Saturday, December 27, 2008

मीडिया की मजबूरी या देश की जरूरत है युद्व

आज भारत पाकिस्‍तान के रिश्‍ते में तल्‍खी है, एक आतंकवाद के खात्‍मे के लिए देश दूनिया में अपनी आवाज बुलंद कर रहा है तो दूसरा उसका पोषक बनने के लिए किसी भी सीमा तक जाकर अपनी युद्व की ज्‍वाला को शांत करना चाहता है. उसे युद्व लडकर विश्‍व की सहानुभूति प्राप्‍त करना श्रेयस्‍कर महसूस हो रहा है. मीडिया इसमें अपनी भूमिका तलाश कर रहा है. उसे बाजार को उपलब्‍ध कराने के लिए दमदार खबरे परोसने का मौका मिल गया है तो दूसरी ओर यह कमोबेश देश की जरूरत भी बतायी जा रही है. समय समय पर कुटनीतिज्ञों को आमंत्रित कर तरह तरह के विचार प्रसारित कर जनता को भ्रम की स्थिति में डाला जा रहा है. भारत द्वारा दिये गये 30 दिनों के अल्‍टीमेंटम के बाद भी पाकिस्‍तान अपनी स्थिति से टस से मस नही हो रहा है. पाकिस्‍तान के हिताकांक्षी राष्‍ट्रों में इसको लेकर भले ही बाहर से कोफत बढती द‍िख रही हो लेकिन अब भी चीन, साउदी अरब सहित अन्‍य पाकिस्‍तान परस्‍त राष्‍ट्रों ने अपनी स्थिति साफ नहीं की है. यह तो तय है कि पाकिस्‍तान के साथ युद्व हुआ तो इस बार उसका बजूद ही खतरें में पड जाएगा. फिर हमें अपनी सेना को विजित क्षेत्रों को वापस लौटने के बजाय व़हतर भारत के परिकल्‍पना को साकार करने के एजेंडे पर लगा देना होगा. आज पख्‍तुन, सिंधी पाकिस्‍तानी हुकमरानों के दोरंगी नीतियों के सबसे बडे पीडित है उन्‍हें लोकतांत्रिक अधिकारों से महरूम किया जा चुका है. पश्चिम पाकिस्‍तान में तालिबान का कब्‍जा है. वहां महिलाओं को शिक्षा प्राप्‍त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है,वही मनोरंजन के साधनों का खात्‍मा कर दिया गया है. क्‍या इस्‍लाम की इस तरह की व्‍याख्‍या करने वालों से स्‍वयं इस्‍लामी जगत के रहनुमा निबटने में अक्षम है. प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या हम मीडिया के दबाब में युद्व की रणनीति अपनाए या किसी सार्थक समाधान की दिशा तलाशे. भारत सरकार की विदेश नीति पर पहले भी सवाल खडे होते रहे है, आज हमारा देश आजादी के 60 वर्षो के बाद इतना सशक्‍त हो चुका है कि विश्‍व के किसी भी दबाब से निबटने में सक्षम है. मीडिया को हमें अपनी ताकत के मूल्‍यांकन में सहयोग कर देश को भरोसे में लेने का प्रयास करना चाहिये न कि युद्व की बदलती व बढती भूमिका को स्‍पष्‍ट करने में अपनी उर्जा को खपाना चाहिये. हमारे देश में अब भी नीति निर्धारकों के बीच बेहतर सामंजस्‍य है, हमें उन पर भरोसा करना भी सीखना होगा. मीडिया को सलाहकार की भूमिका में ही रहना शोभा देता है वह निर्णायक बनने का प्रयास न करें.

Sunday, December 21, 2008

युद्ध या कूटनीति

देश आज किन भूल-भूलियो में भटक रहा है यह तो नियंता ही जाने यह स्पस्ट है कि आतंक से मुकाबला करने कि लिए युद्ध या कूटनीति में से तत्काल एक को चुनना होगा. युध का रास्ता अपनाने कि पहले हमे अपनी कूटनीति की ओर देखना होगा.यह हमें भटकाने वाला नही होगा बल्कि ठीक निशाने को भेदने में सहायक होगा. भारत में चन्द्रगुप्त मौर की विजय पताका लहराने वाला मगध साम्राज्य का इतिहास इसका गवाह है की कैसे युद्ध लड़ी जाती है.कैसे अपने देश कि एकता की बदौलत दुश्मन को परस्त किया जाता है. एक अदना सा दिखने वाला गुरु चाणक्य ने बालक चन्द्रगुप्त को देश का सम्राट बना दिया.टुकडो में बिखरे भूखंड को गुलसन बना दिया.इंदिरा जी ने पाकिस्तान से युद्ध करने कि पूर्व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भावनाओ से अवगत कराया था. पाकिस्तान ने माना तो ठीक ,नहीं तो उसे दुरुशत कर दिया.पाकिस्तानी कट्टर पंथियों ने सबसे अधिक अत्याचार सिंधियों पर कर रखा है. उसे मुक्ति दिलाना जरुरी है.

Wednesday, December 10, 2008

आतंकवाद का सरलीकरण,भाजपा की शिकस्‍त

हाल ही में पांच विधान सभा चुनावों के परिणाम सामने आये। यह संयोग ही है कि मुंबई की आतंकी घटनाओं के बीच पांच राज्‍यों छतीसगढ, मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान,मिजोरम व दिल्‍ली में चुनावों के दौरान राजनेताओं की सरपट दौड जारी थी। कमोबेश जम्‍मु कश्‍मीर में भी चुनाव के दौरान राजनेताओं की अच्‍छी खासी भागेदारी रही है. इन सभी स्‍थानों में जनता ने बडी ही बारिकी से राजनीतिक दलों का चुनाव अभियान को देखा. भारतीय जनता पार्टी को पांच राज्‍यों के चुनाव परिणामों में थोडी निराशा हाथ लगी है। इस पर भी वो अगर समय रहते सचेत नही होती तो संभव है एक बार फिर लोकसभा के चुनाव में अगले पांच वर्षो के लिए हासिए पर ही स्थिर रह जाए। दरअसल भाजपा ने विध्‍ाान सभा चुनाव में आतंकवाद को प्रमुख मुददा बनाया. पोटा कानून को हटाये जाने तथा अफजल को अबतक फांसी नहीं दिये जाने के मामले को हवा दी. आतंकवाद को इतना सरलीकरण आम जनता को तनिक भी नही भाया।आखिर हम कबतक इतने अगंभीर तरीके से किसी बडी समस्‍या को देखते रहेंगे. देश की एक अरब से अधिक की आबादी में मुसलमानों का हिस्‍सा 18 फीसदी के करीब है,शेष अन्‍य अल्‍पसंख्‍यक समुदाय की आबादी भी शामिल है. क्‍या देश के बहुसंख्‍यकों द्वारा अल्‍पसंख्‍यकों के मन से भय,डर व शक को बिना हटाये देश की राष्‍ट्रीय समस्‍याओं से निजात पाया जा सकता है। बहुलतावादी संस्‍क़ति वाले इस देश में हमारी एकजुटता ही विकास व समस्‍यों से मुक्ति का वायस बन सकती है। चाहे जो भी राजनीतिक पार्टी हो अल्‍पसंख्‍यकों की तुष्टिकरण करके सत्‍ता के गलियारे में पहुंचना चाहती हो, या बहुसंख्‍यकों की भावना को भडका कर अपना उल्‍लू सीधा करना चाहती हो, आने वाले समय में उन्‍हें घोर निराशा ही हाथ लगने वाली है। भारतीय गांधी युग में भी न इतने तंगदिल थे, न नेहरू युग में,अब तो देश के बंटवारे, राजनीतिक उथल पुथल, दंगे फसादों के दूष्‍परिण्‍ााम झेलते झेलते इतनी समझ विकसित कर चुकी है कि उसे आसानी से बरगलाया नही जा सकता। मुंबई में हुए आतंकवादी घटनाओं के बाद तो वह इतनी सर्तक हो चुकी है कि आने वाले दिनों में कांग्रेस,भाजपा,सपा या अन्‍य क्षेत्रीय दलों द्वारा किये जाने वाले कवायद को धूल चटा सकती है। राजनीतिक दलों पर नैतिक दबाब बन सकता है कि वे अच्‍छे उम्‍मीदवार दें, प्रशासन में पारदर्शिता लाए। राष्‍ट्रीय महत्‍व के प्रश्‍नों को गंभीरता से हल करें। इस बार के विधान सभा चुनावों ने राजनीतिक दलों को सचेत हो जाने का एक बार फिर मौका दिया है.

Tuesday, December 2, 2008

जरा सोंचे विचारें

हमारे देश की हरी भरी वसुंधरा को आतंकियों की नजर लग चुकी है। हम इतने लाचार साबित हो रहे है कि दुश्‍मनों के ठिकानों पर नजर तक नहीं जा रही है। सरहद के उस पार आतंकी बैठे कुचक्र रचते है,इस पार की सरकार तमाशबीन बनी होती है।कुटिनीतिक व राजनीतिक विफलता का ऐसा दुर्लभ नमूना अन्‍यत्र देखने को कम ही मिलता है। यह वही देश है जहां पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी शक्ति का लोहा पूरे विश्‍व को मनवाया था, विपक्ष्‍ा के नेता ने उन्‍हें दूर्गा के संबोधन से पुकारा था। क्‍या आज राष्‍ट्र की सुरक्षा व संरक्षा की कीमत पर ऐसी रणचंडी बनने का सौभाग्‍य किसी में नही है। हमारे देश की प्रथम नागरिक तथा यूपीए सरकार की निर्मात्री दोनो महिलाएं है।शायद इतिहास को इससे सुनहरा अवसर नही मिल सकता जब ठोस निर्णय लेकर देश के समक्ष एक अनुपम उदाहरण प्रस्‍तुत किये जा सके। हमारे देश में राजनेताओं के प्रति गुस्‍से का इजहार लगातार किया जा रहा है, ये नेता है कि मानते नहीं। क्‍या करना चाहते है व क्‍या बोल बैठते है. भारतीय लोकतंत्र बडी त्रासद स्थिति से गुजर रही है. आजादी के दीवानों ने ऐसा सोचा भी नही होगा कि एक अरब की आबादी इस कदर घुटने टेककर सिर्फ तमाशबीन बनी रह सकती है. देश की उन्‍नति की चाह रखने वाले दीवानों को अपने देश पर गर्व था, वे सर कटाना जानते थे, देश की आन बान व शान पर खतरा होने पर दुश्‍मनों को मुहं तोड जबाब देना भी जानते थे। क्‍या हिंदू क्‍या मुसलमान क्‍या सिख व क्‍या इसाई हमें अपने मादरे वतन से लगाव नही तो धर्म व अपने धर्म गुरूओं के उपर क्‍या सम्‍मान व लगाव होगा। जब हमीं न होंगे तो कौन हमारे धर्म व संस्‍क़ति की रक्षा करेगा। हमने साथ साथ जीना सीखा है साथ मरना भी जानते है। बहुत ही खूब भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने इंदिरा जी के एक प्रश्‍न का जबाब देते हुए अंतरिक्ष से कहा था अपना हिंदूस्‍तान उपर से सारे जहां से अच्‍छा दिखता है। इस धरती की खुबसुरती न केवल देखने में है, बल्कि की इसकी आत्‍मा भी उतनी ही सुंदर है। कुछ जयचंदों के होने से हम इसे कलुषित न होनें देंगे। सुरक्षा को लेकर पैसे वाले पावर वाले लोगों को कोई चिंता भले ही स्‍थायी न हो किंूत भारतीय आम नागरिक सहमे सहमे से नजर आ रहे है। आने वाले चुनाव में इस खामोशी का इजहार होना जरूरी है। भारतीय जनता के पास लोकतंत्रिक अधिकार के नाम पर वोट देने की प्रमुख शक्ति है। सारे मीडिया के आकलन व नौकरशाहों की कारगुजारियों के बावजूद, राजनेताओं को जो देश की अस्मिता के साथ खिलवाड करते नजर आते है,उन्‍हें बख्‍शा नही जाना चाहिये। हमें यह स्‍पष्‍ट संकेत देना होगा भारतीय राजनीति को कि इस्‍तीफे व गैर जिम्‍मेदारी भरे बयानात के आधार पर राजनेताओं को बचने का रास्‍ता अब नहीं दिया जा सकेगा। संकट की घडी में हमने यह स्‍पष्‍ट जाना है कि चमकने वाले चेहरों के भीतर कितना डरवाना चेहरा छिपा है. ये किस कदर सिर्फ व सिर्फ स्‍व हित के प्रति सोचते व विचार करते रहते है. वेशर्मी की हद तो यह है कि ये शहीदों को भी नही बख्‍शतें है. वतन पर मिटने वालों के साथ उनके परिवारों के साथ इस कदर बर्ताव करते है कि उन्‍ा पर कुछ भी टिप्‍पणी किया जाना अपने आप में शर्मनाक है.

Sunday, November 30, 2008

आतंकवाद और हमारी जबाबदेही

मुंबई में आतंकवादी हमले के कारण जो स्थिति बनी उसका असर प्रत्‍येक भारतीय जनमानस पर पडा है, इसे कमोबेश सभी प्रमुख ब्‍लॉगों पर प्रमुखता दी गयी है। खासकर, सिनेमा से संबंद्व प्रमुख कलाकारों के द्वारा लिखी गयी पंक्तियों को मीडिया ने भी तवज्‍जों दी है। सुपर स्‍टार अमिताभ बच्‍चन ने जहां एक ओर स्पिरिट आफ मुंबई कहना बंद करने की सलाह दी है, तो आम‍िर खान ने कहा कि आतंक का कोई धर्म नही होता। इसी प्रकार मीडिया से संबंद्व सभी स्‍तर पर लोगों ने चंद आतंकवादियों को खुलेआम तीन दिनों तक हंगाम,बर्बादी व तबाही का मंजर फैलाते देखा सुना। पिछले तीन दिनों तक हमें यह दिखा की आज भी राजनेताओं से ज्‍यादा हमारे देश की चिंता हमारे सुरक्ष्‍ाा बलों को है। वे अपने प्राण न्‍योच्‍छावर कर के भी लोगों को दहशतगर्दी से निकालना जानते है। हमारे राजनेताओं को इससे सीख लेनी चाहिये क्‍योकि अंतत यह देश ही हमारे आने वाली पीढियों के लिए,हमारे स्‍वजनों व परिजनों के जीवनयापन व विकास का साधन होगा। न तो भविष्‍य में जो आज काम आए उस सुरक्षा बलों के जवान रहेंगे, न अपने को निर्णायक व महत्‍वपूण् मानकर देश की शांति व सम़द्वि में हस्‍तक्षेप करने वाले राजनेता रहेंगे। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सुरक्षाबलों व सेना के उपर जनता के प्रतिनिधि होने चाहिये ताकि जनपक्षीय दबाब उनपर बना रहे वे निरंकुश न हो, किंतू हमें यह भी तय करना होगा कि उन्‍हें देश व समाज हित में कार्य करने की पुरी स्‍वतंत्रता भी हो। सुरक्षा एजेंसिया अपने भीतर ही नियंत्रण की प्रणाली विकसित करें ताकि कार्य में लापरवाही बरते जाने वालों व देश की अस्मिता के साथ खिलवाड करने वालों से निबटा जा सके। उन्‍हें हुकूम का गुलाम बनाकर रखना देश के साथ धोखा है। इतना तो निश्चित है कि जो कौमें अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह होती है उन्‍हें मिट जाना चाहिये। प्रक़ति ने एक चींटी को भी इतना ताकतवर बनाया है कि जब वह हाथी की सुंढ में घुस जाए तो उसकी मौत का वायस बन जाती है। हमें यह देखना होगा कि समाजिक संरचना का विकास हम किस प्रकार कर रहे है,उनमें राजठाकरे टाईप लोगों,सांप्रदायिक विद्वेष फैलाकर अपनी रोटी सेकनें वालों के उभरने की कितनी संभावनाएं है। पोटा या अन्‍य कानूनों की बात करने वालों को यह भी गौर करना चाहिये कि पहले से लागू किये गये कानूनों का क्‍या ह्रस हो रहा है। क्‍या सुरक्षा को लेकर हमने अपनी जिम्‍मेवारियों को समझा है. पूरे भारतीय परिवेश में मुंबई इन दिनों प्रतीक के रूप में उभरा है. कभी यहां शिवसेना की सांप्रदायिक राजनीति हावी होती है तो कभी राजठाकरे की क्षेत्रीयतावाद की राजनीति तो कभी अंडर वर्ल्‍ड के खौफ के साए में लोग दहशत में रहते है. यहां मीडिया का रोल भी कमोबेश उजागर हुआ है. तरूण भारत ने जहां हेमंत करकरे के पुत्र द्वारा नशीली दवाओं के सेवन करने संबंधी खबरे दी तो सामना ने हिंदू विरोधी अधिकारियों के नाम पते उजागर करने व शिवसेना कार्यकर्ताओं द्वारा उन अधिकारियों के घरों के बाहर प्रदर्शन करने संबंधी खबर प्रकाशित की. हद तो यह है कि हमेशा तेज गति से आगे रहने वाली इलेक्‍ट्रानिक मीडिया भी घंटों बाद इतने बडे हमले को समझ सकी. देश भक्ति का जजबा तो उनमें दूसरे तीसरे दिन ही आया. एक चैनल ने तो आतंकवादियों की तस्‍वीरे तक दिखा दी. खबर है कि जब बाहर पुलिस अधिकारी आतंकवादियों के शिकार हुए तो ताज के अंदर छिपे आतंकी जश्‍न मना रहे थे। सूचना के इस कदर लापरवाह होने का नतीजा यह भी हो सकता है कि विदेशों में बैठे आका इससे अगली रणनीति तय कर रहे हो। हमें अपनी सुरक्षा को लेकर किसी भी स्‍तर पर लापरवाही नही बरती चाहिये,खासकर यह जिम्‍मेदारी तय होनी चाहिये कि राष्‍ट्रीय विपत्ति के क्रम में,आतंकवादी गतिविधियों या बाहय आ‍क्रमण के समय बरती जाने वाली कोताही को किसी सूरत में बख्‍शा नही जायेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरे देश को ग़ह मंत्री शिवराज पाटिल के इस्‍तीफे व वित्‍त मंत्री रहे पी चिदंबरम द्वारा पदभार संभाले जाने की सूचना आ चुकी है। क्‍या यह वह समय नही है जब सिर्फ इस्‍तीफे को अपनी जिम्‍मेवारी से बचने का माध्‍यम भर न माना जाये बल्कि इस प्रकार की लापरवाही बरते जाने के लिए राजनेताओं को भी दोषी बनाया जाये. अतंत देश सबका है, देश की सुरक्ष्‍ाा की जिम्‍मेवारी सब पर है.

