Friday, February 12, 2010
पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी क्यों
अपनी बातो को शुरू करने के पूर्व मेरी गुजारिश हैं की आप पूर्व वाले आलेख को अवश्य पढ़े जिसे वरिष्ठ पत्रकार व् चिन्तक मृणाल पांडे ने लिखा हैं। मुझे नहीं लगता की सर्वहारा वर्ग के बीच अखबारों की पठनीयता को लेकर कोई भ्रम हैं। वे अपनी जानिब विरोध या बहिष्कार नहीं कर रहे हैं। इस सर्वहारा समाज को इतना भी अनपढ़, जाहिल समझने की भूल करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। यह वही समाज हैं, जिसकी बुनियाद पर बाजार अपना विस्तार कर रहा हैं। पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी बरते जाने की जरुरत नहीं हैं। कुकुरमुतो की तरह उग आये पत्रकारिता संस्थानों से निकलने वाले पत्रकारों को वरिष्ठ पत्रकारों के माध्यम से ज्यादा सजग करने की जरुरत हैं। श्री मिडिया से यह उम्मीद करना की वह सर्वहारा की आवाज बुलंद करेगा, यह वक्त की जरुरत हो सकती हैं लेकिन मुश्किल हैं। इसमें शहरी वर्ग व मिडिया की अपनी जरूरते खतरे में पड़ जाएगी। कोई भी वर्ग अपनी सुविधाओ की कीमत पर किसी दुसरे वर्ग की हिमायत भला क्यों कर करेगा। पत्रकारिता की दुनिया से बाबस्ता सभी पत्रकार यह जानते हैं और महसूस करते हैं की जिसे अवस्क किस्म की लीपापोती की संज्ञा दी जा रही हैं उसका सीधा सरोकार किस्से हैं। पत्रकारिता की दुनिया में भले ही किसी आवाज या भावनाओ का गला घोट देना आसान हैं लेकिन संचार के बढ़ते साधनों के बीच अब उन आवाजो को अनसुना या नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उतम साहित्य लेखन हो या उम्दा पत्रकारिता पहले भी बलिदानियों के रास्तो पर अपनी राह बनाती रही हैं। हर हर गंगे कह कर अपनी पीढियों के तर जाने की उम्मीद रखने वाले भले ही एक दुबकी लगा कर अपने मन को समझा ले , गोता लगाने वाले लगा भी रहे हैं , मोतिया निकाल भी रहे हैं। इन्हें किसी बात का शिकवा गिला नहीं हैं। वक्त हर बात का हिसाब किताब कर देता हैं। हमें उनसे सबक लेनी चाहिए। इसमें कोइ शक नहीं की हिंदी पत्रकारिता खबरों की विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही हैं। शोध व सत्यापन युक्त खबरों को प्रकाशित करने का निर्णय कौन करता हैं इस पर भी प्रकाश डाला जाना चाहिए। इनके नहीं प्रकाशित किये जाने के लिए कौन सा वर्ग जिम्मेवार हैं उन्हें चिन्हित करना चाहिए। क्या इनसे बचाते हुए सर्वहारा को पाठ पढाना उचित हैं।
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