Friday, October 17, 2008

दौडती भागती जिंदगी में पीछे छूट रही संवेदनाएं

आज की दौडती भागती जिंदगी में हमारी संवेदनाएं पीछे छूट जा रही है. एक ओर जहां ग्‍लोबलाइजेशन के दौर में स‍बकुछ सिमटा प्रतीत हो रहा है तो वही, कई भावनाएं विरले ही देखने को मिलती है. सत्‍ता का गलियारा हो या विश्‍वविद्यालय का कैंपस, अस्‍पताल की सेवा भावना हो या नगर निगम की गतिविधियां हर ओर आप नजर दौडाएं कहीं कोई तारतम्‍यता दि खाई नही देती है. लगता है मानो सब अपने अपने काम निपटाये जाने में ही भरोसा करते है. छोडिये इनकों साहित्‍य, पत्रकारिता, कला व फिल्‍म की ओर भी देखे तो मानों कही कोई सामान्‍य द़ष्टि देखने को नही मिलती जहां आम आदमी अपने वजूद को तलाश सके. इसलिए अब वहां भी कोई सर्वमान्‍य लेखक,पत्रकार या सुपर स्‍टार देखने को मिलता. इन सब के बीच आप अपने राष्‍ट्रीय पहचान को देखे तो सब कुछ अलग थलग दि खता प्रतीत होता है. क्‍या इसे सिर्फ द़ष्टि भ्रम कहकर आगे बढ जा सकता है. यह ठीक है कि पूर्व की सामाजिक गतिविधियों से वर्तमान की सामाजिक गतिविधियों में स्‍पष्‍टता व खुलापन आया है, लोगों की देखने की द़ष्टि बदली है.

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