अन्ना हजारे के सत्याग्रह को लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध राष्ट्र व्यापी माहौल बना हैं । यह एक दिन की पीड़ा नहीं , आजादी के बाद से गरीबी की चक्की में पिसते लोगो की भ्रष्टाचार ने कमर तोड़ दी हैं। टूटे हुए लोगो की पीड़ा से अन्ना की पीड़ा जा कर जुड़ गयी हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव, पूंजी का केन्द्रीकरण , राष्ट्रीयता की भावना का लोप कई ऐसी समस्याए हैं जो व्यक्ति के विकास में बाधक बने हुए हैं। भारत के राष्ट्रीय चरित्र में जिस प्रकार की गिरावट आई हैं वो शर्मशार करने वाला हैं। संसद की सर्वोचता को लेकर बेबजह बहस चलायी जा रही हैं। क्या इस देश में आम नागरिक या ग्राम पंचायतो की सर्वोचता को लेकर कभी विचार किया हैं। क्या हमारे लिए हमेशा बेघर, भूखे ,निहंग लोगो की आवयश्कता गैर जरुरी रहेगी। इस देश में लुट का खेल चलता रहे और लोग देखते रहे ऐसा कबतक चलेगा। अन्ना कोई नई या अनोखी बात नहीं कर रहे हैं वो तो सिर्फ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को आइना दिख रहे हैं । वे संसद में क्या करते हैं , उन्हें क्या करना चाहिए । क्या कोर्ट या जन दबाब के बाद ही सरकारे जगती रहेंगी । उनकी अपनी कोई जिम्मेवारी नहीं हैं । विरोधी दल के बाते राजनीतिसे प्रेरित मन ली जाती हैं । सत्ता सञ्चालन में विरोधी दल की भी प्रमुख भागीदारी होती हैं। आम आदमी भी गजट के प्रकाशन से सीधा सम्बन्ध रखता हैं । नहीं तो फिर जनता की राय लेने गजट के प्रकाशन का आखिर क्या मकसद हैं । मिडिया जो आज अन्ना के साथ चिल्ला रही हैं उसे भी अपनी गिरेबान में झाकना होगा। मंत्री जेल जाये और २ जी में शामिल मिडिया की हस्ती बाहर रहे ऐसा नहीं हो सकता। भ्रष्ट आचरण हमेशा निंदनीय हैं । सिर्फ फैशन के लिए सत्याग्रही होना और बात हैं । महात्मा गाँधी के समय भी जेलों में जा कर फाकते उड़ना और बरसाती मेढको की भाती सत्याग्रही बन जाने की बाते प्रमुखता से होती थी लेकिन सत्य की एक दिन जीत हुई लोगो के ह्रदय में महत्मा का जादू सर चढ़ कर बोला ...मोहन दास करमचंद गाँधी एक मिथक बन गये । अन्ना तो बस उनके अनुयायी हैं उनकी ताकत कई गुना बढ़ कर आम जन जीवन को प्रभावित कर रही हैं ऐसे में भला सरकार कैसे अप्रभावित रह सकेगी। भारत के लोग आशावादी होते हैं , वे जब जग गए तो फिर उन्हें सोने के लिए कहना शेर को छेड़ने के समान हैं ...
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