Sunday, November 30, 2008

आतंकवाद और हमारी जबाबदेही

मुंबई में आतंकवादी हमले के कारण जो स्थिति बनी उसका असर प्रत्‍येक भारतीय जनमानस पर पडा है, इसे कमोबेश सभी प्रमुख ब्‍लॉगों पर प्रमुखता दी गयी है। खासकर, सिनेमा से संबंद्व प्रमुख कलाकारों के द्वारा लिखी गयी पंक्तियों को मीडिया ने भी तवज्‍जों दी है। सुपर स्‍टार अमिताभ बच्‍चन ने जहां एक ओर स्पिरिट आफ मुंबई कहना बंद करने की सलाह दी है, तो आम‍िर खान ने कहा कि आतंक का कोई धर्म नही होता। इसी प्रकार मीडिया से संबंद्व सभी स्‍तर पर लोगों ने चंद आतंकवादियों को खुलेआम तीन दिनों तक हंगाम,बर्बादी व तबाही का मंजर फैलाते देखा सुना। पिछले तीन दिनों तक हमें यह दिखा की आज भी राजनेताओं से ज्‍यादा हमारे देश की चिंता हमारे सुरक्ष्‍ाा बलों को है। वे अपने प्राण न्‍योच्‍छावर कर के भी लोगों को दहशतगर्दी से निकालना जानते है। हमारे राजनेताओं को इससे सीख लेनी चाहिये क्‍योकि अंतत यह देश ही हमारे आने वाली पीढियों के लिए,हमारे स्‍वजनों व परिजनों के जीवनयापन व विकास का साधन होगा। न तो भविष्‍य में जो आज काम आए उस सुरक्षा बलों के जवान रहेंगे, न अपने को निर्णायक व महत्‍वपूण् मानकर देश की शांति व सम़द्वि में हस्‍तक्षेप करने वाले राजनेता रहेंगे। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सुरक्षाबलों व सेना के उपर जनता के प्रतिनिधि होने चाहिये ताकि जनपक्षीय दबाब उनपर बना रहे वे निरंकुश न हो, किंतू हमें यह भी तय करना होगा कि उन्‍हें देश व समाज हित में कार्य करने की पुरी स्‍वतंत्रता भी हो। सुरक्षा एजेंसिया अपने भीतर ही नियंत्रण की प्रणाली विकसित करें ताकि कार्य में लापरवाही बरते जाने वालों व देश की अस्मिता के साथ खिलवाड करने वालों से निबटा जा सके। उन्‍हें हुकूम का गुलाम बनाकर रखना देश के साथ धोखा है। इतना तो निश्चित है कि जो कौमें अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह होती है उन्‍हें मिट जाना चाहिये। प्रक़ति ने एक चींटी को भी इतना ताकतवर बनाया है कि जब वह हाथी की सुंढ में घुस जाए तो उसकी मौत का वायस बन जाती है। हमें यह देखना होगा कि समाजिक संरचना का विकास हम किस प्रकार कर रहे है,उनमें राजठाकरे टाईप लोगों,सांप्रदायिक विद्वेष फैलाकर अपनी रोटी सेकनें वालों के उभरने की कितनी संभावनाएं है। पोटा या अन्‍य कानूनों की बात करने वालों को यह भी गौर करना चाहिये कि पहले से लागू किये गये कानूनों का क्‍या ह्रस हो रहा है। क्‍या सुरक्षा को लेकर हमने अपनी जिम्‍मेवारियों को समझा है. पूरे भारतीय परिवेश में मुंबई इन दिनों प्रतीक के रूप में उभरा है. कभी यहां शिवसेना की सांप्रदायिक राजनीति हावी होती है तो कभी राजठाकरे की क्षेत्रीयतावाद की राजनीति तो कभी अंडर वर्ल्‍ड के खौफ के साए में लोग दहशत में रहते है. यहां मीडिया का रोल भी कमोबेश उजागर हुआ है. तरूण भारत ने जहां हेमंत करकरे के पुत्र द्वारा नशीली दवाओं के सेवन करने संबंधी खबरे दी तो सामना ने हिंदू विरोधी अधिकारियों के नाम पते उजागर करने व शिवसेना कार्यकर्ताओं द्वारा उन अधिकारियों के घरों के बाहर प्रदर्शन करने संबंधी खबर प्रकाशित की. हद तो यह है कि हमेशा तेज गति से आगे रहने वाली इलेक्‍ट्रानिक मीडिया भी घंटों बाद इतने बडे हमले को समझ सकी. देश भक्ति का जजबा तो उनमें दूसरे तीसरे दिन ही आया. एक चैनल ने तो आतंकवादियों की तस्‍वीरे तक दिखा दी. खबर है कि जब बाहर पुलिस अधिकारी आतंकवादियों के शिकार हुए तो ताज के अंदर छिपे आतंकी जश्‍न मना रहे थे। सूचना के इस कदर लापरवाह होने का नतीजा यह भी हो सकता है कि विदेशों में बैठे आका इससे अगली रणनीति तय कर रहे हो। हमें अपनी सुरक्षा को लेकर किसी भी स्‍तर पर लापरवाही नही बरती चाहिये,खासकर यह जिम्‍मेदारी तय होनी चाहिये कि राष्‍ट्रीय विपत्ति के क्रम में,आतंकवादी गतिविधियों या बाहय आ‍क्रमण के समय बरती जाने वाली कोताही को किसी सूरत में बख्‍शा नही जायेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरे देश को ग़ह मंत्री शिवराज पाटिल के इस्‍तीफे व वित्‍त मंत्री रहे पी चिदंबरम द्वारा पदभार संभाले जाने की सूचना आ चुकी है। क्‍या यह वह समय नही है जब सिर्फ इस्‍तीफे को अपनी जिम्‍मेवारी से बचने का माध्‍यम भर न माना जाये बल्कि इस प्रकार की लापरवाही बरते जाने के लिए राजनेताओं को भी दोषी बनाया जाये. अतंत देश सबका है, देश की सुरक्ष्‍ाा की जिम्‍मेवारी सब पर है.

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