Friday, August 29, 2008

भूख से बिलबिलाते बच्‍चे,उजडने व पुन बसने की नियति

उत्‍तर बिहार के कोशी अचंल में कोशी की धारा ने महाप्रलय मचा रखा है, नेपाल के कुसहा के समीप बांध टूटने के फलस्‍वरूप सहरसा जिला के पतरघाट,सौर बाजार एवं सोनबरसा प्रखंड में बाढ का पानी प्रवेश कर गया है, साथ ही सुपौल, मधेपुरा,पूर्णियां सहित छह जिलों के सैकडों गांव कोशी की धारा में विलीन हो गये. बच्‍चे भूख से बिलबिला रहे है, पिछले 10 दिनों से टीलों,भवनों, सार्वजनिक स्‍थानों पर शरण लिये हुए लोगों की सुधि लेने वाला कोई नही है. बडी ही ह़दयविदारक द़श्‍य है. सहरसा में सैकडों शरणार्थी पहुंच रहे है. कोशी कॉलोनी,सुपौल के रहने वाले संजीव कुमार बताते है कि सुपौल के ग्रामीण 100 रुपये किलो चुडा व दूध डेढ सौ रूपये लीटर खरीदने को बाध्‍य है,नमक 50 रुपये, अमूमन तीन रूपये में मिलने वाला बिस्‍कूट 20 से 50 रुपये किलो मिल रहा है. ऐसे समय में कालाबाजारियों की पौ बारह है. बांढ की विभीषिका से पत्‍नी व परिवार को निकाल कर किसी तरह सहरसा तक पहुंचे अमित कुमार बताते है कि मात्र 15 किलो मीटर की दूरी तय करने के लिए उन्‍हें साढे तीन हजार रूपये नाव वाले को देना पडा है. कहीं कही तो नाव वाले पांच हजार रुपये वसूल कर रहे है. मानव जीवन की इससे बडी त्रासदी क्‍या होगी जब लाखों लोग कोशी के प्रलय से जुझ रहे हो वैसे में कुछ टुच्‍चे लोग अपने स्‍वार्थ के कारण उसमें भी लाभ का योग ढूढ रहे है. मधेपुरा की सुनीता देवी इस लिए उदास है कि बांध व उंचे टीले के सहारे, नाव व पैदल वह परिवार को लेकर निकली किंतू उसके बढू ससूर छूट गये. कई परिवारों के आय का जरिया बने मूक जानवर बकरी, गाय,भैस को उन्‍हें मुक्‍त करना पडा ताकि वे अपना शरण ढूढे. बांध के टूटने, उसकी समय समय पर मरम्‍मति नही किये जाने के प्रति घोर लापरवाही बरतने के लिए राज्‍य सरकार को किसी भी तरह माफ नहीं किया जा सकता. कोशी ने पहली बार अपनी जलधारा नहीं बदली है, किंतू कोशी को पुन 1826 की स्थिति में ले जाने के लिए सूबे की अफसरशाही व राजनेता पूर्णतया दोष्‍ाी है. केंद्रीय सहायता, राजकीय सहायता, राष्‍ट्रीय आपदा घोषित किये जाने, राहत व मुआवजे का खेल बिहार में एक बार फिर शुरू हो गया है. गुरूवार को प्रधानमंत्री,यूपीए अध्‍यक्षा, कई केंद्रीय मंत्री, मुख्‍यमंत्री,बिहार सहित कई राजनेता पूर्णियां में उपस्थित थे. प्रधान मंत्री ने मुख्‍यमंत्री की मांग के अनुरूप एक हजार करोड रुपये राष्‍ट्रीय आपदा राहत कोष्‍ा से देने की घोषणा कर दी, चुनावी वर्ष में कोई भी राजनेता व दल बाढ को लेकर कुछ भी करने का मौका नहीं छोडना चाह रहे है. क्‍या इसके बावजूद इस समस्‍या के निदान के प्रति इनकी भावनाएं स्थिर है, क्‍या सचमुच बिहार को प्रत्‍येक वर्ष होने वाले बाढ की त्रासदी से मुक्ति मिल सकेगी, राहत व पुनर्वास के नाम पर