आज हम सभी 1857 की क्रांति अथवा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 150 वें वर्ष का जश्न मना रहे है. कैसा दुर्भाग्य है इस देश का जब हम अपने जश्न के दौरान मौजूदा हालात पर जरा भी गंभीर नहीं है. सभी राज्य सरकारें इस जश्न को मनाने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रही है. लेकिन कहीं से भी मूल्क के आंतरिक हालात, पडोसी देशों के साथ हमारे बिगडते संबंध, वैश्विक नीति, बाजारबाद इत्यादि के मूल्यांकन की तैयारी नहीं दि खाई पड रही है. 1857 का सशस्त्र विद्रोह, आधुनिक भारत के इतिहास का एक माइल स्टोन है. इस विद्रोह के फलस्वरूप जहां एक ओर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का अस्तित्व समाप्त हो गया और सीधा ब्रिटि श शासन शुरु हुआ, वही दूसरी ओर भारत पर ब्रिटि श शासन के संबंध में भारतीयों व अंग्रेजों का नजरिया भी पुरी तरह बदल गया. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को याद करते हुए हमारे जेहन में कहीं से भी यह बात आती है कि पिछले 150 वर्षो के बाद भी मूल्क में भ्रष्टाचार,भाई भतीजावाद, चरमपंथ, राजनैतिक पतन जैसे असाध्य रोगों से हम मुक्त हो पाये है. पूंजीवादी व्यवस्था के तहत पोषित होने वाली बडी बडी कंपनियों के साथ कदम ताल मिलाते मिलाते हम क्या से क्या कर बैठे है. जीवन का सुकून व चैन छिन सा गया है.
पूंजीपतियों के सहारे भारतीय राजनीति को सीचिंत करने की शुरूआत बीसवी सदी के प्रारंभ से ही शुरू हो गया था. तब के कई वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार इस स्थिति को भली भांति समझ रहे थे. वे स्पष्ट तौर पर देख रहे थे कि नेशनल एसेबली व प्रिवी कौसिंल की सदस्यता को लेकर कैसे पुराने व नये राजनीतिज्ञों में होड मची है. पत्रकारिता भी इससे अछूति नहीं रही थी. लोकमान्य तिलक की प्रशंसा करते नहीं थकने वाले तत्कालीन दक्षि ण भारत के एक पत्र के संपादक कैसे बाद में 3500 रुपये संगठन के फंड का गबन करने का आरोप लगाते हुए बाद में तिलक के विरोध में खडे हो गये थे. उत्तर भारत व पं बंगाल से निकलने वाले कई पत्र लगातार स्थिति का मुआयना कर रहे थे. इसमें कई जागरूक पत्रकार दंगे का विरोध करते हुए बीच सडक पर मारे गये, वही कईयों पर जातीय व देश सेवा के स्थान पर सांप्रदायिकता का लेबल चस्पा कर दिया गया. उन्हें देश ने बाद में याद करना भी मुनासिब नहीं समझा. हमें रूक कर फिर एक बार सोचना चाहिये.
Wednesday, August 13, 2008
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