देश व दुिनया की तमाम खबरें हमें चौकाती है लेकिन कई बार हम उन बातों को नजरअंदाज कर देते है जो हमें सही मार्ग पर आगे बढना सिखाती है, हमारा मार्गदर्शन करने के साथ साथ अपने नेत़ृत्व में जीना व चलना बताती है
इतिहास पुरूषों ने अपने मार्गदर्शन के द्वारा हमें बताया है कि कैसे पत्रकारिता जीवन में हमें अपने मानदंड खुद तय करने है वो कैसे संभव है. उनलोगों ने लाख दुश्िवारियों के बावजूद स्वतंत्र व संप्रभु राष्ट्र के र्निमाण में योगदान देते हुए स्वहित की अनदेखी की. साहित्य व कला के विकास के लिए समर्पित सरकारी व निजी संस्थाओं को भी यह मालूम नहीं कि वे अपने कार्यो को कैसे दिशा दे जिससे अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर सके. कोई भी राष्ट्र या व्यकित इनसे उबर नहीं सकता.
कलकत्ता में जब 1921'22 में हिंदी साहित्सकारों व पत्रकारों की टोलियां निकलती थी तब नए विचारों से न केवल स्वयं को अनुप्रणाति करती थी बल्िक उनसे आम जनता को भी लाभांवित करती थी. वे एक ओर नाटक व थियेटर भी देखा करते थे,उनकी समीक्षा किया करते थे वही उनकी पकड देश की राजनीति पर भी थी. वे उस समय होने वाली सामाजिक झडपों को भी बारीरिकी से देखते थे. हिन्दू जाति के उत्थान की बातें आज के संदर्भ में सांप्रदायिक दिख सकती है लेकिन कही से भी उनकी वो दूष्टि नहीं थी. हिन्दू पंच जैसे अखबार के संपादक पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा अपने संपादकीय में एक स्थान पर इसे स्पष्ट करते हुए कहते भी है कि वे न तो हिन्दू को छोडते है न मुसलमानों को,उन्हें जो कहना होता है उसे स्पष्ट तौर पर समाज के आगे रख देते है. समाज के किसी भी बुराई पर कलम चलाते वक्त वैसे साहित्यकारों व पत्रकारों को इस बात से कोई गुरेज नहीं था कि इतिहास उन्हें किस रूप में लेगी. स्पष्टवादिता बलिदानी पत्रकारों में कुट कुट कर भरी थी. वे जैसा लिखते थे वैसा सोचते थे, उसी प्रकार का जीवन भी जीते थे. पद व प्रतिष्ठा को लेकर मारा मारी नहीं करते थे. उन्हें पता था कि हिन्दी अखबारों के पाठकों पर प्रकाशक का अथवा किसी दूर्भावना से प्रेरित विचारों का कोई प्रभाव नहीं पडता है.
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Wednesday, May 28, 2008
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