Friday, January 30, 2009

ट्रस्‍टी बनाम फ्रस्‍टी जर्नलिस्‍ट

पत्रकारिता की दूनिया में अजीबो गरीब घटनाएं होती रहती है। कई बार आम आदमी को इससे कोई मतलब नही होता, उन्‍हें प्रकाश में भी अमूमन नही लाया जाता। इन घटनाओं की फेहरिस्‍त सामने आ जाये तो दूनिया को मौजूदा पत्रकारिता के उनसे संबंद्व पत्रकारों की सोच व समझ में खालीपन की अनुभूति हो सकती है। हाल ही में पटना के पत्रकारों ने या यूं कहे कि जर्नलिस्‍टों ने ट्रस्‍ट बनाकर प्रेस कल्‍ब आफ पटना की स्‍थापना करने की सोची। राज्‍य के मुखिया के कानों तक यह बात पहुंची,उन्‍होने झटपट इस पर अपनी सहमति प्रदान करते हुए अधिकारियों को एक अदद अच्‍छे भवन सुसज्जित करने का निर्देश दे दिया. स्‍थान भी चिन्हित कर लिया गया. भवन में तेजी से कार्य शुरू हो गये. रंग तब जमा जब ट्रस्‍ट के साथ राज्‍य के सूचना जनसंपर्क विभाग ने बैठक कर उसे सौंपे जाने को लेकर वार्ता शुरू की. बैठक में मौजूद कई पत्रकारों ने जमकर ट्रस्‍ट के पत्रकारों की खबर ली. बात तू तू मैं मैं तक पहुंच गयी. अधिकारी हक्‍के बक्‍के थे. अब क्‍या होगा इनका. जो पत्रकार वहां धीरे धीरे पहुंच रहे थे उनसे पूछा जाने लगा की आप ट्रस्‍टी है या फ्रस्‍टी. फ्रस्‍टीयों की जमात अधिक थी. बहरहाल बैठक में सर्व सम्‍मति से निर्णय किया गया कि एक समिति बनायी जाये,जो लोकतांत्रिक तरीके चुनाव कर क्लब के संचालन की जिम्‍मेवारी ले. इसके लिए सूचना जनसंपर्क के अधिकारियों को अधिक़त किया गया कि वे समिति का गठन करें. बैठक के बाद बाहर निकल कर अलग अलग पत्रकारों की राय भिन्‍न भिन्‍न थी. उन रायों में जाने का कोई मतलब यहां नही है, अनावश्‍यक आप भी परेशान होंगे। वैसे, आकलन करें कि अचानक नयी सरकार के विकासवाद से प्रभावित होकर क्‍यूं प्रेस क्‍लब के स्‍थापना की सूझ जगी. वह भी वैसे पत्रकारों को जो इसके लिए बनाये गये स्‍व निर्मित ट्रस्‍ट के आजीवन सदस्‍य बने हुए थे. कही यह नीतीश जी के गले की हडडी न बन जाए.

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