Saturday, November 29, 2008

वह पल जो ठहर सा गया...... कब रुकेंगे राजनेता

मुंबई में हुई आतंकवादी घटना को देख व सुनकर पूरा देश स्‍तब्‍‍ध रह गया।तीन दिनों तक राष्‍ट्र की धमनी में दौडता रक्‍त ठहर सा गया,एक एक पल आत्‍मचिंतन व चुनौतियों के प्रति अपनी जिम्‍मेवारी का एहसास कराता प्रतीत हुआ। क्‍या राजनेता, क्‍या अभिनेता,व्‍यवसायी,चिंतक,आम नागरिक सभी यह सोचने को बाध्‍य हो गये कि हमारे राजनेता आखिर कौन से कार्य में व्‍यस्‍त है जो उन्‍हें देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति लापरवाह बनाये हुए है. वैदेशिक नीति के उपर टीका टिप्‍पणी लगातार की जाती रही है किंतू क्‍या हम सचमुच बाहय आ‍क्रमण को झेलने के लिए सामर्थ्‍यवान है।आंतरिक सुरक्षा की बदहाल स्थिति को लेकर क्‍या ठोस रणनीति बनायी जा सकती है,इस पर कभी विचार किया गया है भी या नही।थोडी देर के लिए अपने नेत़त्‍वकर्ताओं के प्रति अपने मन को शिथिल भी कर ले तो क्‍या देश का प्रत्‍येक नागरिक इन आतंकवादी घटनाओं से मुकाबले के लिए मानसिक रुप से तैयार है. यह चिंता लगातार व्‍यक्‍त की जा रही है कि मुंबई में तीन दिनों तक आतंकवादियों द्वारा दहशत का महौल बनाये रखने के पीछे लंबी व ठोस रणनीति अपनायी गयी होगी। तो क्‍या हमारे लिए यह जानना जरूरी नही कि ऐसे मौकों पर हमें किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी है। आक्रमण हमारी नीति नही हो सकती लेकिन क्‍या जो आक्रमण करें उसे चिन्हित करते हुए उस पर प्रत्‍याक्रमण करना हमारी नीति नही हो सकती। जो कायर कौमे होती है,वही इससे इंकार कर सकती है। भारतीय रक्‍त में इस प्रकार की कायरता का कोई स्‍थान नहीं है।हमें वैसे देशों को जो आतंकवाद या आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय दे रहे है खासकर, हमारे पडोसी मुल्‍क उनको स्‍पष्‍ट रुप से यह एहसास दिलाया जाना जरूरी है कि वे संभल जायें अन्‍यथा परिण्‍ााम के लिए तैयार रहें। भारतीय सीमा में पहली बार किसी आतंकवादी गतिविधि के लिए सेना के अधिकारी पर लगातार किये जा रहे आरोप प्रत्‍यारोप, एक प्रांत के लोगों को दूसरे प्रांत में अपमानित किया जाना,आतंकवादी गतिविधियों के लिए चिन्हित किये जा रहे लोगों के साथ नरमी का रुख हमें लगातार कमजोर बनाता जा रहा है। क्‍या सिर्फ वोट व सत्‍ता की खातिर एक अरब लोगों का यह मुल्‍क इतना कमजोर हो सकता है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्‍वकाल में श्रीलंका में जितनी जल्‍दी सेना को भेज कर सफलता पायी गयी थी,या मालदीव में हुए तख्‍त पलट को जिस कदर त्‍वरित गति से सुलझाया गया था,क्‍या वह आज 08 आते आते इतिहास के पन्‍नों में गुम हो गया। देश के खुफिया संगठन को क्‍यो कमजोर बनाया जा रहा है,उन्‍हें स्‍वतंत्रता देकर क्‍यो नही उनकी रिपोर्टो पर आक्रमक रुख अपनाया जाता है. राज्‍यों की अपनी खुफिया विभागे है जो लुंज पूंज स्थिति में है. उन्‍हें आधारभूत सुविधाएं दी जानी चाहिये या नहीं इस पर क्‍यो नही महत्‍वपूर्ण निर्णय लिए जाते. मुंबई पुलिस की स्‍कॉटलॉड यार्ड से तुलना की जाती है,वह एक राहुल राज की हत्‍या करने में स्‍वयं को जाबांज घोषित करती है लेकिन मौका देश के दुश्‍मनों से भिडने का हो तो तीसरी पंक्ति में नजर आती है। मुंबई के राजनेता जो मराठी गैर मराठी के नाम की कुछ दिनों पूर्व तक माला जप रहे थे,उन्‍हें सांप सूंघ गया है। हिंदू मुस्लिम व अन्‍य कौमों में नफरत की आग उगलने वाले,फतवा देने वाले तथाकथित संप्रदायिकता विरोध के नाम पर अपना उल्‍लू सीधा करने वाले आज किस दूनिया में है यह किसी को पता तक नही है. क्‍या देश सिर्फ उनका है जो हाथों में हथियार लेकर देश के नाम पर शहीद होने के लिए तैयार है, या उनका भी है जो उनके परिवार के साथ शांति से समय गुजारना पसंद करते है. क्‍या देश के नीति नियंताओं को यह नही सूझता कि इस देश में शांति व सदभाव के बिना किसी प्रकार का विकास नामुमकिन है।वोट व सत्‍ता के पीछे पागल बने लोगों को अपने हाथों को मजबूत बनाने के लिए दूसरे विकसित देशों से उद्वाहरण लेना उचित नही प्रतीत होता. हम संविधान का निर्माण उधार लेकर दूसरे मुल्‍कों से कर सकते है,उसपर इतरा सकते है कि देखों दूनिया के बेहतरीन प्रणाली को हमने अपनाया है. तो क्‍या देश के दूश्‍मनों से निबटने के तरीके से नही सीख सकते,शांति व सदभाव से रहना नही सीख सकते, विज्ञान व तकनीक की प्रगति के लिए किये जाने वाले उपाय नही सीख सकते. आखिर कबतक हम अपने कांधों पर लाशों को ढोने के लिए मजबूर होंगे. मुंबई की घटना पर टिप्‍पणी करते हुए अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ ने क्‍या खूब कहा कि वर्तमान भारतीय ग़हमंत्री बेहद कमजोर है। उनसे ऐसी घटनाओं से निपटने को लेकर या पूर्व की तैयारी को लेकर बेहतर उम्‍मीद नही की जा सकती। यूपीए हो या एनडीए दोनों धडों को कम से कम देश हित में एक सुस्‍पष्‍ट नीति आतंकवाद को लेकर विकसित करनी चाहिये ताकि अव्‍वल तो ऐसे हालात न पैदा हो या संकट आए भी तो उससे कडाई से निपटा जा सके। गोली का जबाब गोली से देने की घोषणा करने वाले क्षेत्रीय राजनेताओं को भी सर्तक होकर अपने बयान देने चाहिये। प्रांत कमजोर होता है तो देश कमजोर होता है, लोगों को नागरिक अधिकारों के साथ कर्तव्‍यों की भी जानकारी देनी चाहिये। हमें छोटी छोटी बातों से उपर उठना सीखना होगा। कभी कभी तो अपने देश के लोगों के विचारभिन्‍नता को देखकर लगता है कि सचमूच यह कुपमंडूकता से उबरने में अभी तक नाकाम साबित होता रहा है. कोई तो हो जिसे राष्‍ट्रीय व जातीय श्रेष्‍ठता का अभिमान हो,सिर्फ मुठठी भर लोगों के द्वारा राष्‍ट्रगान गाये जाते रहे, या सिर्फ स्‍वतंत्रता अथवा गणतंत्रता दिवस के अवसर पर औपचारिकता निबाहे जाते रहे तो इन हालातों से निबटना मुश्किल है. अपने देश के स्‍कूल व कॉलेजों में नौजवानों को सैन्‍य प्रशिक्षण देने के लिए नेशनल कैडेट कोर एनसीसी की स्‍थापना की गयी है। यह प्रशिक्षण सुविधा देने मात्र का संगठन नहीं है बल्कि अपने देश को करीब से जानने व महसूस करने वाला संगठन है। आज राहुल गांधी को घूम घूमकर अपने देश को समझना पड रहा है काश, वे इसके माध्‍यम से प्रशिक्षित होते तो संभवतया उन्‍हें सैन्‍य बारिकियों के साथ,अपने देश की विविधता में छिपी एकता के भी दर्शन हो गये होते। कोई आवश्‍यक नही कि एनसीसी प्रशिक्षित सैन्‍य सेवा में ही जाये, देश के किसी भी भाग में, किसी भी कार्य में लगे युवाओं के जीवन में, व्‍यक्तित्‍व में यह युगांतकारी परिवर्तन ला देता है। सेना,पुलिस या वर्दी खौफ व आतंक पैदा नही करती बल्कि देशद्रोहियों, समाजविरोधियों का सर कुचलने में सहायक सिद्व होते हुए प्रतीत होती है.यह अच्‍छे राजनेता भी हमें दे सकती है.

Thursday, November 13, 2008

सोने की चिडिया स्‍वीस बैंक में कैद

भारत को कभी सोने की चिडियां कहा जाता था, यहां दूध की नदियां बहती थी,यह मात्र कपोल कल्‍पना भर नही थी। सचमुच उस समय भारत धन धान्‍य से भरपुर था।यहां से मसाले,सुती वस्‍त्र,स्‍वर्ण आभूषण,आयुर्वेदिक दवा इत्‍यादि कई अन्‍य जरूरत की चीजों का निर्यात किया जाता था। भारतीय व्‍यापारियों को बडे स्‍वागत के साथ विदेशों में आमंत्रित किया जाता था। आज का भारत इसके ठीक उलट है। आज भारतीय अर्थव्‍यवस्‍थ्ा विकास के घोडे पर सवार होने के बावजूद गरीबी का अभि शाप ढोने को अभिसप्‍त है। सोने की चिडियां आज स्‍वीस बैंक में कैद है। प्राप्‍त जानकारी के अनुसार स्‍वीस बैंकों में जमा राशि के पांच बडे स्रोतों में शामिल भारत के 1,456 अरब डॉलर,रूस के 470 अरब डॉलर,यूके के 390 अरब डॉलर,उक्रेन के 100 अरब डॉलर तथा चीन के 96 अरब डॉलर की मुद्रा स्‍वीस बैंक में कैद है। क्‍या ऐसा हमारे देश के नियति नियंताओं के सहयोग के बिना हो सकता है। क्‍या इसके लिए हमारे देश की आर्थिक नीतियां जिम्‍मेवार नही है। हद तो यह है कि स्‍वीस बैंकों में जमा राशि भारत के कुल राष्‍ट्रीय आय से डेढ गुना ज्‍यादा है तो भारत के कुल विदेशी कर्जो का 13 गुना है। इस राशि को वापस लाकर देश के 45 करोड गरीबों में बांट दिया जाये तो सब को कम से कम एक लाख रुपये मिलेगा।ऐसा नहीं कि इसमें सिर्फ बेईमान राजनेताओं के धन जमा है, इसमें उद्योगपतियों, फिल्‍म कलाकार, क्रिकेट खिलाडियों के साथ कई लोगों की राशि भी शामिल है। प्राप्‍त जानकारी के अनुसार इन बैंकों की खासियत यह है कि इसमें जमा राशि पर कोई टैक्‍स नही लगता, न ही जमाकर्ताओं के नाम व नंबर सार्वजनिक किये जाते है। अब आप ही विचार करें कि ऐसे बैंकों के कर्ताधर्ताओं को क्‍या कहा जाए देश के सुधारक, विकास की ओर ले जाने वाले पुरोधा, देश के आईकॉन, या गरीबों का रक्‍तचूषक. आज आप राजनीतिक उठापटक के बीच जो भी घात प्रतिघात कर लें, मुलायम कहें की सत्‍ता में आने पर मायावती की मूर्ति उखाड देगे, तो अगला कहेगा कि मुसलमानों को जन्‍नत नसीब करा देंगे,गरीबों को लॉलीपाप बांटेंगे, लेकिन सच यही होगा कि ये सब बरगलाने वाली बातें है. इनका न तो गरीबों के बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य,शिक्षा, उनके जीवन स्‍तर में सुधार से कोई दूर दूर तक संबंध है, न ही उनके माता पिता की आय में सुधार, उनका देश के विकास में सक्रिय भागदारी निभाने के अवसर प्रदान किये जाने से है. ये जो मिडिया हाउस है,भले ही गला फाड कर चिल्‍लाये कि ये हो रहा है, वो हो रहा है लेकिन सच्‍चाई इससे कोसों दूर है. हमारे जनप्रतिनिधियों के ड्राइंगरुम से निकलकर कोई बात आगे नही जाती.

Saturday, November 8, 2008

ब्‍लॉग लेखन क्‍या मीडिया के गटर की गंगा है

मेरी नजर अचानक एक ऐसे लेख पर पडी जिसमें ब्‍लॉग को मीडिया की गटर गंगा का हिस्‍सा बताया गया है. ऐसे में प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या ब्‍लॉग लेखन सचमुच इतना गंभीर नही है, इसके पाठक इसके बारे में क्‍या राय रखते है, इसकी समझ अब तक नहीं बन पा रही है. दूसरे अर्थो में यही समझा जा रहा है कि ब्‍लॉग सिर्फ मन की भडास मात्र है. मेरी राय में ऐसा नहीं है. खासकर, जब कोई पत्रकारिता जगत का व्‍यक्ति ब्‍लॉगिंग से जुडता है तो निसंदेह मेन स्‍ट्रीम में छुट जाने वाली बातों को रखने का प्रयास करता है. ये छूट गयी बातें मीडिया की गटर से निकली नहीं होती न ही गटर में फेंके जाने योग्‍य ही होती है. यह समझने वालों का भ्रम हो सकता है. साहित्‍य व पत्रकारिता के मेन स्‍ट्रीम में भी ऐसी बातें पायी जाती है, जो न सिर्फ गटर में फेंकी जाने वाली होती है बल्कि लगता है कि गटर से ही निकली हुई है. पाठक उसे वैसे ही ग्रहण करते है जिसके योग्‍य वो रचना होती है या उसकी अधिकारी होती है. कई ऐसे ब्‍लॉग है जो कई नई व रोचक जानकारी देते है. हमारा ज्ञानवर्धन करते है, कई ब्‍लॉग तो अपने आप में वि शद जानकारी तक उपलब्‍ध कराते है. जहां तक पत्रकारों के द्वारा अपने मन की खटास को इसमें टांके जाने की बात है, यह पत्रकार की अपनी अभिरुचि या क्षमता पर नि र्भर करता है कि वो अपने मन के वि ष, जहर को किस प्रकार औरों के लिए अम़त बना पाता है. हलाहल पीने वाले ही यह समझ सकते है कि अंम़त की जरूरत किसी कदर लोगों को होती है. जो अच्‍छा पढना, लि खना व समझना चाहते है, उन्‍हें ब्‍लॉग लेखन निश्चित रुप से अपनी ओर खींचता है, यह चालू भाषा में कहे तो बाथरूम सिंगर को गाने का एक बेहतर मौका फराहम करता है. यह समझने की बात है कि आप उस संगीत को कैसे लेते है. आपकी मौलिक प्रति भा का कैसे विकास होता है. कैसे आप अपनी जगह बना पाते है. पत्रकारिता के मेन स्‍ट्रीम में या सक्रिय लेखन के क्षेत्र में, कला साहित्‍य से इतर प्रत्‍येक कार्य में यही जददोजहद कार्य करती है. यही किसी को महान तो किसी को शैतान बनाता है.

टिप्‍पणी के लिए धन्‍यवाद

समाज में,साहित्‍य में, साहित्‍य के मंच पर जो कुछ घटता है उसे अपने नजरिये से मैने सामने रखा. निसंदेह उनपर अलग अलग टिप्‍पणियां होगी. जहां तक एक टिप्‍पणी कर्ता द्वारा उठाये गये प्रश्‍न की बात है, इतना निश्चित जानिये कि सबका अपने दायरे में काम करना ही अच्‍छा लगता है. आप किसानी बेहतर करते हो, साथ ही आपसे उम्‍मीद की जायें कि आप सेटेलाइट के भी ज्ञाता हो यह मुश्किल है. मैने कथाकार की पीडा को अभिव्‍यक्‍त करने का प्रयास किया. अब आगे बढने वाले सह़दय लोगों के हाथों से उम्‍मीद बनती है कि वे ऐसा कुछ करें ताकि कथाकार महोदय अपने कष्‍टों से उबर सकें. मेरा आशय किसी एक का कथाकार का नही ऐसे कई विद्वान व आचार्य धक्‍के खाते फिर रहे है उनकी नोटिस तक नही ली जा रही,पहले उन्‍हें नोटिस में लाना जरूरी हैं. क़पया इसमें कोताही नहीं की जानी चाहिये.

Saturday, November 1, 2008

हिंदी वालों की आंखों का पानी गायब

आज हिंदी प्रदेश के हिंदी सेवियों के आंखों का पानी गायब हो गया है. यह सब लि खते हुए ह़दय को बहुत कष्‍ट हो रहा है जो आज मैने अपने आंखों देखी है. आज दोपहर में पटना में साहित्‍य के नामचीन आलोचक व साहित्‍यकार डा नामवर सिंह द्वारा बिहार के तेजतर्रार मंत्री के प्राइवेट से‍केट्री अशोक कुमार सिन्‍हा लि खित पिता नामक पुस्‍तक का लोकापर्ण किया गया. इसमें साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त कवि अरुण कमल सहित कई ख्‍यात स्‍थानीय साहित्‍यकार व आलोचक शामिल थे. डा नामवर सिंह ने अपने संबोधन में स्‍पष्‍ट भी किया कि वे पूर्व से अशोक जी को नही जानते, आलोचक नंद कि शोर नवल जी के द्वारा जानकारी मिलने पर मैने इन्‍हें जाना. इस समारोह में बिहार के पांच से सात प्रमुख एमएलसी, वि धायक भी उपस्थित थे. पुरी गहमागहमी के साथ कार्यक्रम चला. मैं उस पर नही जाना चाहता कि किसने क्‍या कहा और बातों ही बातों में कटाक्ष के कितने दौर चले. लेकिन जो मूल बात है कि इसी समारोह में ख्‍यात कथाकार मधुकर सिंह भी उपस्थित हुए. हाल ही में उन्‍हें पक्षाघात की शिकायत हो गयी है. साहित्‍य प्रेम व कुछ मजबूरी और उम्‍मीदों के साथ वे समारोह में अपने पोते के साथ पहुंचे. उनके हाथों में मुख्‍यमंत्री व मंत्री के नाम पत्र था. उनकी इच्‍छा थी कि शायद उसपर कुछ लोग अपने हस्‍ताक्षर कर दें ताकि सरकार के पास भेजा जाये तो कुछ आर्थिक सहायता मिले ताकि रोग से लड सके,थोडी सी जीवन मिल जाये, कुछ और साहित्‍य को दे सके. लेकिन हाय, रे हिंदी के सुधी श्रोता व दर्शक सब के सब उस भीड में शामिल थे जिनके लिए नामवर के दर्शन मात्र से ही पूर्व कर्मो का पाप मिटने का भरोसा था. किसी ने भी मधुकर सिंह की ओर ध्‍यान नही दिया. धीरे धीरे सीढियां उतर कर वे अपनी राह चले गये.उनके कापतें हाथों से छडी कब छुट जायेगी यह किसी ने नही महसूस की. हिंदी प्रेमियों की यह ह़दयहीनता समझ से परे है. हिंदी वालों की आंखों में अब पानी सिर्फ तारीफ व तालियों के साथ प्रशंसा के सूनने के लिए ही रह गया प्रतीत होता है. मैं ये नहीं कहता कि समारोह न हो, लेकिन सिर्फ कुडा कर्कट के लिए नामचीन लोग सामने आ जाये और जो बेहतर ल‍ि खे जा रहे हो उन्‍हें प्रशंसा के शब्‍द तो छोडिये उन्‍हें कोई पूछने वाला न हो उधर आलोचक अपनी भ़कुटी ताने रहे यह सब हिंदी में ही देखने को मिलती है.

Monday, October 27, 2008

रिपोर्टिंग ऐसी जो पाठक मन भाये

वर्तमान हिंदी पत्रकारिता का परिद़श्‍य कुछ इस तरह बन चुका है कि पाठक के मन को लुभाने वाले समाचार को परोसने के नाम पर उलूलजूलल तथ्‍य परोसे जा रहे है. यह ध्‍यान रखा जा रहा है कि वह किसी को नुकसान न पहुंचायें चाहे वह भ्रष्‍टाचारी हो, अत्‍याचारी हो या देशद्रोही. आज की खबरों से न तो किसी का नुकसान पहुंचता है न वि शेष फर्क ही. पत्रकारित से प्रतिबद्वता,समर्पण व त्‍याग जैसे शब्‍द गायब हो चुके है. इसका प्रयोग किया भी जाता है तो प्रबंधकीय मिटिंगों में पत्रकारिता के तेवर को बचाये रखने के नाम पर पत्रकारों को घुटटी पिलाने मात्र के लिए ही. समाचार पत्र को संपादक नही बल्कि ब्रांड मैनेजर तय करने लगे है. ये ऐसे मैनेजर है जो नये संस्‍थानों से एमबीए की डिग्री लेकर बाजार में आ रहे है. इन्‍हें संस्‍थान को मुनाफे लाने के लिए किसी भी बात से गुरेज नही है. इन्‍हें इससे कोई खास मतलब नही कि रिपोर्ट से किसी की नींद उड जाती है या दिन का चैन खो जाता है. किसी भी भाषा वि शेष के पत्र हो उन्‍हें आप देख ले. उसमें खबरें कम चटपटी मसालेदार लटके झटके खुब दि खेंगे. एक पत्र में 25 खबरें हो तो कम से कम 40 विज्ञापन देखने को मिल जायेंगे. उनकी सफलता का मूल पाठकीयता कम दर्शनियता ज्‍यादा होती है. हिंदी पटटी में तो समाचार पत्रों को कबाडा ही बना दिया गया है. भाषा के नाम पर ऐसे प्रयोग किये जा रहे है कि किसी भी हिंदी प्रेमी के आंखो से बरबस आंसू निकल पडे. शिट,फन,फूड,फंडा को युवा के बीच लोकप्रिय मानकर खबरों के बीच उडेला जा रहा है.यहां पेज 3 पत्रकारिता भी स्‍वयं शरमा जाती है. यूथ व विमेंस के नाम पर प्रयोग इस तरह से किये जा रहे है कि भाषा विश्ेषज्ञ पानी भरने लगे.धार्मिक, सामाजिक व सांस्‍क़तिक रुपों को दर्शाने के चक्‍कर मे भाई बहन के रिश्‍ते हो या सास बहु के रिश्‍ते सब के बीच मीडिया पहुंच कर अपनी दखल बनाने में लगा है. संपादक की दखल मीडिया में नाम भर को रह गयी है.कई नामचीन अखबार तो अब बस मैनेजरों के सहारे ही अखबार को खींचने में अकलमंदी समझते है. पत्रकारिता मनोरंजन उद्योग का हिस्‍सा बन गयी है. मीडिया संचालको को पता तक नही कि पाठक जो चाहते है, वह उन्‍हें मिल भी रहा है या नही. उनके लिए विज्ञापन प्रदान करने वाली पठनीय या देखने की सामग्री उससे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होती है. स्‍वतंत्रता के समय स‍मर्पित पत्रकारों की जो त्‍याग व सेवा भावना थी, वह स्‍वतंत्रता प्राइज़ के कुछ दिनों बाद तक बनी रही लेकिन 80 के दशक के बाद यह लुप्‍त प्राय हो चुकी है. मिडिया के सभी बडे दिग्‍गज इससे वाकिफ है लेकिन बाजारवाद के आगे सब के सब नतमस्‍तक हो चुके है. पत्रकारिता के प्रशिक्षण के दौरान भले ही सिद्वांत कितनी पढा दी जाये, व्‍यवहार में आने पर सब कुछ बदल जाता है. प्रशिक्षितों की टीम प्रशिक्षण के नाम पर ब्रांड के लिए पेशेवर तेवर बनाने व किसी को नुकसान न हो ऐसी खबरें गढने के लिए प्रेरित करती है. मीडिया हमेशा सत्‍ता की धूर विरोधी रही है चाहे वह जैसे भी हो. क्‍योकि सत्‍ता हमेशा अपने हिसाब से काम करती है, जनता उसके बीच से हासिये पर ढकेले जाते है,ऐसे में पत्रकारिता ही उनकी भावनाओं की रक्षा करती है. यह सही है कि जनांदोलनों के अभाव से वर्तमान मीडिया भ्रमित हो चुकी है. स्‍वयं मिडियां के क्षेत्र में भी समान विचारों वाले लोगों को आंदोलन के रूप में सामने आकर भावी पीढी को मागदर्शन करने की जरूरत है.

Friday, October 24, 2008

ठाकरे की राजनीति व नपूंसकों की जमात

इन दिनो मीडिया व देश का बच्‍चा बच्‍चा राज ठाकरे नाम के शख्‍स की चर्चा में मसगूल है. गोया ऐसी बात नही कि वह गांधीजी का उत्‍तराधिकारी हो गया है,बल्कि उसने देश को अंधकार के गर्त में ले जाने का ऐसा घिनौना प्रयास किया है जिसकी जितनी निंदा की जाये कम है. यह शख्‍स जब कल तक अमिताभ परिवार को अपना टारगेज बनाये हुए था,तब लोग उसके वि षय में तरह तरह के अर्थशास्‍त्र की व्‍याख्‍या कर रहे थे, अमितजी ने उससे माफी मांगने में ही अपनी भलाई समझी, इसके पूर्व भी जब ठाकरे के गंूडों ने बिहारी छात्रों व उत्‍तर भारतीयों को टारगेट में लेकर हमला बोला तो महाराष्‍ट्र सरकार व केंद्र सरकार इसे अगंभीरता पूर्वक ले रही थी. लेकिन अब तो सर से पानी उपर हो गया है. इस देश में राजठाकरे जैसे राजनेताओं को पनपने देने वाले वही नपूसंक नेता है जो कभी अपराधियों व गूंडों को संसद तक पहुंचाने में स्‍वयं को गर्वान्वित महसूस करते रहे है. पैर के घाव को ठीक करने के बाद जरूरी है कि सर के धाव को भी ठीक किया जाये.

Friday, October 17, 2008

दौडती भागती जिंदगी में पीछे छूट रही संवेदनाएं

आज की दौडती भागती जिंदगी में हमारी संवेदनाएं पीछे छूट जा रही है. एक ओर जहां ग्‍लोबलाइजेशन के दौर में स‍बकुछ सिमटा प्रतीत हो रहा है तो वही, कई भावनाएं विरले ही देखने को मिलती है. सत्‍ता का गलियारा हो या विश्‍वविद्यालय का कैंपस, अस्‍पताल की सेवा भावना हो या नगर निगम की गतिविधियां हर ओर आप नजर दौडाएं कहीं कोई तारतम्‍यता दि खाई नही देती है. लगता है मानो सब अपने अपने काम निपटाये जाने में ही भरोसा करते है. छोडिये इनकों साहित्‍य, पत्रकारिता, कला व फिल्‍म की ओर भी देखे तो मानों कही कोई सामान्‍य द़ष्टि देखने को नही मिलती जहां आम आदमी अपने वजूद को तलाश सके. इसलिए अब वहां भी कोई सर्वमान्‍य लेखक,पत्रकार या सुपर स्‍टार देखने को मिलता. इन सब के बीच आप अपने राष्‍ट्रीय पहचान को देखे तो सब कुछ अलग थलग दि खता प्रतीत होता है. क्‍या इसे सिर्फ द़ष्टि भ्रम कहकर आगे बढ जा सकता है. यह ठीक है कि पूर्व की सामाजिक गतिविधियों से वर्तमान की सामाजिक गतिविधियों में स्‍पष्‍टता व खुलापन आया है, लोगों की देखने की द़ष्टि बदली है.

Tuesday, October 14, 2008

तोल मोल की बाते

कैसे भी कुछ भी विचार आ जाते हो विचार अभिव्यक्ति की खुली छुट ने हिंदी ब्लॉग की दुनिया में सब कुछ जल्दी से उगल देने बडा अवसर उपलब्ध करा दिया है. हिंदी समाचार पत्रों ने अपने सामने एक लक्छामन रेखा खीच रखी है इसलिए वहा एसा कुछ कर पाना मुश्किल है.वहा तो सड़क पर एक गुमनाम मुशाफिर की मौत होने पर सिंगल कालम तो किशी नामचीन की मौत हो ने पर डबल कालम की परिपाटी चलती है.किसी नामचीन नेता ने कुछ उगला तो उसे तिन कालम तक जगह दी जा सकती है . एक औरत की इज्जत सरेआम लुटती है तो फिर उसीतरह से भेदभाव किया जाता है जैसे की गैंग रेप के मामले अलग तरह से. खबरों को लिखते समय यह देखना ज्यादा जरुरी समझा जाता है की उसका पाठक वर्ग कितना है ,किन पाठको को कितना ग्राम समाचार चाहिए. जितना ही ज्यादा कुंठित पाठक वर्ग होता है उन्हें उनके लायक खबरे परोसी जाती है. मनोरंजन के नाम पर तो लुट की खुली छुट है, कुछ कुछ हमारे ब्लोगर बंधू भी ऐसा एसा ही प्रस्तुत कर रहे है.मस्तिस्क के विकारों को निपटने का ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.किसी भी समाचार या विचार को पढ़ कर आप को मति भरम की शिकायत हो जाये तो बिहार वालो के पास एक बड़ी ही बेशकीमती बुधिवर्धक चूर्ण मिलाती है उसकी इस्तेमाल करना न भूले.हिंदी के सु लेखको को तथा प्रकाशको को आलू प्याज की तरह अपने लिखे व् छापे गए सामग्री की कीमत वसूल किये जाने मात्र से मतलब है. व्यक्ति का चरित्र तो खो ही रहा है राष्ट्र का चरित्र भी धूमिल हो रहा है. समाजिकता समाप्त हो रही है व्यकितिवाद हावी हो रहा है.हमारी निजता ,मौलिकता,विचारो की सुदृढ़ता ख़तम हो रही है.जोजेफ मेजनी के शब्दों में शिछा, स्वदेशी तथा स्वराज्य राष्ट्रीयता के तीन प्रधान स्तम्भ है. पता नहीं की आज जो पढाई हमें लाखो रूपये की नौकरी उपलब्ध करदेती है वह एक अच्छा इन्सान क्यों नहीं बना पाती है . स्वदेश व राष्ट्र के प्रति प्रेरित क्यों नहीं कर पाती है.स्त्री पुरुष,जाती धर्मं से ऊपर उठाकर दिन दुखियों की सेवा के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ पाती है. आज से सात दशक पूर्व गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने प्रताप में लिखा था - आदर्शो पर मरना और उनके लिए जीना उन लोगो की दृष्टि में केवल मुर्खता है जिन्हें सुगमता प्रिय है और जो हाथ के पास का लाभ देख सकते है और जिनकी संख्या अब दिन दिन बढती जाती है. गौर से हम देखे तो आज भी गुलामी से बेहतर नहीं है खाने को हम स्वतंत्र है लेकिन मानसिकता अब भी गुलामो वाली ही है. २१ वी सदी में भी वही जिसे पिटे लकीरों को हम पिट रहे है जो कब का ख़त्म हो जाना चाहए था. हिंदी पत्रकारिता व लेखन में जो परिवर्तन दिख रहे है उससे क्या आप और हम संतुष्ट है - विचार किया जाना चाहिए.

Saturday, October 11, 2008

साहित्‍य लोगों के अं‍तर्मन से दूर हो रहा है

इन दिनों हिंदी साहित्‍य लेखन आम जनों के अ‍तर्मन से दूर होता जा रहा है. शायद हिंदी के लेखक व सुधी पाठकों के बीच मौजूद भ्रम को छोड दे तो ऐसा मालूम होता है कि साहित्‍य अब ज्‍यादातर स्‍व चिंतन व सुख के लिए लि खी जा रही है. अपने विचारों को थोपनें के चक्‍कर में कई बार अच्‍छे अच्‍छे लेखक भी भटकाव के शिकार हो रहे है. पिछले दिनों पटना में दिनकर जयंती के अवसर पर साहित्‍य अकादमी,नई दिल्‍ली द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बरबस साहित्‍य के प्रति घटती रूचि को लेकर प्रख्‍यात साहित्‍यकार,आलोचक व कवि अशोक बाजपेयी को कहना पडा,ऐसी भीड बिहार में ही देखने को मिल सकती है, साहित्‍य के प्रति ऐसा लगावा हिंदी भाषी अन्‍य प्रदेशों यूपी,राजस्‍थान या मध्‍य प्रदेश में भी देखने को नही मिलती. जब उनसे मैने पूछा कि हिंदी कविता को गद्य बनाने के पीछे कौन सी विवेक बुद्वि है तो उन्‍होने कहा कि हिंदी गद्य व पद्य को करीब आना ही चाहिये. दूसरी ओर साहित्‍य अकादमी के वरीय पदाधिकारी ब्रिजेंद्र त्रिपाठी का कहना था कि अकादमी अपनी ओर से प्रयास कर रहा है कि हिंदी कविता में पुन लय व छंदों को प्रमुखता मिले. जब हिंदी वाले ही अपने आप में यह तय नही कर सकते कि कौन सी चीज पाठकों को रूचिकर लगेगी और कौन सी नही, अथवा कैसे लेखन को वरीयता दी जानी चाहिये तो फिर भला आम पाठक अपनी समस्‍या को कहा रखें. वैसे निश्चित है कि प्रत्‍येक पाठक अपने प्रिय रचनाकार को बार बार अवश्‍य ही पढना चाहेगा. कार्यक्रम के दौरान जब हिंदी कविता में नारी विमर्श जैसी चीजें शामिल हो रही है या नही यह पुछे जाने पर कवियत्री अनामिका ने कहा कि कविता चौराहे पर होने वाली बातचीत की तरह हो चुकी है.सब कुछ सुख व दुख बांटना चाह रही है. निश्चित तौर पर इसमें नारी विमर्श के पुट भी शामिल हो रहे है. खैर, इतना तो सत्‍य है कि आज जो भी महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकें प्रकाशित हो रही खासकर, हिंदी भाषा में उनकी पांच सौ से तीन हजार प्रतियां ही प्रारंभ में छपती है,फिर उसके आठ दस पुनर्प्रकाशन के बाद उसकी सफलता का बखान किया जाता है. जबकि आज भी विदेशों में या अंग्रेजी भाषा के साहित्‍य की लाखों प्रतियां प्रकाशित होती है व प्रशंसित होती है. स्‍व भाषा या कहें राष्‍ट्रभाषा के संबंध में हमारी उदासीनता किस कदर है,इसकी परख करना मुश्किल है. आज से सात दशक पूर्व ही इस संबंध में गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए प्रताप में लि खा था कि जब किसी साम्राज्‍यवादी शक्ति द्वारा दूसरे देश पर कब्‍जा करने की कवायद की जाती है तो सबसे पहले उसकी भाषा के पर कतर दिये जाते है. भाषा के बिना कोई राष्‍ट्र अपने संपूर्ण शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता. आज भी हम भले ही हिंदी के विस्‍तार, वैश्विक होने, बाजारवाद के लिए आवश्‍यक समझे जाने अथवा अन्‍य कारणों को लेकर हिंदी भाषा का गुणगान कर ले,यह कहने में जरा भी अतिश्‍योक्ति नही बरते कि हिंदी विश्‍व की किसी भी अन्‍य भाषा के समक्ष खडी होने की ताकत रखती है किंतू यह सत्‍य है कि हिंदी के प्रति लगाव व भाषा की समझ हममें विकसित होनी अब भी शेष है.

Monday, October 6, 2008

हिंदी पत्रकारिता की दूर्दशा व दशा

मौजूदा समय में हिंदी पत्रकारिता की दूर्दशा से सभी लोग परिचित है चाहे वे पत्रकारिता जीवन में शामिल है या उसके सामान्‍य पाठक. यहां मैं सिर्फ इतना भर कहना चाहता हूं कि पत्रकारिता जीवन को लेकर आज से 77 वर्ष पूर्व 1930 इसवीं में दैनिक प्रताप के संपादक व हिंदी पत्रकारिता के युग पुरूष गणेश शंकर विद्यार्थी ने जाे भी आशंकाएं व संभावनाएं व्‍य‍क्‍त की थी उससे एक इंच भी आगे नही बढ पायी है. क्‍या गजब की सोच उन्‍होने व्‍यक्‍त की थी, पत्रकारिता जीवन का कैसा मापदंड तय किया था,सामाचार पत्रों के संचालन के संबंध में विचार व्‍यक्‍त किया था,आज भी कमोबेश वैसे ही हिंदी पत्रकारिता चल रही है. बलिदानी पत्रकार गणेश जी की मौत उस समय हुई थी जब वे कानपुर में फैले दंगे के बीच जाकर बीच बचाव का कार्य कर रहे थे. लोगों को आपस में कटने भीडने से रोक रहे थे. आज कैसे कोई पत्रकार उस स्थिति में जाना स्‍वीकार कर सकता है जबतक की उसमें उतना नैतिक बल नही हो. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेद्वी, महामना मदनमोहन मालवीय जैसे संपादकों के साथ कार्य कर चुके गणेश जी ने तब कहा था कि अहिंसा हमारी नीति है धर्म नही. महात्‍मा गांधी के विचारों से प्रभावित उनके अनुयायी की द़ढ भावना ही थी कि उन्‍होने अपने प्रताप के माध्‍यम से भगत सिंह , विस्‍मल जैसे क्रांतिकारियों के विचारों को प्रमुखता दी,आज उनके विचार एक लेखक पत्रकार के रूप में हम देख परख सकते है. हद तो यह है कि गणेश जी एक ऐसे इंसान थ्‍ो जिन्‍होने अपने जीवन में पहली बार जेल यात्रा ब्रि‍टि श सरकार की खिलाफत के कारण नही बल्कि स्‍थानीय जमींदार के द्वारा किये जा रहे अत्‍याचार की आंखों देखी रिपोर्ट प्रताप में प्रकाशित किये जाने को लेकर करनी पडी थी.आज किसी संपादक की जेल यात्रा की इस प्रकार का कारण होना असंभव व नामुमकिन है. आज मशीनों के साथ पत्रकार व समाचार पत्रों को धन उगाहने का माध्‍यम बना दिया गया है. लोग बाग जीवन के साथ अपने कर्तव्‍यों को भी नही समझ पा रहे है.

