Friday, February 19, 2010

प्रतिभा की नहीं हैं जरूत हिंदी पत्रकारिता को

हिंदी पत्रकारिता से आज के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी या शिवपूजन सहाय या नवजागरण काल के उल्लेखनीय कोई अन्य पत्रकार-साहित्यकार होते तो उन्हें आत्म हत्या कर लेना पड़ता। उनका पूरा जीवन प्रतिभाओ को सवारने में बिता, कई नये नये तथ्यों के अनुसन्धान में वे सफल रहे, सिर्फ स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ कर उनके योगदानो को कमतर नहीं किया जा सकता। मै एक बानगी देना चाहता हू। मेरे एक मित्र हैं, दो-दो विश्व विद्यालयों से हिंदी में गोल्ड मेडिलिस्ट हैं। बिहार में लेक्चररो की नियुक्ति में घोर अनियमित्ताओ के कारण तत्कालीन चयन लिस्ट में उन्हें झारखण्ड के लिए अनुशंसित किया गया। अंततः नियुक्ति नहीं हुई। कोर्ट केस का अंतहीन सिलसिला शुरू हैं। खैर, इस दौरान उन्होंने दैनिक अखबारों के लिए फुटकर रचनाये भेजनी शुरू की। जीविकोपार्जन के लिए एक अखबार से जुड़े भी। स्वयं को नबर एक खाने वाले उस अखबार की कार्यशैली ने उन्हें अपने रंग में ढालना चाहा। हार कर उन्हें नौकरी छोडनी पड़ी। अखबार में आठ दिनों के उनके अनुभव पर जब भी चर्चा होती हैं, तो लगता हैं की बाजार ने अखबारों व उनमे काम करने वालो की मानसिकता ही बदल दी हैं। वह दिन दूर नहीं जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हाय तौबा मचाने वाले स्वयं इस पर नियंत्रण की जरुरत महसूस करने लगेंगे। फिल्मो के लिए सेंसर बोर्ड, राजनेताओ के लिए आदर्श चुनाव संहिता तो पत्रकारों के लिए भी कड़ाई से निर्धारित नियमो व् आदर्श आचरण संहिता को लागु की जानी चाहिए। यह तय होना चाहिए की कौन सी खबर प्रायोजित हैं उसका उल्लेख हो। हिंदी की टांग तोड़ने वाले हिंदी अखबारों की खबर लेनी चाहिए।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

ओह ! हिन्दी पत्रकारिता का एक वह युग था एक आज का है। किसी को स्तरहीनता और पतन देखना हो तो हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास प।द ले।