद के विरूध खडे होने की अपील कर रहा है ऐसे में उसे आम आदमी के विश्‍वास को भी जीतना होगा. वैसे भी निजी प्रक्षेत्र के इलेक्‍ट्रानिक मीडिया की पहुंच मध्‍यम वर्ग में भी फिलवक्‍त शतप्रतिशत नही है. अखबारों को अपने तेवर में परिवर्तन लाने के पूर्व ठहर कर सोचना होगा कि बाजारवाद कही देश को पतन की गर्त में लेकर न चला जाये. हमें पश्चिमी मूल्‍कों में पूंजीवाद के विकास के दूष्‍परिणामों की ओर भी देखना होगा.

No comments: