Monday, July 5, 2010

भारत बंद के आईने में मिडिया के सरोकार

आज देश भर में भाजपा सहित तमाम विरोधी दलो ने महंगाई के मुद्दे पर भारत बंद का आह्वान किया। दिन भर रात भर धोनी की शादी में भोपू बजने वाली मिडिया अचानक से जनसरोकार के मुद्दे प्रदर्शित करने लगी। तमाम बड़े विरोधी दल के नेता स्क्रीन पर नजर आने लगे। कल के अख़बार में भी ये छाये रहेंगे । महगाई अपने जगह पर रहेगी , हा नेता और मिडिया अपना बाजार बना लेंगे। यहाँ मिडिया को इतनी ही पीड़ा होती तो जनसरोकार के मुद्दों को हासिये पर नहीं फेक दिया जाता। आज आजादी के ६० वर्षो बाद जिन्हे आम आदमी के बतौर नामित किया जाता हैं उनकी सामाजिक राजनितिक हैसियत क्या बच गयी हैं इसे समझा जा सकता हैं। देश के कई प्रान्तों में पिने का साफ पानी मयस्सर नहीं, महिलाओ के शौच की सही व्यवस्था नहीं, पेट भरने को मुठी भर दाना नहीं तो महंगाई की मार उनपर कैसी होती होगी इसे समझ पाना क्या इतना मुश्किल हैं । घडियाली आंसू बहाने वाले नेता अपने गिरेबान में झाके। मिडिया अपने को लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा स्तम्भ मानती रहे , आम जनता का भरोसा उसपर नहीं रहा । कोई खबरे अब उन्हें चौकाती नहीं। ये कानून अब उनके लायक नहीं रहे । खेत मजदूरों को कार्पोरेट नेताओ की भाषा समझ नहीं आती। गाँधी इतिहास हो गए हैं, उनकी मान्यताये गीता पुराण की भाति किताबो में दर्ज हो कर रह गयी हैं। इन पुस्तकों को कम्पूटर भाषी संताने समझने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं । महंगाई को लेकर न तो सत्ताधीश न ही विरोधी कोई दीर्घ कालीन नीति तय करने की इच्छुक हैं । बंद ,विरोध, नित नये मूल्यों की घोषणा जनता के हिस्से में बस यही रह गयी हैं, सब अपनी अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं । जय हो , भारत माता की जय हो , तुम्हारी संताने , इस परिणति को पहुच जाएँगी इसे ब्रम्हा भी समझाने में असमर्थ हैं .

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