Monday, September 15, 2008

नपुंसक नेतृत्व से हल नहीं हो सकता आतंकवाद

देश की राजधानी हो या कोई अन्य प्रान्त बेरोकटोक आतंकी घटनाये घट रही है.हमारा नेतृत्व नाकाबिल हो चूका है व राष्ट्र की मर्यादा के विरुद्ध आचरण कर रहा है. यह कौनसी सी मज़बूरी है की आतंकी घटना राष्ट्रीय राजधानी में घट जाती है और हमारे खुफिया तंत्र विफल साबित हो जाते है ,हमारे राजनेता वोटो की राजनीती में लगे रहते है . इस मसले पर शायद ही किसी विद्वान या संवेदनशील नागरिक ने अपने विचार व्यक्त नहीं किये हो.हमारे राजनेता किसी भी मसले को इतना खीचते है की वह बदबू देने लगता है.क्या भारत सरकार को पता नही की देश में किस तरफ से कितना घुसपैठ हो रहा है.पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम का स्पस्ट मानना है-आतंक को रोकने के लिए केंद्र व राज्य का एकीकृत संयुक्त खुफिया तंत्र जरुरी है,साथ ही घुसपैठ रोकने के लिए एकीकृत सीमा सुरछा प्रबंधन की आवश्यकता है.सीमा पर आधुनिक सेंसर प्रणाली लगाना ,इन्फ्रा आधारित कैमरा लगाकर सखत नियंत्रण किया जाना चाहिए .उन्होंने सीमा सुरछा बल को सुझाव दिया है की इसरो द्वारा विकसित उपग्रह ,जो एक मीटर तक की छोटी जगह को भी देख सकता है उसे सीमा पर चौकसी में उपयोग करे.सवाल यहाँ यह है की एसा किये जाने से कौन अधिकारी या राजनेता रोकता है उसे चिन्हित किया जाना चाहिए.सर्वोच्च नयायालय की टिप्पणी है -लाखो लोगो का कोई जनसमूह जब किसी देश में अवैध रूप से प्रवेश कर जाता है तो यह एक प्रकार का आक्रमण है.इस आक्रमण से देश की सुरछा की जिमेदारी केंद्र सरकार की है . असम की ८२ लाख हेक्टेयर वन,भूमि,जनजातिय भूमि पर घुसपैठियों का कब्जा है.काजीरंगा नेशनल पार्क में हाथी और गैंडे की जगह बंगलादेशियों की झोपरिया दिखाई देती है.इस इलाके के छोटे बड़े व्यवसाय पर इनका दखल है.एक रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश को प्रतिदिन २० हजार गाय तस्करी होती है.बांग्लादेश में लगे मलेशिया के कत्लगाह से १,८७,००० टन गौमांश का निर्यात होता है ,जिससे सालाना ३०० करोड़ की आय होती है.हथियार,जाली नोट मादक व नशीले पदार्थ,एक रुपया के सिक्के की खास कर,क्योंकि इससे दो ब्लेड बनती है जो पांच रूपये में बिकती है. क्या भारत सरकार को यह सब कुछ नहीं पता है,नहीं है तो किसकी जिम्मेवारी है पता करने की.पाकिस्तान को लेकर कई बार चिंताए व्यक्त की जा चुकी है, क्या हमारी आंतरिक सुरछा नीति,विदेश नीति की समीछा कर इसे धारदार बनाने की जरुरत नहीं समझ में आती है.कबतक हम अपने भाई बहनों का लहू बहता हुआ देखते रहेंगे.आतंकी घटना के बाद जब एक घंटे के अंदर कोई गृह मंत्री तीन बार कपडे बदलता हो,उसे बैठको में हालत की समीछा कर त्वरित निर्णय लेने की सूझ भला कैसे हो सकती है.सत्ताधारियों को खुफिया एजेंसियों को विरोधी दलों के पीछे लगाने की बजाये, राष्ट्र की सुरछा में लगाना होगा. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब आम लोगो को ही नहीं बल्कि हर उस शक्श को अपने खून से स्वतंत्रता की कीमत चुकानी होगी.

Friday, September 12, 2008

हिंदी के प्रति दुराग्रह राष्ट्र का अपमान

पिछले दिनों मुंबई में जिस प्रकार से राज ठाकरे नामक तथाकथित राजनेता ने हिंदी बोले जाने को लेकर अमिताभ परिवार को अपमानित करने का प्रयाश किया वह निंदा योग्य है .हिंदी के ख्यात साहित्यकार के परिवार को जिस प्रकार से माफी मांगने को लेकर सार्वजनिक तौर पर बाध्य किया गया और अमितजी ने जिस उदारता से अपनी भावनाए प्रकट की ,यह हिंदी व हिंदुस्तान से सच्चा प्यार करने वाला ही एसा कर सकता है ,लुच्चो व लफंगों से निबटना भी हिंदी प्रेमी जानते है .हिंदी साहित्य के रचनाकारों को पूर्व में इससे भी ज्यादा प्रतारणा का शिकार होना पडा है लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की है .एसे लोगो के जिक्र से हिंदी साहित्य का इतिहास भरा पडा है .हिंदी सेवियों के परिवारवालों को कई जिल्लाते उठानी पड़ी है ,अपमान के घुट पीने पड़े है .वैसे भी कहा गया है की हिम्मते मरदा ,मददे खुदा .अमितजी के इस पुरे प्रकरण में जिस प्रकार की भूमिका निभाई है ,वे यहाँ भी बाजी मार गये है .लेकिन मेरी अपनी सोच है, प्रथमतः एसा अवसर प्रदान ही नहीं किया जाये ,न ही इसको लेकर कोई उतेजना पैदा की जाय ,लेकिन जब कोई गुंडा किसी भद्र व्यक्ति से उलझ ही जाने को तैयार हो तो उसे करारा जबाब दिया जाये ताकि भविष्य में फिर उसे एसा करने की हिम्मत ही न हो .पुरे प्रकरण पर हिंदी की रोटी खाने वालो का खामोस रह जाना बेहद दुखद है .हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है ,उसका अपमान अपने ही देश में हो ,और संबिधान के रखवाले चुप रहे ,यह नापंसुकता है .मुबई के पुलिस अधिकारी का यह कहना की मुबई किसी के बाप की नहीं है ,बिलकुल उचित है .क्या मराठी भाषी को उत्तर प्रदेश या बिहार में हिंदी नहीं बोले जाने को लेकर अपमानित या प्रतारित किया जाना उचित ठहराया जा सकता है .कश्मीर से कन्या कुमारी तक जो देश को एक नहीं समझता उन्हें यहाँ रहने का कोई अधिकार नहीं .

Saturday, September 6, 2008

बिहार में बाढ़

राष्ट्रीय आपदा की इस घडी में न जाने क्यों लोगो को जब भूमि विवाद चाहे वह सिंगुर का हो या अमरनाथ श्राइन बोर्ड का ,में उलझे देखता हु तो कुछ अजीब सा लगता है . क्या हम इतने संवेदना शून्य हो चुके है की जब देश में एक ओर लाखो की आबादी जीवन व् मृत्यु के दौर से जूझ रही है वैसे समय में हम अपने अपने स्वार्थ में लिप्त है .बिहार के बाढ़ प्रभावित जिलो में जाकर देखे कैसे हिन्दू मुसलमा एक साथ बैठ कर भोजन व् भजन कर रहे है .इस विपदा ने बड़बोले चेहरों को भी उजागर कर दिया है .खैरात में भीख दी जा सकती है ,लोगो की पीडा कम नहीं की जा सकती .बच्चे अनाथ हो चुके है ,कितनो का सिंदूर धुल गया है ,जीवन जीने का आधार छीन गया है यहाँ जो भी राहत सामग्री पहुच रही है उसे कोई सही तरीके से जरूरत मंदों तक पहुचाने वाला नहीं है .संकट के पल में हमने जीना सिखा है चाहे वह आतंकी घटनाये हो या प्राकृतिक आपदा लेकिन हमें धैर्य पूर्वक एक दुसरे का सहयोग तथा साथ देना भी सीखना होगा .कोसी की विनाशकारी लीला ने दो पीढियों बाद अपना रौद्र रूप दिखाया है .तब से अबतक नेपाल का रूप भी बदल चूका है .हमें अपने देश के नौनिहालों की चिंता करनी होगी अन्यथा याद रखे बड़े बड़े तानाशाहों व् हुक्मरानों को भी इतिहास भूलने में देर नहीं करता .जीवन की एक ही गति है सब को यहाँ सबकुछ छोड़ कर चले जाना है ,अपनी आदतों में सुधार नहीं लाये ,अपनी प्रवृत्यो को नहीं बदले तो इतना निश्चित मानिये की प्रकृति आपको स्वयम ही सुधार देगी .राष्ट्रीय संकट की इस घडी में संकट को वोट बैंक में बदलने अथवा इस में लूटपाट कर अपना घर भरने वालो सावधान हो जाये कही कोई है जो सबको देख रहा है . आइये , इस संकट को हम अवसर में बदल देने की कला सीखे .हम स्वयं में छिपी हुई मानवीय गुणों को विकसित करे .संकट की घडी में अफवाह फैलाने वालो से सावधान रहे .मीडिया भी खबरों की आपाधापी के बीच धैर्य बरते .जब चाहे बांध टूटने या फिर उसके नहीं टूटने की चर्चा न करे .डैमेज कंट्रोल के लिए जो भी बन पड़े किया जाना जरूरी है .राहत के पहुच रहे सामानों को सही हाथो तक पहुचाने में मदद करे .अफरातफरी की जो स्तिथि बनी हुई है उसे दूर करना होगा .आपदा के कारण उत्पन्न मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान देते हुए लोगो को उबरने में मदद करना होगा .
क्या कहे बाढ़ का जो सूरते हाल है वह बेहद पीडादायक है ,ज्यादातर समय अखबार के माध्यम से बाढ़ को लेकर सूचनाओ को इन दिनों बिहार सरकार व् आम जनता के बीच पहुचाने में बीत रहा है.सरकार तथा स्वयमसेवी संस्थाओ द्वारा राहत पहुचाने के प्रयास किये जा रहे है किन्तु सही व्यवस्था नहीं होने से अफरातफरी मची हुई है .बाते बहुत सी है .

Friday, August 29, 2008

भूख से बिलबिलाते बच्‍चे,उजडने व पुन बसने की नियति

उत्‍तर बिहार के कोशी अचंल में कोशी की धारा ने महाप्रलय मचा रखा है, नेपाल के कुसहा के समीप बांध टूटने के फलस्‍वरूप सहरसा जिला के पतरघाट,सौर बाजार एवं सोनबरसा प्रखंड में बाढ का पानी प्रवेश कर गया है, साथ ही सुपौल, मधेपुरा,पूर्णियां सहित छह जिलों के सैकडों गांव कोशी की धारा में विलीन हो गये. बच्‍चे भूख से बिलबिला रहे है, पिछले 10 दिनों से टीलों,भवनों, सार्वजनिक स्‍थानों पर शरण लिये हुए लोगों की सुधि लेने वाला कोई नही है. बडी ही ह़दयविदारक द़श्‍य है. सहरसा में सैकडों शरणार्थी पहुंच रहे है. कोशी कॉलोनी,सुपौल के रहने वाले संजीव कुमार बताते है कि सुपौल के ग्रामीण 100 रुपये किलो चुडा व दूध डेढ सौ रूपये लीटर खरीदने को बाध्‍य है,नमक 50 रुपये, अमूमन तीन रूपये में मिलने वाला बिस्‍कूट 20 से 50 रुपये किलो मिल रहा है. ऐसे समय में कालाबाजारियों की पौ बारह है. बांढ की विभीषिका से पत्‍नी व परिवार को निकाल कर किसी तरह सहरसा तक पहुंचे अमित कुमार बताते है कि मात्र 15 किलो मीटर की दूरी तय करने के लिए उन्‍हें साढे तीन हजार रूपये नाव वाले को देना पडा है. कहीं कही तो नाव वाले पांच हजार रुपये वसूल कर रहे है. मानव जीवन की इससे बडी त्रासदी क्‍या होगी जब लाखों लोग कोशी के प्रलय से जुझ रहे हो वैसे में कुछ टुच्‍चे लोग अपने स्‍वार्थ के कारण उसमें भी लाभ का योग ढूढ रहे है. मधेपुरा की सुनीता देवी इस लिए उदास है कि बांध व उंचे टीले के सहारे, नाव व पैदल वह परिवार को लेकर निकली किंतू उसके बढू ससूर छूट गये. कई परिवारों के आय का जरिया बने मूक जानवर बकरी, गाय,भैस को उन्‍हें मुक्‍त करना पडा ताकि वे अपना शरण ढूढे. बांध के टूटने, उसकी समय समय पर मरम्‍मति नही किये जाने के प्रति घोर लापरवाही बरतने के लिए राज्‍य सरकार को किसी भी तरह माफ नहीं किया जा सकता. कोशी ने पहली बार अपनी जलधारा नहीं बदली है, किंतू कोशी को पुन 1826 की स्थिति में ले जाने के लिए सूबे की अफसरशाही व राजनेता पूर्णतया दोष्‍ाी है. केंद्रीय सहायता, राजकीय सहायता, राष्‍ट्रीय आपदा घोषित किये जाने, राहत व मुआवजे का खेल बिहार में एक बार फिर शुरू हो गया है. गुरूवार को प्रधानमंत्री,यूपीए अध्‍यक्षा, कई केंद्रीय मंत्री, मुख्‍यमंत्री,बिहार सहित कई राजनेता पूर्णियां में उपस्थित थे. प्रधान मंत्री ने मुख्‍यमंत्री की मांग के अनुरूप एक हजार करोड रुपये राष्‍ट्रीय आपदा राहत कोष्‍ा से देने की घोषणा कर दी, चुनावी वर्ष में कोई भी राजनेता व दल बाढ को लेकर कुछ भी करने का मौका नहीं छोडना चाह रहे है. क्‍या इसके बावजूद इस समस्‍या के निदान के प्रति इनकी भावनाएं स्थिर है, क्‍या सचमुच बिहार को प्रत्‍येक वर्ष होने वाले बाढ की त्रासदी से मुक्ति मिल सकेगी, राहत व पुनर्वास के नाम पर राजनीति चमका कर सांसद व जनप्रतिनिधि बनने का मौका छोड विकास की ओर राजनेता सक्रिय हो सकेगा कई सारे प्रश्‍न अनुतरति है, कोशी क्षेत्र की जनता बार बार उजडने व बसने की नियति से निकल सकेगी यह कहना ब‍हुत ही मुश्किल है. वर्ष 93 में तत्‍कालीन मुख्‍य सचिव वीएस दूबे ने ऐसी परिस्थिति का पूर्व में आकलन करते हुए 18 दिनों तक कोशी के बांध पर कैम्‍प कर उसकी मरम्‍मति का कार्य किया था, रात 12 बजे उन्‍होने सिचाई मंत्री को सूचित किया था कि 'सर, वर्क इज ओवर, तब मंत्री ने मुख्‍यमंत्री लालू प्रसाद को उसी समय मुख्‍यमंत्री निवास में जाकर सूचित किया कि सर, उत्‍तर बिहार को बाढ की भयानक विपदा से बचा लिया गया. इस बार तो एनडीए के शासन काल में तो हद ही हो गयी, विकास व न्‍याय के शासन का राग अलापते नेता व नौकरशाह इस कदर निश्चित हो गये कि किसी को भी पिछले दो वर्षो से बांध की मरम्‍मति की नहीं सूझी. जब पानी का रिवाव शुरू हो गया तो बांध की मरम्‍मति को लेकर चहेते ठीकेदार की खोज शुरू हुई. तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी. मात्र एक एज्‍यकुटिव इंजीनियर के सहारे पुरे क्षेत्र को भगवान भरोसे छोड दिया गया था. स्‍थानीय ग्रामीणों के भडकने को लेकर राज्‍य सरकार की यही बेत्‍लखी थी. बाढ के जाने माने वशिेषज्ञ टी प्रसाद कहते है कि अंग्रेजी शासनकाल होता तो शायद इतनी बडी समस्‍या नहीं होती,अंग्रेजी प्रारंभ से ही मूल समस्‍या का आकलन करते हुए चरणबद्व तरीके से काम कर रहे थे. बाद की सरकारों ने इस पर बहुत अधिक ध्‍यान नहीं दिया, अब भी समस्‍या को लेकर एक दूसरे पर दोषारोपण करने के सिवाय किसी के पास कोई अन्‍य विकल्‍प नहीं है. ऐसे ही परिस्थितियों में हिंदी साहित्‍य ने फणिश्‍वर नाथ रेणु, बाबा नागार्जुन जैसे साहित्‍यकारों को पैदा किया था, कोशी क्षेत्र के साहित्‍यकारो्ं के अतिरिक्‍त हवलदार त्रिपाठी सहदय ने तो बिहार की नदियों पर पुस्‍तक ही लि खी जिसकी उपादेयता आज भी बरकरार है. आज आवश्‍यकता है कि बडे पैमाने पर 25 लाख्‍ा से अधिक बाढ पीडितों के बीच बडे पैमाने पर राहत व पुनर्वास कार्य किये जाने की, क्षति का आकलन करते हुए मूल समस्‍या के निदान किये जाने की. मीडिया की जिम्‍मेवारी भी इस में बढ जाती है. 18 अगस्‍त को बाढ आया लेकिन राष्‍ट्रीय मीडिया ने उसे प्रारंभ में तवज्‍जों नहीं दिया, जब विनाश की भयंकरता का उसे अहसास हुआ तब जाकर कैमरे की फोकस उधर बढायी गयी, उधर से आ रही रिपोर्ट पर नजर जानी शुरू हुई, बात बात में हल्‍ला मचाने वाली मिडिया इसीप्रकार कारपोरेट घरानों के हाथों में खेलती रही तो इसमें कोई शक व सुबह नहीं कि इनकी लोकप्रियता सिर्फ बुद्वू बक्‍से तक ही सीमित हो कर न रह जाये, अथवा कागज काले करने के बावजूद उस कागज को रददी से ज्‍यादा महत्‍व नहीं मिले.

Friday, August 22, 2008

शुद्वतावादियों से कैसे बचे हिंदी

कल ही वरिष्‍ठ साहित्‍यकार व साहित्‍य आलोचक डा नामवर सिंह ने जेएनयू में दिये गये एक व्‍याख्‍यान में कहा कि हिंदी को सबसे अधिक शुद्वतावादियों से खतरा है. उनका मानना है कि भाषा का क्रमिक विकास जारी रहता है. हिंदी के मनीषी नामवर जी का पुरा व्‍याख्‍यान प्रिंट माध्‍यम से सामने नहीं आ पाया है,इसलिए कतिपय बातों पर स्‍पष्‍टीकरण प्राप्‍त करना अनिवार्य लगता है. शुद्वतावादियों को लोग पहले तो पुचकारते है फिर भाषा के विकास को लेकर, उन्‍हें अपने डंडे से हांकने का प्रयास किया जाता है.शुद्वतावादी का चोला पहनकर मठाधीशी करने के उपरांत लगता है कि कई लोग इससे उबने लगे है. हिंदी निसंदेह 60 वर्षो के बाद अपने मूल रुप से अलग दि खने लगी है, उसके तेवर व सौंदर्य का भी विकास क्रमिक रुप से हुआ है. वर्तमान पीढी तकनीक पर सवार होकर अपने भाषा को विकसित करने में लगी है. संभव है कि हिंदी भाषा में कई नए शब्‍द व उसके रुप बदल रहे है. लेकिन शुद्वतावाद से अलग होने पर व्‍याकरण के बंधन से भी मुक्‍त होने को साहित्‍य प्रेमी प्रेरित होंगे. भडास सहित कई ब्‍लॉगवार्ता पर इसके रुप भी देखने को मिल रहे है. फिर तो मुक्‍ता अवस्‍थ्‍ाा में क्‍या हिंदी जिन मूल्‍यों व विचारों को लेकर आगे बढ रही थी वह आगे कायम रह पायेगा. शुद्वतावाद से अलग होकर निसंदेह हिंदी का विकास होगा, लेकिन उसे नये रुप में आगे बढने का मार्ग भी प्रशस्‍त करना होगा. हिंदी के विकास में साहित्‍यकारों के साथ 20सदी के पूर्वाद्व में नए नए पत्रों के द्वारा पत्रकारों के द्वारा भी भाषा के रुप गढे जा रहे थे. विदेशों से आने वाली खबरों को जनता तक पहुंचाने के लिए अंग्रेजी भाषा के सटीक हिंदी रुपांतरण के लिए वे अथक प्रयास कर रहे थे. इनमें कई अनाम साहित्‍यकार पत्रकार थे,जिन्‍हें हिंदी के वर्तमान आलोचकों द्वारा लगभग विस्‍म़त सा कर दिया गया है. हिंदी अपने जन्‍म काल से ही शुद्व रुप से अपने स्‍व को विकसित करने के क्रम में विभिनन देशी विदेशी भाषाओं को समाहित करती रही है. दूनिया की अन्‍य भाषाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है. जापान में मेइजी ने समाज सुधार के लिए चयनित नवयुवकों को अमेरिका भेज कर उनकी भाषा व तकनीक के ज्ञान प्राप्‍त करने को प्रेरित किया था. उसका फलाफल हम आज देख सकते है. भारत में मैकाले ने भले ही गुलामी को पुख्‍ता करने के लिए अपनी शिक्षा नीति नि र्धारित की थी लेकिन उस शिक्षा नीति ने हिंदी व हिंदूस्‍तान के विकास में दूसरे रूप से सहयोग किया. हर किसी चीज के सकारात्‍मक पहलू को भी स्‍वीकारना चाहिये. शुद्वतावादियों से हिंदी को बचाने के नाम पर हिंदी का अहित न हो जाये, उसका रुप विक़त न हो जाये इसका भी ध्‍यान रखना होगा. जीवंत भाषा व समाज बदलते रहते है, हिंदी बदली है, हिंदूस्‍तान बदला है, परिवर्तन संसार का नियम है. हिंदी नहीं बदली तो उसका भी हाल संस्‍क़त की तरह हो जायेगा. हिंदू शब्‍द की तरह हिंदी भी भारत में नहीं बना, ईरान से आया है ऐसे ही कई नए शब्‍द आयेंगे,जुडेंगे.
उसकी निजता बरकरार है व रहेगी, इस निजता के साथ छेडछाड संभव नहीं है. बाकि वाहय आवरण तो सदा बदलते रहेंगे.

Saturday, August 16, 2008

स्‍व तंत्र और स्‍वतंत्रता को कैसे समझे नवयुवक

मौजूदा संदर्भ में स्‍व तंत्र, स्‍वयं विकसित किये गये तंत्र और वास्‍तविक स्‍वतंत्रता का मतलब आज के युवा कैसे समझे. हद हो गयी शुक्रवार को, बीते 15 अगस्‍‍त के दिन. राजधानी पटना से 60 किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान न तो राजधानी में न तो रास्‍ते में और न ही 60 किलोमीटर दूर स्थित शहर में कहीं भी लाउडस्‍पीकर पर किसी कोने से देशभक्ति गीतों के स्‍वर सुनाई दिये. अपनी स्‍वतंत्रता के इस गौरवपूर्ण दिन को लेकर, राष्‍ट्रीय स्‍वाभिमान को लेकर ऐसी खोमीशी इससे पूर्व मैने अपने छोटे से जीवन में कभी नही देखी. इसलिए इस बात को आमलोगों के बीच पहुंचाने के लिए बाध्‍य हो गया. हमने जो अपने तंत्र विकसित कर लिये है उसमें कही से भी स्‍वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह गया है. भारतीय चिंतन पद्वति के अनुसार वैसे भी इस धरा पर कोई भी पूर्णतया स्‍वतंत्र नहीं है, सब ईश्‍वर, एक दिव्‍यशक्ति के नियंत्रणाधीन है.अगर बात ऐसी है तो कोई बात नहीं है.

Wednesday, August 13, 2008

1857 के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम का जश्‍न

आज हम सभी 1857 की क्रांति अथवा प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम के 150 वें वर्ष का जश्‍न मना रहे है. कैसा दुर्भाग्‍य है इस देश का जब हम अपने जश्‍न के दौरान मौजूदा हालात पर जरा भी गंभीर नहीं है. सभी राज्‍य सरकारें इस जश्‍न को मनाने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रही है. लेकिन कहीं से भी मूल्‍क के आंतरिक हालात, पडोसी देशों के साथ हमारे बिगडते संबंध, वैश्विक नीति, बाजारबाद इत्‍यादि के मूल्‍यांकन की तैयारी नहीं दि खाई पड रही है. 1857 का सशस्‍त्र विद्रोह, आधुनिक भारत के इतिहास का एक माइल स्‍टोन है. इस विद्रोह के फलस्‍वरूप जहां एक ओर भारत में ईस्‍ट इंडिया कंपनी का अस्तित्‍व समाप्‍त हो गया और सीधा ब्रिट‍ि श शासन शुरु हुआ, वही दूसरी ओर भारत पर ब्रिटि श शासन के संबंध में भारतीयों व अंग्रेजों का नजरिया भी पुरी तरह बदल गया. वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में क्‍या प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम को याद करते हुए हमारे जेहन में कहीं से भी यह बात आती है कि पिछले 150 वर्षो के बाद भी मूल्‍क में भ्रष्‍टाचार,भाई भतीजावाद, चरमपंथ, राजनैतिक पतन जैसे असाध्‍य रोगों से हम मुक्‍त हो पाये है. पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के तहत पोषित होने वाली बडी बडी कंपनियों के साथ कदम ताल मिलाते मिलाते हम क्‍या से क्‍या कर बैठे है. जीवन का सुकून व चैन छिन सा गया है.
पूंजीपतियों के सहारे भारतीय राजनीति को सीचिंत करने की शुरूआत बीसवी सदी के प्रारंभ से ही शुरू हो गया था. तब के कई वरिष्‍ठ साहित्‍यकार व पत्रकार इस स्थिति को भली भांति समझ रहे थे. वे स्‍पष्‍ट तौर पर देख रहे थे कि नेशनल एसेबली व प्रिवी कौसिंल की सदस्‍यता को लेकर कैसे पुराने व नये राजनीतिज्ञों में होड मची है. पत्रकारिता भी इससे अछूति नहीं रही थी. लोकमान्‍य तिलक की प्रशंसा करते नहीं थकने वाले तत्‍कालीन दक्षि ण भारत के एक पत्र के संपादक कैसे बाद में 3500 रुपये संगठन के फंड का गबन करने का आरोप लगाते हुए बाद में तिलक के विरोध में खडे हो गये थे. उत्‍तर भारत व पं बंगाल से निकलने वाले कई पत्र लगातार स्थिति का मुआयना कर रहे थे. इसमें कई जागरूक पत्रकार दंगे का विरोध करते हुए बीच सडक पर मारे गये, वही कईयों पर जातीय व देश सेवा के स्‍थान पर सांप्रदायिकता का लेबल चस्‍पा कर दिया गया. उन्‍हें देश ने बाद में याद करना भी मुनासिब नहीं समझा. हमें रूक कर फिर एक बार सोचना चाहिये.

Monday, August 11, 2008

हिंदूस्‍तान के नौजवान खिलाडी को सैल्‍यूट

अभिनव बिंद्रा ने ओलंपिक खेल में स्‍वर्णपदक प्राप्‍त कर 28 साल बाद भारत माता की झोली में लाल ओ जवाहर लाकर रख दिया है.

व्‍याकरण की भूलें व हास्‍य परिहास

कभी कभी व्‍याकरण की छोटी छोटी भूले हिंदी लेखन को हास्‍यास्‍पद बना देती है. माना कि कंप्‍यूटर के की बोर्ड पर कई बार उगंलियां अक्षरों को चिन्हित करने में भूलें कर बैठती है. कुछ अज्ञानतावश तो कुछ कंप्‍यूटर के की बोर्ड की विस्‍त़त जानकारी के अभाववश. अधिकांश ब्‍लॉगर चाहते हुए भी हिंदी की वर्तनी की भूलों से बच नहीं पाते. फिर भी हमारा प्रयास व्‍याकरण के अनुशासन में रहकर लेखन को विकसित करना होना चाहिये. संभव है इसमें कई त्रुटियां हो, लेकिन उसे समझने का भी प्रयास करना होगा. उदाहरण के लिए सिर्फ पूर्णविराम की गलतियों से कैसी हास्‍यास्‍पद स्थिति पैदा हो सकती है इसकी बानगी पर जरा गौर करें.

एक गांव में एक स्त्री थी । उसके पति यूनिक कंप्‍यूटर सेंटर मे कार्यरत थे । वह आपने पति को पत्र लिखना चाहती थी पर अल्पशिक्षित होने के कारण उसे यह पता नहीं था कि पूर्णविराम कहां लगेगा । इसीलिये उसका जहां मन करता था वहीं पूर्णविराम लगा देती थी ।उसने चिट्टी इस प्रकार लिखी--------मेरे प्यारे जीवनसाथी मेरा प्रणाम आपके चरणो मे । आप ने अभी तक चिट्टी नहीं लिखी मेरी सहेली कॊ । नौकरी मिल गयी है हमारी गाय को । बछडा दिया है दादाजी ने । शराब की लत लगा ली है मैने । तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे । भेडीया खा गया दो महीने का राशन । छुट्टी पर आते समय ले आना एक खुबसुरत औरत । मेरी सहेली बन गई है । और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी । बेच दी गयी है तुम्हारी मां । तुमको बहुत याद कर रही है एक पडोसन । हमें बहुत तंग करती है तुम्हारी बहन । सिर दर्द मे लेटी है तुम्हरी पत्नी .

Friday, August 8, 2008

रामसेतू विवाद और कंब रामायण

राम सेतू विवाद के निपटारे के लिए हाल ही में केंद्र सरकार को अचानक साहित्‍य की शरण में जाना पडा. सुप्रीम कोर्ट में तमिल में मूल रूप से लि खे गये कंब रामायाण को उद्वत किया गया. इसी कंब रामायण का हिंदी अनुवाद बिहार राष्‍ट्रभाषा परि षद द्वारा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है. इसका अनुवाद एनवी राजगोपालन ने किया है. साहित्‍य सदा से ही समाज व राष्‍ट्र का पथ प्रदर्शक रहा है. हमारे कई साहित्‍यमनीषीयों ने अपने अनुभव व ज्ञान से कई ऐसी प्रेरक रचनाएं प्रस्‍तुत की है जिनका अध्‍ययन व अवलोकन हमें सत्‍य के मार्ग पर आगे बढने में सहायता पहुंचाता है. महापंडित राहुल सांस्‍क़त्‍यान ने तिब्‍बत व हिमालय की पहाडियों में घूम घूम कर विपूल साहित्‍य एकत्रित किया, वह भी पटना म्‍यूजियम में सुरक्षित है. उनके द्वारा रचित मध्‍य एशिया का इतिहास का भी प्रकाशन बिहार राष्‍ट्रभाषा परि षद द्वारा किया गया है. 1956 में इस पुस्‍तक को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार भी मिला है. आज इतने महत्‍वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन करने वाले संस्‍थान की हालात कैसी है, इसे देखकर हिंदीसेवी व प्रेमियों की आंख भर आ सकती है.नौकरशाही व राजनीति की छाया से यह अबतक मुक्‍त नहीं हो पायी है. तीन वर्षो से इस संस्‍थान द्वारा पुरस्‍कार वितरण साहित्‍यकारों के बीच नहीं किया गया है. साथ ही, इसके ज्‍यादातर पुरस्‍कार हमेशा विवादों के केंद्र में रहे है. मानव संसाधन विकास व‍ि भाग बिहार सरकार को इसकी कोई चिंता नहीं. इस संस्‍थान को महापंडित गोपीनाथ कविराज जी की कई क़तियों के प्रकाशन का गौरव भी हासिल है. आज जो हिंदी हम प्रयोग में लाते है उसमें प्रस्‍तुत प्रथम गद्य रचना पं सदल मिश्र द्वारा रचित नासिकेतोपाख्‍यान के प्रकाशन का भी गौरव इस संस्‍थान को है. इस रचना की मूल प्रति आज भी इंपीरियल लाइब्रेरी लंदन में अंग्रेजों द्वारा सुरक्षित रखी गयी है. प्रसिद्व आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने भी इसे आधुनिक हिंदी के करीब होने वाली पहली रचना माना है. जब विकास प्रिय सरकारों का ध्‍यान अपने समाज के साहित्‍य संस्‍क़ति की सुरक्षा की ओर नहीं जाता है तो यह जिम्‍मेवारी समाज को स्‍वयं आगे बढकर उठानी चाहिये. आखिर कब तक सरकार को दोष देकर हम बचने का प्रयास करते रहेंगे. साहित्‍य के पहरूओं को अपने अपने प्रदेशों के हिंदी सेवी संस्‍थानों की भी खोज खबर लेनी चाहिये.

08/08/08 का चक्‍कर व मीडिया

हद हो गयी, अब बस भी करो, ये क्‍या है आम आदमी के बीच ज्ञान बांटा जा रहा है या हमारे मनीषियों, साधकों द्वारा वर्षो साधना कर प्राप्‍त किये गये ज्‍योति षय ज्ञान का बंटाधार किया जा रहा है. शाम होते ही हमारे घूमंतु मित्रों ने जाने कहां कहां से चक्रवर्ती ज्ञानियों को पकडकर ले आये, और शुरू होगयी बहस 08/08/08 के समान अंकों के कारण ये होगा, आप ये न करे, आप वो न करे, मानो कयामत टूट पडने वाली हो. ज्ञान को भय का साधन न बनाओं, अब बस भी करो. माना कि भारत भूमि ज्ञानियों से अटी पडी है, ज्‍यादातर लोग पढे से ज्‍यादा सुने पर विश्‍वास करते है, जब आप ब्राह़ांड की घूमती तस्‍वीर के साथ अनर्गल बातें बतायेंगे तो लोगों का दिमाग चक्‍कर में पडेगा ही. ऐसी बात नही कि ये सभी ज्ञान व जानकारियां सिर्फ विद्वतजनों के लिए ही सुरक्षित रहनी चाहिये, हम तो कहते है इसे सब को जानना चाहिये, किंतू क्‍या इस तरह से भय व मानसिक विक़तियों को परोश कर. बहुत अच्‍छा लगा जब किसी ने देश के प्रसिद्व ज्‍योि‍तषविद बेजान दारूवाला से चंद मिनटों की बातें लगे हाथ कर ली. उन्‍होने बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट कहा कि बेखौफ होकर,ईमानदारी पूर्वक अपना कार्य करें,घबराने की कोई जरूरत नहीं है. उन्‍होने कहा कि इस अंक के कमाल से भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है, भय हो तो मात्र दस फीसदी. किसी बात को बिना समय गवायें लपक लेने वाली मीडिया बस यही आकर गच्‍चा खा जाती है, किसी व्‍यक्ति के जीवन में जितनी महता प्रेम की है, उतनी ही भय की भी. नमक का प्रयोग तो खाने में अवश्‍य होता है किंतू ज्‍यादा नमक युक्‍त भोज्‍य पदार्थ किस प्रकार उच्‍च रक्‍तचाप को नि‍मंत्रण देता है इसका भी ख्‍याल रखना चाहिये. देश के सभी विजुअल चैनल जब एक साथ एक वि षय पर लगातार हाय तौबा करने लगे तो अचानक यह बात समझ से परे हो जाती है कि आखिर इस वि शेष ज्ञान का क्‍या मतलब है. देश में कई समस्‍याएं है. जम्‍मू कश्‍मीर भूमि के मामले को लेकर जल रहा है, विभिन्‍न प्रदेशों में आतंकी घटनाएं बढ गयी है. राजनीतिक दल अपने अपने स्‍वार्थो में लिप्‍त है. मंहगाई की मार से आम आदमी की कमर टूट रही है. पडोसी हमारी गतिविधियों पर नजर गडाए बैठा है, हम है कि इनसे दूर ग्रहों के मिलने व उसके पर‍ि णाम को लेकर चितिंत है. इस चिंता को दूर करने के साधन होने चाहिये किंतू इसका खुलासा ऐसे तो न हो कि आम आदमी भय के मारे अधमरा हो जाये.

Friday, August 1, 2008

मीडिया में आज भी हासिए पर है साहित्‍यकार

प्रिंट व इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में समान रुप से साहित्‍य व साहित्‍यकार हासिए पर ढकेले जा रहे है. प्रिंट मीडिया तो थोडी बहुत इज्‍जत बचाने के लिए साहित्‍यकारों की पुण्‍यतिथि व जन्‍मतिथि को स्‍थान भी उपलब्‍ध करा देता है किंतू इलेक्‍ट्रानिक मीडिया तो इससे परहेज करने में ही अपनी चतुराई समझता है. 31 जुलाई को ख्‍यात साहित्‍यकार प्रेमचंद की जंयती थी, साथ ही उसी दिन गायकी के बेताज बादशाह मो रफी पुण्‍यतिथि भी. प्रिंट मीडिया ने तो थोडा बहुत स्‍थान दोनो महानायकों को दिया किंतू इलेक्‍ट्रानिक मीडिया यहां भी डंडी मार जाने में भलाई समझी. क्‍योकि मो रफी को याद करने के बहाने गीत व संगीत के रुप में दर्शकों को मनोरंजन परोसा जा सकता है किंतू प्रेमचंद इसके लिए बिल्‍कुल ही अनुपयुक्‍त साबित होते है. वैसे भी प्रेमचंद पर मीडिया कवरेज के लिए भारी मशक्‍त करने की जरूरत हो सकती है. हद तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता व हिंदी में महत्‍वपूर्ण योगदान देने वाले व्‍यक्तित्‍व चाहे वह प्रेमचंद हो, प्रताप के संपादक रहे बलिदानी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हो, या अंग्रेजी हुकूमत से जुझने वाले माखनलाल चतुर्वेदी, पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा इन्‍हें याद करने की फुसर्त किसे है. संयोगवश पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा की 81 वीं पुण्‍यतिथि 23 जुलाई को थी. उनके बारे में तो नयी साहित्यिक पीढी को शायद बहुत कुछ मालूम भी नहीं है. साहित्य सेवियों की नयी पौध को शोध व अपने पुर्वजों के बारें में जानने की फुर्सत भी नहीं है. साहित्यसेवियों को मीडिया द्वारा व्‍यापक फलक तब प्रदान किया जाता है जब उन्‍हें बुकर पुरस्‍कार या अन्‍य उल्‍‍लेखनीय पुरस्‍कार प्रदान किये जाते है. जैसे ये पुरस्‍कार इस बात के मानक बन चुके है कि उन्‍हें चर्चा के लिए कितना स्‍थान दिया जाना है. मो रफी को तवज्‍जों दिये जाने से मेरी कतई मंशा नहीं है कि उनका सामाजिक अवदान कम है या उन्‍हें कमतर स्‍थान मिलनी चाहिये. साहित्‍यकार अपने समय व समाज का प्रतिनिधि होता है. उसे भूलकर हम सिर्फ मनोरंजन के द्वारा अपने समाज को किस मार्ग पर ले जाना चाहते है यह तय करने की जरूरत है. द़श्‍य व श्रव्‍य माध्यम से आज की युवा पीढी ज्‍यादा प्रभावित हो रही है. पढने की आदत छूटती जा रही है. इस आदत के कारण मीडिया में वह मांग नहीं पैदा हो पा रही है, जिस कारण पुस्‍तकों की महत्‍ता पुर्नस्‍थापित हो सके. यह अलग बात है कि इतने सारे अवरोधों के बावजूद हिंदूस्‍तान के किसी भी शहर में पुस्‍तक मेलों का आयोजन हो, भीड खींची चली आती है. यह स्‍वत र्स्‍फूत भीड होती है. यहां कोई ग्‍लैमर नहीं होता. भीड में वेद, भाष्‍य के साथ ओशों के भी पाठक होते है, वही ज्ञान विज्ञान, साहित्‍य, पाक कला, मनोरंजक पुस्‍तकों के रसिक भी होते है. इन्‍हें मीडिया की चमक दमक की जरूरत
नहीं पडती.

Saturday, July 26, 2008

रो रही वैशाली.....

वैशाली जार जार रो रही है. उसका रोना न तो किसी की समझ में आ रहा है न वह किसी को कुछ स्‍वयं समझाना चाहती है.उसकी पीडा बहुत ही विकट है. उसे न किसी के प्रति क्रोध है न किसी से अब उम्‍मीद ही बची है. कदाचित, घोर निराशा की घडी उसके जीवन में इतनी पूर्व में कभी नही हुई थी. उसने राजतंत्र को धीरे धीरे समाप्‍त होते देखा था, मगध साम्राज्‍य के उदभव व विकास के साथ उसे नेस्‍तानबुद होते भी देखा. मध्‍यकाल, मुगलकाल फिर उसके बाद आयी अंग्रेजों की गुलामी का दौर जब वैशाली घोर निराशा के दौर से गुजर रही थी. वैशाली की पीडा सिर्फ गुलामी की पीडा नहीं थी, उसे अपनो द्वारा जमींदारो, सामंतों द्वारा चलाये जा रहे समांतर व्‍यवस्‍था की पीडा भी कष्‍ट पहुंचा रही थी. उसे अपने संतानों पर भरोसा था. उसे मालूम था कि एक दिन ऐसा आयेगा,जब फिजां में गणतंत्र का परचम फिर लहरायेगा. गणतंत्र जिसमें न कोई छोटा होगा न बडा, न कोई शासक होगा न शासित, न कोई शोषक होगा न कोई शोषण पीडित. उसकी ऐसी मान्‍यता इस लिए थी कि संपूर्ण भू मंडल पर पहली बार गणतंत्र का विकास उसी के आंचल की छांव में हुआ था. आज वह जार जार रोने को मजबुर है. उसे अपनी संतानों पर से विश्‍वास उठ चुका है. उसे पता नहीं कि फिर कब गणतंत्र अपने मूल रूप में सामने आयेगा. ऐसा चारो ओर अंधेरा दीख रहा है. जिस राष्‍ट्र को गणतंत्र की शुरूआत करने का गर्व था, आज उसी राष्‍ट्र की सर्वोच्‍च लोकतांत्रिक इकाई संसद में मां भारती के बेटों ने, वैशाली के बेटों ने उसे लज्जित कर दिया है. सब एक दूसरे पर लांक्षन लगा रहे है. यह वक्‍त विश्‍लेषण करने का नहीं कि किसने क्‍या किया, यह सोचने का है कि आगे हम क्‍या करें कि पुन ऐसा दिन देखने को नहीं मिले. हमारे गणतंत्र को दागदार बनाने वाले धोखेबाज,गददार व राष्‍ट्रद्रोही तत्‍व नकाब ओढकर जनता को धोखा न दे सके,ऐसा क्‍या करें. वैशाली के वंशज, भरत के वंशज जो शेरों के दांत गिना करते थे, अपने प्राणों की आहुति देकर भी अपनी मात़भूमि की लाज बचाते थे, आज उन्‍हें क्‍या हो गया है. 'जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरियसी, का उदघोष करने वाले आर्यावर्त की भूमि को नपूंसकों ने ऐसी स्थिति में ला दिया है जहां राष्‍ट्रभक्‍तों की हुतात्‍माएं चित्‍कार कर रही है. यह गजब का संयोग है कि भारतीय युद्व इतिहास के महानायक जनरल मानिक शॉ ने इस घटना के पूर्व अपनी आंखे बंद कर ली, सोचिए उनपर क्‍या गुजरती जब वे ऐसा करते अपने जनप्रतिनिधियों को देखते. मानव तस्‍करी, मानव की खरीद फरोख्‍त को मानवाधिकार का हनन बताने वाले जब जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्‍त में जुट जाये तो स्थिति सोचनीय हो जाती है. धन्‍य है ऐसे राजनेता जिन्‍हें वैशाली के आंसू नहीं बल्‍कि सत्‍ता की कुर्सी द‍ि खाई पडती है.

Monday, July 21, 2008

गण वि‍हीन तंत्र

आज पुरे देश में तंत्र की ही चलती है. तंत्र का जीवन के प्रत्‍येक पहलू पर अधिकार है. यह अधिकार भी अनजाने में उसे नहीं मिला है, भारतीय संव‍ि धान ने उसे प्रदान किया है. तंत्र अपनी मस्‍त चाल से काम करता है,गण बेहाल रहे इससे उसे कोई मतलब नहीं. चाहे किसान आत्‍महत्‍याएं करे, रोटी के लिए जंग मची हो, गरीबी की रेखा दिनो दिन बढती जा रही हो, मंहगाई कमर तोडती रहे, तंत्र अपनी धुन में लगा रहता है. तंत्र द्वारा गण को शेयर मार्केट व सेंसेक्‍स की गिरती उतरती तस्‍वीर दि खाई जाती है, उसे बताया जाता है इंडिया शायनिंग. महानगरों की चकाचौंध, देश की बदलती तस्‍वीर, कैमरे की चमक के बीच आम नागरिक की देशभक्ति ताकि वह भ्रम में न रहे. रोम में ऐसा ही हो रहा था जब नीरो बांसुरी बजा रहा था और लोगो से पूछता था कि रोटी नहीं मिल रही है तो वे ब्रेड क्‍यो नहीं खाते. 15 अगस्‍त हो या 26 जनवरी राष्‍ट्रीय पर्व भी गण के लिए बेमतलब होते जा रहे है. हिंदी पत्रकारिता हो या क्रांतिवीरों की देशभक्ति आज उसके कोई मायने नहीं रह गये है. भारतीय संवि धान के निर्माताओं ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा कि जिन गणो के लिए तंत्र का निर्माण कर रहे है वही एक दिन भस्‍मासुर की तरह गण को तबाह करने पर तुल जायेगा. आज महंगाई की मार बढती है तो वित्‍त मंत्री मुंबई की ओर भागते है. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर खतरा मंडराने लगता है, केंद्र की सरकार गिरने की स्थिति में आ जाती है तो कारपोरेट घराने याद आने लगते है. एक एक जनप्रतिनिधि को रूपयों में तौला जाने लगता है, सजायाफता भी मेहमान नजर आने लगते है. क्‍या इन्‍हीं दिनों के लिए राष्‍ट्र निर्माताओं ने स्‍वयं की कुर्बानी दी थी. अपने वतन पर दिला जान नियोच्‍छावर कर दिया था. जिस बाजारवाद,उदारीकरण, ग्‍लोबलाइजेंशन के कारण शायनिंग इंडिया की तस्‍वीर बनाने को हम मजबूर हो गये है क्‍या उस पर नकेल कसना अब मुश्किल हो गया है. हमारे मस्तिष्‍क इतने कुंद हो गये है कि हमें राह नही सूझ रही है. गण को एक बार फिर ठहर कर सोंचना होगा. तंत्र के भुलावे में नहीं पडकर देखना होगा कि कैसे अपनी बाजुओं को मजबूत कर हम अपनी मात़भूमि को दलाल, मक्‍कार व फरेबी चेहरों से बचाकर रख सकते है. सरकारे आती जाती रहेंगी, राष्‍ट्र को बचाना होगा.हमें अपनी तकदीर स्‍वयं गढनी होगी. तंत्र को अपने अनुसार कार्य करने योग्‍य बनाना होगा.

Thursday, July 17, 2008

परमाणु करार पर राजनीतिज्ञों की रस्‍साकशी

अजब व गजब मूल्‍क है हिंदुस्‍तान. यह कब किस बात को लेकर राजनीतिज्ञों के विचार बदल जाते है,इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. अब लीजिए, परमाणु करार को मुददा बनाकर, केंद्र की सरकार के माथे पर बल वामपंथियों ने डाल दिया है. भाई मेरे सत्‍ता के समर्थन व समर्थन वापसी से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है देश. भारत भूमि पर बिजली की उपलब्‍धता हो, चहुंओर जगमग रोशनी हो, लोगों के रोजी रोजगार में विद्यूत उर्जा का उपयोग हो, ये भला देश का कौन ऐसा नागरिक नहीं चाहेगा. हां,इसको लेकर राजनीति की दूकान चमकानी हो, तो भला और बात है. वामपंथियों को यह कहना बिल्‍कुल ही जायज है कि आखिर इस करार के प्रति देश की प्रतिष्‍ठा को कहीं पश्चिम के हाथों गिरवी तो नहीं रखी जा रही है. इसे स्‍पष्‍ट करना केंद्र सरकार का काम है. केंद्र सरकार है कि करार के पूर्व न तो कुछ प्रदर्शित करना चाहती है न छिपाना ही चाहती है. इस प्रकार के दोरंगी नीति से आम आदमी को क्‍या लेना देना. आखिर देश के प्रत्‍येक नागरिक को यह जानने का अधिकार है कि यह करार आखिर क्‍या बला है, जिसकों लेकर इतनी हलचल मची हुई है. आम आदमी के पल्‍ले सिर्फ यह बात आ रही है कि केंद्र की सरकार को बचाने के लिए हाय तौबा मची हुई है. पुरा देश महंगाई की पीडा झेल रहा है. भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी हो या अन्‍य पार्टियां, सब अपने अपने सांसदों को एकजुट करने में लगी है. सांसदों की खरीद फरोख्त हो रही है. कोई 25 करोड की बोली लगा रहा है तो कोई उससे कम पर बिकने के लिए तैयार नहीं है. कोई संसद का सभापति बने रहना चाह रहा है तो कोई उन्‍हें नैतिकता का पाठ पढा रहा है. असंसदीय व असभ्‍य भाषाएं राजनेताओं के सिर चढ कर बोल रही है. अब तो यह भी खबर आ रही है कि दिल्‍ली से आये किस अज्ञात फोन कॉल के संदेश प्राप्‍त करने के बाद उज्‍जैन स्थित तांत्रिक जप व हवन में लग गये है ताकि सरकार को बचाया जा सके. बंद करें यह सब बकवास. केंद्र हो राज्‍य सरकारे कहीं कोई राजनीतिक शुचिता है ही नहीं. दिल्‍ली जब ऐसी होगी तो लखनउ,पटना,मुंबई, भोपाल इत्‍यादि राज्‍यों की राजधानी में क्‍या प्रभाव पडेगा. हमें थोडा ठहर कर विचार करना चाहिये, क्‍या इसी तरह एक विकसित भारत का निर्माण हम कर पायेंगे, क्‍या हम भावी पीढी को इसी तरह का भारत सौंपगें.

Wednesday, July 16, 2008

सरकारी नीतियां व उनके पालनहार

मैं अखबार से जुडा हुआ हूं, सरकारी की नीतियों व उसे लागू किये जाने के तौर तरीकों पर नजर रखता हूं. कई बार यह देखकर हैरानी होती है कि देश की सबसे योग्‍य प्रत‍िभा जिसे हम आईएएस कहते है,उनके द्वारा राजनेताओं के संरक्षण में तैयार की गयी सरकारी नीतियों में इतनी विसंगतियां होती है,जिसे आम द्वारा समझ पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्‍य होता है. आखिर प्रशासन का उदेश्‍य क्‍या है. यह उन नीतियों को देखकर समझना पटना से पैदल चंडीगढ जाना है. जनता के लिए हितकारी कही जाने वाली नीतियों से आम नागरिक के स्‍थान पर राजनेता व अधिकारी,कर्मचारी ही फलते फूलते है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी में इतनी तो नैतिकता अवश्‍य थी कि उन्‍होने स्‍वीकार किया था कि दिल्‍ली से चलने वाला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते पहुंचते 25 पैसे में तब्‍दील हो जाता है.वह भी खर्च होता है इन अधिकारियों की क़पा पर. इन दिनों इंद्र देव की क़पा भारत वर्ष में चहुंओर बरस रही है.इंद्र देव ने अपनी डयूटी समय पर ही शुरू की लेकिन चाहे मुंबई का मुनिसिपल कारपोरेशन हो या पटना का नगर निगम दोनों के कार्य करने की पद्वति में ज्‍यादा का अंतर नहीं महसूस नहीं होता. दोनो स्‍थानों पर जल जमाव के कारण आम नागरिक,इसमें नेता,अभिनेता, व एक मध्‍यमवर्गीय परिवार भी शामिल है, को भारी परेशानियों का सामना करना पडता है. कोई इस पर वरीय अधिकारियों से जबाब तलब करता है तो बेशर्मी की हद लाघंते हुए अपनी सीमाएं बता दी जाती है. मानो इंद्र देव के कोप का निवारण कोई अन्‍य देव ही कर सकते है. आखिर यह क्‍या है. विकास पुरूष कह जाने वाले राजनेता, लोकप्रिय कहे जाने वाले राजनेता क्‍या इतना भी समझने में असमर्थ है. देश की आधी से अधिक आबादी को नित दिन भ्रष्‍टाचार का सामना करना पडता है. चाहे आप राशन कार्ड बनवाना चाहते हो, या पासपोर्ट, किसी के जीवन भर सेवा के बाद पेंशन प्राप्‍त करने की बात हो या अन्‍य कोई सरकारी कार्यालय से संबंधित कार्य ईमानदार आदमी ढूंढे नहीं मिलते. भ्रष्‍टाचार की सामांतर व्‍यवस्‍था इस कदर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगी है कि अब तो न्‍यायाधीशों के भी कारनामें प्रकाश में आने लगे है. इस हालात पर मौजू दो पंक्ति याद आ रही है जिसे प्रस्‍तुत करना चाहूंगा........
मेरा कातिल ही मेरा मुंशिफ है, वो क्‍या मेरे हक में फैसला देगा/ आदमी आदमी को क्‍या देगा, जो भी देगा, वो खुदा देगा.
मैं यह नहीं कहता कि देश की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी में की जा रही प्रत्रकारिता इससे अछूती है. गिरावट सभी स्‍तरों पर समाज में आयी है. आज कैसे कैसे छुद्र स्‍वार्थो के लिए कलम को गिरवी रखकर कार्य किये जा रहे इसकी भी पडताल की जानी चाहिये. कैसे, बाजारवाद के प्रभाव में आकर पुरा वातावरण प्रदूषित हो गया है. इसमें हमें अपने राष्‍ट्र को किस ओर ले जाना चाहिये. क्‍योकि अतंतह राष्‍ट्र बचेगा तो हम बचेंगे,आनी वाली पीढियां हमारा ही अनुकरण करेंगी. अभी विश्‍व जनसंख्‍या दिवस 11 जुलाई को केंद्रीय मंत्री अंबुज मणि रामदॉस पटना आये थे,उन्‍होने बडी साफगोई से यह कहा कि बच्‍चों के विद्यालयों के आस पास से पिज्‍जा बर्गर आदि खाद्य पदार्थो को दूर रखने का निर्देश दिया गया है, कोल्‍ड डिंक के सेवन पर रोक लगायी जानी चाहिये. परंतु जब मंत्रीजी से यह पूछा कि आप बतायें राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य ि‍मशन के तहत बिहार सरकार को केंद्र ने कितनी राशि दी,और उसमें से कितनी राशि व्‍यय की गयी तो वे बगले झांकने लगे, उनके साथ मौजूद एनआरएचएम के निदेशक सहित अन्‍य अधिकारी भी यह बता पाने में स्‍वयं को असमर्थ थे, जबकि प्रेसवार्ता केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय द्वारा आहूत की गयी थी. सिर्फ मीडिया का लोकप्रिय स्‍लोगन, बडे कारपोरेट घरानों, अभिनेताओं पर कीचड उछालने, लोकप्रियता अर्जित करने के लिए उपयोग किया जाना, आम जनता के विश्‍वासों के प्रति अक्षम्‍य अपराध है. हमें सुदूर गांवों में रहने वाले उन लोगों के जीवन के बारे में भी सोचना होगा जिनके आस पास उनके बच्‍चों के लिए न तो अच्‍छे विद्यालय है, इलाज के लिए न तो अच्‍छे अस्‍पताल है, वहां बिजली की सुवधिा तक उपलब्‍ध नहीं है. अधिकांश लोगों के पास रोजी रोजगार के साधन नहीं है. भारतीय संवि धान क्‍या सिर्फ दिल्‍ली, मुंबई व महानगरों के लिए बनायी गयी है. देश के सुदूर क्षेत्रों से निर्वाचित होकर आने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए क्‍या ग्रामीण जनता के जीवन का कोई मूल्‍य नहीं है. क्‍यो आखिर वादो, विचारो, व नारों की शोर में शासन,प्रशासन,मीडिया,न्‍यायालय, अपने दायित्‍वों को भूल जाते है.

Friday, July 11, 2008

जातिवाद व पूंजीवाद का हिंदी पत्रकारिता पर बढता दुंष्‍प्रभाव

मन में बहुत क्षोभ होता है यह देखकर कर वर्तमान हिंदी पत्रकारिता का दौर जातिवाद,संप्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद तथा पूंजीवाद के चंगूल से नहीं निकल सका है, और हिंदी पत्रकारिता अपने को प्रोढ मानने को उतावली है. क्‍या ऐसा भी होता है. क्‍या यह संभव है. आखिर पत्रकारिता किस के लिए व क्‍योकर की जा रही है. खबरों की आपाधापी में वे कौन से मूल्‍य है जो हमें अपनी ओर हमारा ध्‍यान नहीं खींच पा रहे है. अगर नहीं खींच पा रहे है भी तो उसके लिए क्‍या पत्रकार जिम्‍मेवार है अथवा पत्रकारिता का जो पुरा दौर है वही दूषित व कुंठाग्रस्‍त हो चुका है. क्‍या वामपंथ, दख्‍ख्निन, या नक्‍सल, इस्‍लामिक अथवा गैरइस्‍लामिक वादो से इतर पत्रकारिता नहीं की जा सकती. पत्रकारिता का आधार विचार है, भावनाएं है तो क्‍या हम अपने चश्‍मे को ठीक ढंग से नहीं रख सकते. क्‍या अपने विचारों को थोंपने के लिए दूसरों के विचारों को गलत प्रमाणित किया जाना जरूरी है. एक मासूम से बच्‍चे के माता पिता की हत्‍या हो जाती है,वह टयूबवेल में गिर जाता है तो उसे टीआरपी बढाने का औजार बना दिया जाता है. क्‍या निजी जीवन व विचार की कोई प्राथमिकता बच भी गयी है क्‍या. सार्वजनिक जीवन जीने वालों के लिए तो बेहद दूश्‍कर सा कार्य हो चुका है कि वे अपनी निजता को कैसे सुरक्षित रखें. हमें हमारे संस्‍कारों की शिक्षा अब माता पिता से नहीं अपितू मीडिया से ग्रहण करनी पड रही है. हमें क्‍या खाना है, कौन से कपडे पहने है, कैसे अपने भविष्‍य के लिए उपाय करने है, यह सब मीडिया तय कर रही है. पटना विश्‍वविद्यालय के एक हिंदी शिक्षक ने जो बाद में संसद सदस्‍य भी हुए, पदम श्री भी प्राप्‍त किया, एक बार चर्चा कर रहे थे कि कैसे दिल्‍ली में तीन हजार से भी अधिक पत्रकार उन दिनों सक्रिय थे, उनमें से तीन सौ ऐसे पत्रकार थे जिनकी पहुंच सीधे प्रधानमंत्री निवास तक थी. आप उनसे जैसा भी कार्य कहें, चाहे किसी का राशन कार्ड बनवाना हो, किसी को नौकरी दिलवानी हो, किसी का रूका हुआ कार्य हो, कोई टेंडर प्राप्‍त करना हो, लाखों की डील हो या दलाली सबमें वे माहिर थे. तब शायद इलेक्‍ट्रानिक मीडिया का इतना असर नही था. आज जब कैमरे की चौधियाहट में क्‍या मंत्री क्‍या अधिकारी, आम जनता तक की आंखें चौधीया रही हो ऐसे में भला अदना सा नागरिक क्‍या कर सकता है. जातिवादी धारणाओं का यह आलम है कि हिंदी पत्रकारिता अब चाटुकारिता में तब्‍दील होती जा रही है. पुंजीवाद का नंगा नाच हमारी आंखों पर पटटी बांधे हुए है. पैसा है तो आप अपनी फिल्‍म बेच सकते है, इंडस्‍ट्रीज खडा कर सकते है, नेतागीरी चमका सकते है. मीडिया धन बंटोरने के लिए हर वो काम करने को तैयार है जो शायद हिंदी पत्रकारिता की नींव तैयार करने के क्रम में खंडवा से निकलने वाले पत्र के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी, कलकता से निकलने वाले पत्र के संपादक पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा सहित वैसे किसी पत्रकार ने नही सोंची होगी. जिसके लिए उन्‍होने अंगरेजी हुकूमत के जुल्‍म सहे, जेल गये, अपने जीवन को होम कर दिया. सरस्‍वती के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारों की नयी पौध विकसित करते वक्‍त यह नहीं सोंचा होगा कि इनके वंशज भविष्‍य में कौन सा गुल खिलायेंगे. हिंदी,हिंदूस्‍तान की कैसे मिटटी पलीद होगी. हिंदूवाद के नाम पर पत्रकारिता का वह दौर चलेगा कि बिहारी, बंगाली, मराठी,यूपी के लोग बंट जायेंगे.

Monday, July 7, 2008

हिंदी पत्रकारिता में पालिटिक्‍स,धर्म व सेक्‍स का बढता वर्चस्‍व

पटना - हिंदी पत्रकारिता में इन दिनों एक नयी ट्रेंड उभर कर सामने आयी है, वे या तो मीडिया के कोई साधन हो, प्रिंट अथवा इलेक्‍ट्रानिक या इंटरनेट पत्रकारिता, हर जगह पाठकों की भूख बढ गयी है. इसे पुरा करने के लिए इन दिनों राजनीत‍ि, धर्म व सेक्‍स को आधार बनाया जाने लगा है. हिंदी पाठकों को भी इन दिनों पत्रकारिता के भटकाव का सामना करना पड रहा है. आखिर इसका क्‍या समाधान हो सकता है. कई ऐसे मुददे इससे उभर कर सामने आते है. मूल रूप से हमें इस पर विचार करने के पूर्व उन सभी तथ्‍यों पर गौर करना होगा जो इसके लिए उत्‍तरदायी है. जो सबसे प्रमुख बिंदू हमारी नजरों में उभर कर सामने आ रहा है वह है राष्‍ट्रीयता की भावना का अभाव. देश को स्‍वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष पुरे होने को है. दो तीन युद्वों को सामने देख चुके इस देश में आज भी राष्‍ट्रीयता की भावना सिर्फ 15 अगस्‍त व 26 जनवरी को स्‍कूलों में बच्‍चों के बीच देखी जा रही है. क्‍या कारण है कि आम जनता उस दिन मिली छुटटी को इंजावाय करने में जुट जाती है. क्‍या इसी के लिए आजादी की कल्‍पना की गयी थी. हिंदी अखबार व चैनल भी राष्‍ट्रीय त्‍योहारों को ग्‍लैमराईज कर प्रस्‍तुत करने में जुट जाते है. इस देश का दुर्भाग्‍य यह है कि शायद ही किसी के घर में देश का एक नक्‍शा भी उपलब्‍ध हो, अथवा है भी तो उसे प्रदर्शित किया गया हो, घर में उचित स्‍थान पर टंगा हो.जबकि जर्मनी, जापान सहित कई मुल्‍कों में ऐसा शायद ही देखने को मिलता है. स्‍वयं जिस अमेरिका के पिछलग्‍गू बनने में हमें कोई परेशानी नहीं होती उस देश में भी नागरिकों का देश प्रेम देखते बनता है. वहां की मीडिया राष्‍ट्रीय हितों के मुददे पर किसी को भी नहीं बक्‍शती है चाहे वह राष्‍ट्रपति हो या व्‍यावसायी, वैज्ञानिक हो या कोई अन्‍य. दूसरा सबसे बडा प्रश्‍न यह उठता है कि राजनीति को आखिर किस दशा में पत्रकारिता देखना चाहता है यह उसे स्‍वयं पता नहीं है. यहां अपराधी को महिमामंडित किया जाता है वही उसके सांसद व जनप्रतिनिधि बनने पर हिंदी पत्रकारिता में खिचाई करते हुए नैतिकता व शुचिता का बखान किया जाता है. जैसे अपराधी का जन प्रतिनिधि बनने में सिर्फ उसकी ही भूमिका हो, जनता,मीडिया, संवैधानिक संस्‍थाओं व सरकारी उपक्रमों की भूमिका गौण हो. इसकी पडताल नहीं की जाती कि कैसे कोई अपना मतदान नही कर पाता, क्‍यों मतदान को अनिवार्य घोषित नहीं किया जाता, मतदान नहीं करना दंडनीय क्‍यों नहीं बनाया जाता. आखिर क्‍यों मात्र 15 से 30 फीसदी वोट पाने वाला दल देश को दल दल में डाल देता है. मंहगाई, अपराध, आतंकवाद, भष्‍ट्राचार को पनपने में क्‍यो सत्‍तारूढ दल सार्थक भूमिका में स्‍वयं को खडा कर देता है.
धर्म को भी हिंदी पत्रकारिता जरूरत से ज्‍यादा बिकने वाली चीज मान बैठा है. किसी धर्म गुरू के व्‍याख्‍यान व आख्‍यान को जनता तक पहुंचाना और बात है किंतू सुबह से शाम तक योग, प्रवचन व धर्म चर्चा के नाम पर लोगों के दिमाग पर इस कदर बातों को फेट दिया जा रहा है जैसे धर्म व धार्मिक प्रवचन सुनने के बाद आदमी संत हो जाता है. जीवन के प्रति उसकी सोच बदल जाती है. वह सत्‍यकर्म की प्रेरित हो जाता है. हद तो तब हो जाती है जब तंत्र के नाम पर देर रात जहां ढेर सारी भूत प्रेतों की कथाएं सुनायी जाती है उसे लोगों के सामने परोसा जाने लगता है. जैसे हम कहीं श्‍वास ले रहे हो तो कोई प्रेत उसमें आकर बाधा न उत्‍पन्‍न कर दे. और तो और मसानी बाबाओं की नित्‍यलीला को दखिाकर आखिर हिंदी चैनल क्‍या कहना चाहते है. हिंदी पत्र भी इसमें पीछे नहीं है. हर कोई इसे अपने तरीके से बेच रहा है. एक नया ट्रेंड उभर कर सामने आया है वह है ज्‍योतषि के नये नये प्रयोग. कोई टैरो कार्ड को लेकर चर्चा में मसगुल है तो कहीं लैपटाप पर लोगों की कुडली खंगाली जा रही है. पाठकों के हर प्रश्‍न का तुरंत जबाब हाजिर है. ऐसे चैनल यह भी बता रहे है कि आप कौन सा वस्‍त्र पहनें, कैसी रंग की गाडी पर चले, आफिस का रूख कैसा हो, आप हस्‍ताक्षर कैसे करते है, आप कौन से दिन कौन सी वस्‍तु दान करें, कुत्‍ते को खिलायें. हिंदी क्षेत्र की मीडिया ने जीवन के हर पहलू पर नियंत्रण स्‍थापित करने में जुट गयी है. वह भी तब जब अखबार हो या चैनल इसकी पकड आज भी देश की 45 फीसदी निरक्षर जनता के समझ व पकड से बाहर है. उन्‍हें उभरते हुए बाजार के तौर पर मीडिया हाउस देख रहा है.
सबसे अहम मीडिया के बाजार का हथियार बन गया है सेक्‍स. इस पर कुछ भी चर्चा करना मतलब कीचड में कंकड मारना हो गया है. जितना इसे भारतीय जीवनचर्या में महत्‍व दिया गया था उससे भी आगे बढ कर संपूर्ण ज्ञान बांटने में हिंदी मीडिया लगा हुआ है. नारी के प्रत्‍येक अंग को विभिन्‍न कोणों से जांचने व परखने की जिम्‍मेवारी मीडिया ने अपने हाथों में ले ली है. हिंदी मीडिया के सशक्‍त साधन फिल्‍मों ने तो इसके नेत़त्‍व पर एकाधिकार किया रखा था लेकिन नये नये चैनलों ने उसे मात देने में कोई कसर नहीं छोड रखी है. कामसुत्र के रचयिता महर्ष‍ि वात्‍सायन आज जीवत होते तो उन्‍हें भी अपने अल्‍प ज्ञान को लेकर र्शर्र्र्मिनदगी उठानी पडती. बडे बडे पत्रकार उन्‍हें बढते यौनाचार के आंकडें पेश कर यह महसूस करने को बाध्‍य कर देते देखे आपकी पुस्‍तक से ज्‍यादा ज्ञान सदियों से जनता में है. ये और बात है कि अब इसका प्रयोग खुलमखुला हो रहा है. वर्तमान हिंदी साहित्‍यकारों की रचनाएं उन्‍हें बतलाती कि स्‍त्री विमर्श के माध्‍यम से आप जैसे विद्वानों की खिचाई कैसे की जा सकती है.

Saturday, June 21, 2008

साहित्यिक संस्‍थाओं की खस्‍ताहाल स्थिति,कैसे होगा सुधार

हिंदी पटटी में हिंदी साहित्‍य के विकास के लिए गठित सरकारी व गैर सरकारी संस्‍थाओं की खास्‍ताहाल स्थिति के प्रति न तो हिंदी सेवक व पाठक और न ही सरकार व हिंदी साहित्‍य के प्रकाशन संस्‍थाओं की ही कोई रूचि रह गयी है.बहुमूल्‍य साहित्यिक सामग्रियों को यू हीं नष्‍ट होते देख कर किसी भी सुह़दय हिंदी पाठक का कलेजा कांप जाएगा. हिंदी का भंडार भरते-भरते न जाने कितने लेखक,पत्रकार गुमनामियों के अंधेरे में खो गये, न जाने पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए उन्‍होने कितनी यातनाएं झेली होंगी, कष्‍ट उठाये होंगे, अंग्रेजी हुकूमत की दुश्‍वारियों को झेला होगा, इसे कोई देखने व समझने वाला नहीं है.हद तो यह है अब नये भडकदार कलेवर में छपने वाली साह‍ित्यिक साम्रग्रियों के सामने पुरानी सामिग्रिया तुच्‍छ लगती है. खासकर, बिहार के हिंदी साहित्यिक संस्‍थानों पर नजर दौडाएं तो यह कहना बेमानी लगता है कि बिहारवासी देश के हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के सबसे बडे पाठक है या देश में सबसे अधिक साहित्यिक सामग्रियां बिहार में ही पढी जाती है. ऐसे पठन पाठन का क्‍या मतलब जब हम अपनी बहुमूल्‍य संपदा को संभाल पाने में असमर्थ हो. पटना स्थि‍त बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद में अपने समय की मशहुर पत्र-पत्रिकाओं यथा मतवाला, माधुरी, साहित्‍य सम्‍मेलन पत्रिका, चांद, हिंदू-पंच, मर्यादा, चैतन्‍य पंचडिरा, बालक जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति बदतर है. इन्‍हें देखने वाला कोई नहीं है. यह सरकारी संस्‍था है. हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन राजनीति का अखाडा बना हुआ है. उसके परिसर में साहित्‍यक कार्यक्रम बस जयंती व पूण्‍य तिथि के आयोजन तक स‍ीमित हो कर रह गया है. इसके खाली पडे परिसर का उपयोग किराये पर मेले- ठेले के आयोजन से प्राप्‍त होने वाली धन उगाही के लिए किया जा रहा है. बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी से नये प्रकाशन के कार्य बंद हो चुके है. सरकार ने 75 वर्षीय वयोव़द्व हिंदी प्राध्‍यापक प्रो रामबुझावन सिंह को बिहार राष्‍ट्रभाषा परिष्‍द व अकादमी का निदेशक बना रखा है, हद तो यह है कि उन्‍हें जब से पदस्‍थापित किया गया है यानि पिछले 14 महीनों से एक फूटी कौडी तक नहीं दी गयी है. उन्‍होने एक मुलाकात में बताया कि संस्‍थान में 40 कर्मचारी है जिनमें 18 चतुर्थवर्गीय कर्मचारी, व शेष्‍ा में टंकक व शार्टर व अन्‍य त़तीय वर्गीय कर्मचारी है. उनका काम बस परिसर में लगे ताड व खजुर के व़क्षों की व्‍यवस्‍था करना भर रह गया है. निजी साहित्‍यक संस्‍थाएं अपने बलबूते पर कुछ करने के लिए प्रयास करती है जो कि पर्याप्‍त नहीं है. कई ऐसे साह‍ित्‍यकार ऐसे है जिनके परिजनों के प्रयास से कोई कार्यक्रम नहीं हो तो उन्‍हें बाद में याद रखना भी नई पीढी के लिए मुश्किल हो जायेगा. यह स्थिति कमोबेश न सिर्फ बिहार में है बल्कि अन्‍य प्रांतों में भी है. ऐसे में हमें ठहर कर हालात पर गौर करना होगा. एक ओर ख्‍यात हिंदी सेवी अमरकांत बिमार पडते है तो उन्‍हें राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में कोई पुछने वाला नहीं होता तो दूसरी ओर बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह बिमार पडते है तो उन्‍हें कोई देखने वाला नहीं सामने आता. यह दुर्गति पहले भी हुआ करती थी आज भी देखने को मिल रही है. क्‍या इसका कोई सामाधान है. विचारें और हमें भी मागर्दशन दें.
कौशलेंद्र मिश्र

Tuesday, June 17, 2008

आम जनता के प्रति कितनी जबाबदेह है हिंदी पत्रकारिता

आज मैं आप सभी ब्‍लॉगरर्स व रीडर्स के समक्ष हिंदी पत्रकारिता के मौजूदा दौर व उसके प्रति आम लोगों के नजरिये पर बात करना चाहता हूं. आखिर हिंदी पत्रकारिता आम जनता के प्रति कितनी जिम्‍मेवार है, व्‍यावसायिकता का समावेश उसे किस कदर जनता से दूर करती जा रही है. क्‍या यह सचमुच में पत्रकारिता है या कुछ और....... हमें यह ध्‍यान रखना होगा कि लोकतंत्र का इसे चौथा स्‍तंभ कहा जाता है. मीडिया सरकार व जनता के बीच एक महत्‍वपूर्ण कडी है. यह एक सॉकआब्‍जरबर की तरह कार्य करता है, इसके लचीलापन के खो जाने से इसकी महत्‍ता भी नष्‍ट हो जाती है. सरकार व जनता के बीच संवाद का यह माध्‍यम तो है ही साथ ही दोनो को अपने अधिकार व कर्तव्‍य के प्रति जागरूक भी करती चलती है. यह ठीक है कि पत्रकारिता के नये दौर में बडी बडी मशीनों व उपकरणों की जरूरत पडती है. इसके संसाधनों पर लाखों खर्च होते है. इस क्षेत्र में पूंजी लगाने वाले को जनसेवा के साथ ही मेवा बटरोने की भी उम्‍मीद होती है. तो प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या यह मेवा आम जनता के हित अथवा राष्‍ट्रहित को तिलांजलि देकर हासिल की जा सकती है. क्‍या ऐसी पत्रकारिता को समाज स्‍वीकार करेगा. नहीं करेगा तो फिर लाखों की पूंजी के डूबने का भी खतरा सामने हो सकता है. जाहिर सी बात है अंतिम अस्‍.त्र जनता के पास सुरक्षित है. यहां यह ध्‍यान देने योग्‍य है कि जनता स्‍वयं में एक परिपूर्ण शब्‍द है. यह व्‍यक्तियों का वैसा समूह है जो शांति व सह अस्तित्‍व में विश्‍वास करता है. इसे अपने स्‍व नुकसान की बेहतर समझ है. हम चाहे लाख किसी को दोष दे दे किंतू यह भी उतना ही बडा सत्‍य है कि आम जनता को भूल कर न तो किसी उत्‍पाद की बिक्री की जा सकती है, न कोई विचारधारा या राजनीति पनप सकती है और न ही कोई संगठन ही संचालित की जा सकती है. ऐसे में हमें जागरूक करने वाली माध्‍यम मीडिया या समाचार पत्र की भूमिका महत्‍वपूर्ण है. व्‍यावसायिक घरनों के प्रकाशन के क्षेत्र में आने से भले ही मीडियाकर्मियों पर व्‍यावसायिक दबाब बढा है,खबरों की आपाधापी में नैतिकता व अनैतिकता का भेद मिटता नजर आ रहा है लेकिन आज भी सच्‍चाई व शुचिता के साथ ही मीडिया खडा है. एक पुराना दौर भी था जब न तो बडे प्रकाशन समूह थे न खुर्राट व घोर व्‍यावसायी मीडिया वाले. छोटे से कमरे में दो चार लोग आपस में मिलकर ही हिंदी के फॉन्‍ट ठीक करते थे.मशीन मैन उसे छाप दिया करता था. संपादक व लेखक दिनरात मेहनत कर आम जनता की आवाज बनने की कोशिश करते थे. उनके भीतर समाज की बेहतरी के लिए कुछ कर गुजरने का जज्‍बा हुआ करता था. राष्‍ट्रहित में वे स्‍वयं को नियोच्‍छावर करने के लिए तत्‍पर रहा करते थे. आज का भी एक दौर है जब पलक झपकते ही दूनिया के किसी भी कोने में घटने वाली घटना पुरी जानकारी के साथ,तस्‍वीर के साथ आपके सामने होती है.
समाज में जबतक अच्‍छे लोग होंगे, कुछ कर गुजरने का माददा रखने वाले लोग होंगे, हिंदी पत्रकारिता अथवा किसी भी भाषा की पत्रकारिता हो उसके प्रति समर्पित मीडिया कर्मी होंगे तब तक वह सच्‍चाई व शुचिता के साथ खडी रहेंगी, घूटने नहीं टेकेगी. इस संबंध में मेरे निजी विचार से आप असहमत भी हो सकते है,साथ ही इस बारे में अपने विचार व भावनाओं से आप अवगत करा सकते है.

Friday, June 13, 2008

पत्रकारों पर हो रहे हमले,दोषी कौन

आज पत्रकारों पर दिनों दिन हमले बढते जा रहे है, इसके लिए मूल रूप से किसी को दोषी ठहराये जाने से अच्‍छा है कि इस पुरे मुददे पर विस्‍त़ार से बात चीत की जाए
' कई बार हमें लगता है कि समाज में घटती सहनशीलता के कारण ऐसा हो रहा है लेकिन इससे भी इतर कई कारण हो सकते है.' भूमंडलीकरण व बढती व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्द्वा ने मीडिया व आम जनता को एक दूसरे का पुरक न बनाकर विरोधी बना दिया है' मीडिया का सामान्‍य जीवन में हस्‍तक्षेप बढा है, वही जनता अब सब कुछ जानने व समझने के लिए मांग करने लगी है'. सूचना क्रांति के युग में सूचना की मांग हर ओर से हो रही है'वही दूसरी ओर चाहे हम माने या ना माने ऐसा है कि पत्रकारिता के समक्ष मूल्‍यविहीनता का संकट खडा हो गया है. समाज का हर तबका चाहे व्‍यवसायी हो या राजनेता, नौकरशाह हो या पुलिस सब ये मान कर कार्य कर रही है कि उनके बिना समाज की कल्‍पना नहीं की जा सकती तथा उनकी उपयोगिता इस लिए है कि शेष सभी उनकी हां में हां मिलाये. हाल के दिनों में चाहे व अफगानिस्‍तान में बीबीसी संवाददाता के उपर किये गये हमले की घटना हो या बिहार की राजधानी पटना के ख्‍यात पटना मेडिकल कॉलेज अस्‍पताल में पत्रकारों को खदेड कर डाक्‍टरों द्वारा पीटे जाने की घटना सब यही बयां कर रही है कि कोई आज अपनी स्थिति से थोडी बहुत भी पीछे नहीं हटना चाहता. अमेरिका तानशाही करे, या तालिबानी अत्‍याचार, डाक्‍टर इलाज व जनसेवा की शपथ लेकर पिस्‍तौल गोली चलाने लगे उन्‍हे लगता है कि वे ही अपनी जगह सही है बाकि का पुरा मीडिया जगत अंधेरे में जी रहा है. मेरे ऐसा कहने के पीछे यह मकसद नहीं कि मीडिया के सभी कार्य साफ सुथरे है. मीडिया की भी आलोचना होनी चाहिये. समाज के अंतस्‍थल से विचार आने चाहिये. मीडिया को अपने भीतर झांक कर मूल्‍यांकन करना चाहिये. जिस प्रकार समाज के सभी वर्गो में हताशा, स्‍पर्द्वा, घ़णा बढी है, तनाव बढा है, संघर्ष करने की क्षमता घटी है वैसे ही मीडिया भी इसका शिकार हुआ है. हम अक्‍सर ऐसा सुनते है कि फलां तो गडबड था लेकिन मीडिया को ठीक होना चाहिये था. ऐसा कहकर हम क्‍या कहना चाहते है कि बाकी सब चोर हो जाए और मी्डिया साधुता प्रद्वर्शित करते रहे. नही ऐसा कदापि नहीं हो सकता. हमे गलत को गलत व सही को सही कहने की आदत डालनी होगी. थोडी देर के लिए जो अच्‍छा प्रतीत हो रहा हो उसे समाजहित में हमेशा के लिए अच्‍छा नहीं कह सकते. हमें उसकी पहचान करनी होगी कि अमूक घटना या विचार अपने आप में कितनी सार्थकता लिए हुए है. हमें अपने प्राचीन गौरव को याद करना होगा कि क्‍या इसी के लिए हमें स्‍वतंत्रता मिली थी, इसके लिए ही बलिदानों ने अपनी आहुति दी थी.

Friday, May 30, 2008

हिंदी लेखकों के समक्ष संकट
आज की व्‍यस्‍त दि‍नचर्या में न तो कि‍सी के पास पढने का समय है न लि‍खने का. अगर बहुत कुछ लि‍खा भी जा रहा हो तो उसके पाठक कौन होंगे, वे कि‍स प्रकार से आपके लेखन को स्‍वीकार करेंगे यह कहना मुश्‍ि‍कल है. इसके बावजूद लेखन क्रम नि‍रंतर जारी है. वि‍चारों का आदान प्रदान जारी रहना चाहि‍ये. स्‍वस्‍थ्‍य एवं जीवि‍त समाज के लि‍ए यह जरूरी है. पूर्व के लेखकों में समाजि‍क चितंन का प्रवाह हमे प्राय देखने को मि‍ल जाता है,एक ओर वे व्‍यवस्‍था के दोषों को उजागर करते जाते थे वही दूसरी ओर समाज को एक नई दि‍शा भी प्रदान करते थे. खासकर, ब्रि‍ट्रि‍श काल के लेखकों को देखे तो उनके समक्ष कई चुनौति‍यां थी. हि‍न्‍दी भाषा को भी एक नया तेवर प्रदान करना था. लेखन के कारण उन्‍हें कई बार हुकूमत का कोप भी झेलना पडता था. आज ये परि‍स्‍ि‍थति‍यां बदल चुकी है. स्‍वतंत्र भारत में इंमरजेंसी काल को छोड दे तो शायद ही कभी लेखकों व पत्रकारों को हुकूमत के कोप का भाजन बनना पडा हो. येन केन प्रकारेण ऐसा हुआ भी हो तो वह अपवाद मान लि‍या गया है. लेकि‍न हमें इति‍हास से सबक लेने की कोशि‍श करनी चाहि‍ये. नवजागरण कालीन लेखकों में माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विदयार्थी, पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा, प्रेमचंद सहि‍त अन्‍य लेखकों को देखें तो उन्‍हें अपने लेखन के कारण कई बार अपमान व शासकीय ति‍रस्‍कार का सामना करना पडा. वे दि‍न रात स्‍वयं जगकर पांडुलि‍पि‍ तैयार करते, उन्‍हें कंपोज कराते फि‍र प्रकाशन से लेकर वि‍तरण तक में प्रमुख भूमि‍का नि‍भाते थे. आज ये कार्य कई चरणों में बंट चुके है. ऐसे में गौरतलब तथ्‍य यह है कि‍ आज का पाठक बर्ग भी बढा है. शि‍क्षा में उन्‍नि‍त के साथ साधन भी बढे है.

Thursday, May 29, 2008

मौजूदा वातावरण में श्‍वास के साथ ही मस्‍ि‍तष्‍क के लि‍ए बौद्वि‍क खुराक भी जरूरी है, इस वि‍षय पर फि‍र कभी चर्चा की जायेगी.
गुरूवार - 29/05/08
साहि‍‍त्‍ि‍यक समाज व पत्रकारि‍ता जीवन के बीच संबंध
वर्तमान में साहि‍त्‍ि‍यक समाज का दैनि‍क पत्रकारि‍ता जीवन से ताल्‍लुक लगभग मुतप्राय हो गया है. दो समान वि‍चारधारा व प्रक्रि‍यावाले इन क्षेत्रों में अलगाव के कारण आम पाठक वर्ग दि‍शा भ्रम का शि‍कार हो गया है. यही कारण है कि‍ बाजार में नई पत्र पत्रि‍काओं के आने के बावजूद इलेक्‍ट्रानि‍क मीडि‍या व फि‍ल्‍म का क्रेज घटता नहीं दि‍ख रहा. अक्षर ब्रहं है के स्‍थान पर सब कुछ तत्‍काल देखने और अनुभव करने की आपाधापी बढ गयी है. ऐसा नहीं कि‍ द़श्‍य माध्‍यम बंद हो जाने चाहि‍ये,उनका अपना महत्‍व व उपयोगि‍ता है.इसके बावजूद हम ऐसा महसूस कर सकते है जब प्‍यास लगे तो पानी ही काम आता है न कि‍ भोजन. साहित्‍ि‍यक समाज व पत्रकार बंधु अपने'अपने अहम से घि‍रे है. समाज को दि‍शा देने में साहित्‍य अलग राग अलाप रहा है तो पत्रकारि‍ता अपनी अलग भूमि‍का नि‍भा रहा है. एक अर्थभाव से जुझ रहा है तो दूसरा पूर्ण व्‍यावसायि‍क होकर पुरे बाजार पर अपनी पकड बनाने में लगा है.देश की अंग्रेजी साहि‍त्‍य लेखन को थोडी देर के लि‍ए नजरअंदाज कर दे तो हि‍दी व क्षेत्रि‍य भाषाओं से संबंद्व साहि‍त्‍ि‍यक लेखन को खासी परेशानी हो रही है. साहि‍त्‍य लेखन के लि‍ए अब भी स्‍वतंत्र लेखन की गंजाइश बनी हुई इस जोखि‍म के साथ कि‍ चाहे तो पाठक उसे अस्‍वीकार कर सकते है लेकि‍न पत्रकारि‍ता में लेखन खारि‍ज हो जाने का मतलब उसके लेखक के साथ ही पत्र के भवि‍ष्‍य को होने वाला नुकसान है.

Wednesday, May 28, 2008

इति‍हास पुरूषों का जीवन

देश व दुि‍नया की तमाम खबरें हमें चौकाती है लेकि‍न कई बार हम उन बातों को नजरअंदाज कर देते है जो हमें सही मार्ग पर आगे बढना सि‍खाती है, हमारा मार्गदर्शन करने के साथ साथ अपने नेत़ृत्‍व में जीना व चलना बताती है

इति‍हास पुरूषों ने अपने मार्गदर्शन के द्वारा हमें बताया है कि‍ कैसे पत्रकारि‍ता जीवन में हमें अपने मानदंड खुद तय करने है वो कैसे संभव है. उनलोगों ने लाख दुश्‍ि‍वारि‍यों के बावजूद स्‍वतंत्र व संप्रभु राष्‍ट्र के र्नि‍माण में योगदान देते हुए स्‍वहि‍त की अनदेखी की. साहि‍त्‍‍य व कला के वि‍कास के लि‍ए समर्पित सरकारी व नि‍जी संस्‍‍थाओं को भी यह मालूम नहीं कि‍ वे अपने कार्यो को कैसे दि‍शा दे जि‍ससे अपने पूर्वजों के प्रति‍ सम्‍‍मान प्रदर्शित कर सके. कोई भी राष्‍ट्र या व्‍यकि‍त इनसे उबर नहीं सकता.

कलकत्‍ता में जब 1921'22 में हिंदी साहित्‍सकारों व पत्रकारों की टोलि‍यां नि‍कलती थी तब नए वि‍चारों से न केवल स्‍वयं को अनुप्रणाति‍ करती थी बल्‍ि‍क उनसे आम जनता को भी लाभांवि‍त करती थी. वे एक ओर नाटक व थि‍येटर भी देखा करते थे,उनकी समीक्षा कि‍या करते थे वही उनकी पकड देश की राजनीति‍ पर भी थी. वे उस समय होने वाली सामाजि‍क झडपों को भी बारीरि‍की से देखते थे. हि‍न्‍दू जाति‍ के उत्‍थान की बातें आज के संदर्भ में सांप्रदायि‍क दि‍ख सकती है लेकि‍न कही से भी उनकी वो दूष्‍टि‍ नहीं थी. हि‍न्‍दू पंच जैसे अखबार के संपादक पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा अपने संपादकीय में एक स्‍थान पर इसे स्‍पष्‍ट करते हुए कहते भी है कि‍ वे न तो हि‍न्‍दू को छोडते है न मुसलमानों को,उन्‍हें जो कहना होता है उसे स्‍पष्‍ट तौर पर समाज के आगे रख देते है. समाज के कि‍सी भी बुराई पर कलम चलाते वक्‍त वैसे साहि‍त्‍यकारों व पत्रकारों को इस बात से कोई गुरेज नहीं था कि‍ इति‍हास उन्‍हें कि‍स रूप में लेगी. स्‍पष्‍टवादि‍ता बलि‍दानी पत्रकारों में कुट कुट कर भरी थी. वे जैसा लि‍खते थे वैसा सोचते थे, उसी प्रकार का जीवन भी जीते थे. पद व प्रति‍ष्‍ठा को लेकर मारा मारी नहीं करते थे. उन्‍हें पता था कि‍ हि‍न्‍दी अखबारों के पाठकों पर प्रकाशक का अथवा कि‍सी दूर्भावना से प्रेरि‍त वि‍चारों का कोई प्रभाव नहीं पडता है.

































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Wednesday, May 21, 2008

इस देश में कई ऐसे साहित्‍यकार एवं पत्रकार हुए है जिन्‍होने हिंदी व हिंदूस्‍तान के विकास के लिए बलिबेदी पर कुर्बान हो गये. इनमें खंडवा मप्र से निकलने वाले समाचार पत्र के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी, कानपुर से निकलने वाले हिंदी पत्र 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी, कलकत्‍ता से निकलने वाले 'हिंदू पंच' के संपादक पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा सहित कई ऐसे नाम है जिन्‍होने अंग्रेजों की मानसिक दासता से स्‍वयं को मुक्‍त रखते हुए अपने विचारों से राष्‍ट्र को अनुप्राणित करते रहे.

संपादक,साहित्‍यकार,पत्रकार पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा की मृत्‍यु सन 1927 ई को कलकत्‍ता में अंग्रेजी दासता से मुक्‍त होने के बाद 23 जूलाई की अर्धरात्रि को हो गयी थी. तब देश की कई नामचीन हिंदी व हिंदूस्‍तान की सेवा में लगे कई स्‍वानामधन्‍य पत्रकारों व साहित्‍यकारों के अतिरिक्‍त विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं ने अपनी श्रद्वा सुमन अर्पित किये थे. उनके साहित्यिक शिष्‍य के रूप में ख्‍यात लेखक साहित्‍कार आचार्य शिवपूजन सहाये ने हम सभी का ध्‍यान उनकी ओर खींचा. जब तक जीवित रहे, अपने मार्गदर्शक के प्रति लोगों को जानकारी देते रहे फिर तो किसी ने उनकी ओर ध्‍यान देना भी मुनासिब नहीं समझा . शोधकर्त्‍ताओं के विषय व रूचि से वे गायब से हो गये. हिंदी की कभी राजधानी समझी जाने वाली कलकता के साहित्‍यप्रेमियों ने भी उन्‍हे भूला दिया. हिंदी पुनर्जागरण के अध्‍येयताओं की दृष्टि अब ऐसे कई नामचीन गुमनाम साहित्‍यकारों व पत्रकारों की ओर नहीं जाती है.

आईए, हम सब अपनी तरफ से ऐसे ही महान विभुतियों के बारे में जानने व समझने का प्रयास करें. कृतज्ञ राष्‍ट्र को उनके प्रति अपनी श्रद्वांजलि अर्पित करने की भी फुसर्त नहीं रही हम सभी देशवासियों की यह महत्‍ती जिम्‍मेवारी बनती है कि हम उनके लिए दो शब्‍द पु‍ष्‍पांजलि स्‍वरूप कहे. इस संबंध में आप सभी के विचार आमंत्रित है.

Tuesday, May 20, 2008

aaj mai aap sab se balidani sahitykaro wa ptrakaro ke sambandh me bate karna chahunga.