राजनीति चमका कर सांसद व जनप्रतिनिधि बनने का मौका छोड विकास की ओर राजनेता सक्रिय हो सकेगा कई सारे प्रश्‍न अनुतरति है, कोशी क्षेत्र की जनता बार बार उजडने व बसने की नियति से निकल सकेगी यह कहना ब‍हुत ही मुश्किल है. वर्ष 93 में तत्‍कालीन मुख्‍य सचिव वीएस दूबे ने ऐसी परिस्थिति का पूर्व में आकलन करते हुए 18 दिनों तक कोशी के बांध पर कैम्‍प कर उसकी मरम्‍मति का कार्य किया था, रात 12 बजे उन्‍होने सिचाई मंत्री को सूचित किया था कि 'सर, वर्क इज ओवर, तब मंत्री ने मुख्‍यमंत्री लालू प्रसाद को उसी समय मुख्‍यमंत्री निवास में जाकर सूचित किया कि सर, उत्‍तर बिहार को बाढ की भयानक विपदा से बचा लिया गया. इस बार तो एनडीए के शासन काल में तो हद ही हो गयी, विकास व न्‍याय के शासन का राग अलापते नेता व नौकरशाह इस कदर निश्चित हो गये कि किसी को भी पिछले दो वर्षो से बांध की मरम्‍मति की नहीं सूझी. जब पानी का रिवाव शुरू हो गया तो बांध की मरम्‍मति को लेकर चहेते ठीकेदार की खोज शुरू हुई. तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी. मात्र एक एज्‍यकुटिव इंजीनियर के सहारे पुरे क्षेत्र को भगवान भरोसे छोड दिया गया था. स्‍थानीय ग्रामीणों के भडकने को लेकर राज्‍य सरकार की यही बेत्‍लखी थी. बाढ के जाने माने वशिेषज्ञ टी प्रसाद कहते है कि अंग्रेजी शासनकाल होता तो शायद इतनी बडी समस्‍या नहीं होती,अंग्रेजी प्रारंभ से ही मूल समस्‍या का आकलन करते हुए चरणबद्व तरीके से काम कर रहे थे. बाद की सरकारों ने इस पर बहुत अधिक ध्‍यान नहीं दिया, अब भी समस्‍या को लेकर एक दूसरे पर दोषारोपण करने के सिवाय किसी के पास कोई अन्‍य विकल्‍प नहीं है. ऐसे ही परिस्थितियों में हिंदी साहित्‍य ने फणिश्‍वर नाथ रेणु, बाबा नागार्जुन जैसे साहित्‍यकारों को पैदा किया था, कोशी क्षेत्र के साहित्‍यकारो्ं के अतिरिक्‍त हवलदार त्रिपाठी सहदय ने तो बिहार की नदियों पर पुस्‍तक ही लि खी जिसकी उपादेयता आज भी बरकरार है. आज आवश्‍यकता है कि बडे पैमाने पर 25 लाख्‍ा से अधिक बाढ पीडितों के बीच बडे पैमाने पर राहत व पुनर्वास कार्य किये जाने की, क्षति का आकलन करते हुए मूल समस्‍या के निदान किये जाने की. मीडिया की जिम्‍मेवारी भी इस में बढ जाती है. 18 अगस्‍त को बाढ आया लेकिन राष्‍ट्रीय मीडिया ने उसे प्रारंभ में तवज्‍जों नहीं दिया, जब विनाश की भयंकरता का उसे अहसास हुआ तब जाकर कैमरे की फोकस उधर बढायी गयी, उधर से आ रही रिपोर्ट पर नजर जानी शुरू हुई, बात बात में हल्‍ला मचाने वाली मिडिया इसीप्रकार कारपोरेट घरानों के हाथों में खेलती रही तो इसमें कोई शक व सुबह नहीं कि इनकी लोकप्रियता सिर्फ बुद्वू बक्‍से तक ही सीमित हो कर न रह जाये, अथवा कागज काले करने के बावजूद उस कागज को रददी से ज्‍यादा महत्‍व नहीं मिले.

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