हिंदी पटटी में हिंदी साहित्य के विकास के लिए गठित सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं की खास्ताहाल स्थिति के प्रति न तो हिंदी सेवक व पाठक और न ही सरकार व हिंदी साहित्य के प्रकाशन संस्थाओं की ही कोई रूचि रह गयी है.बहुमूल्य साहित्यिक सामग्रियों को यू हीं नष्ट होते देख कर किसी भी सुह़दय हिंदी पाठक का कलेजा कांप जाएगा. हिंदी का भंडार भरते-भरते न जाने कितने लेखक,पत्रकार गुमनामियों के अंधेरे में खो गये, न जाने पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए उन्होने कितनी यातनाएं झेली होंगी, कष्ट उठाये होंगे, अंग्रेजी हुकूमत की दुश्वारियों को झेला होगा, इसे कोई देखने व समझने वाला नहीं है.हद तो यह है अब नये भडकदार कलेवर में छपने वाली साहित्यिक साम्रग्रियों के सामने पुरानी सामिग्रिया तुच्छ लगती है. खासकर, बिहार के हिंदी साहित्यिक संस्थानों पर नजर दौडाएं तो यह कहना बेमानी लगता है कि बिहारवासी देश के हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के सबसे बडे पाठक है या देश में सबसे अधिक साहित्यिक सामग्रियां बिहार में ही पढी जाती है. ऐसे पठन पाठन का क्या मतलब जब हम अपनी बहुमूल्य संपदा को संभाल पाने में असमर्थ हो. पटना स्थित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में अपने समय की मशहुर पत्र-पत्रिकाओं यथा मतवाला, माधुरी, साहित्य सम्मेलन पत्रिका, चांद, हिंदू-पंच, मर्यादा, चैतन्य पंचडिरा, बालक जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति बदतर है. इन्हें देखने वाला कोई नहीं है. यह सरकारी संस्था है. हिंदी साहित्य सम्मेलन राजनीति का अखाडा बना हुआ है. उसके परिसर में साहित्यक कार्यक्रम बस जयंती व पूण्य तिथि के आयोजन तक सीमित हो कर रह गया है. इसके खाली पडे परिसर का उपयोग किराये पर मेले- ठेले के आयोजन से प्राप्त होने वाली धन उगाही के लिए किया जा रहा है. बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी से नये प्रकाशन के कार्य बंद हो चुके है. सरकार ने 75 वर्षीय वयोव़द्व हिंदी प्राध्यापक प्रो रामबुझावन सिंह को बिहार राष्ट्रभाषा परिष्द व अकादमी का निदेशक बना रखा है, हद तो यह है कि उन्हें जब से पदस्थापित किया गया है यानि पिछले 14 महीनों से एक फूटी कौडी तक नहीं दी गयी है. उन्होने एक मुलाकात में बताया कि संस्थान में 40 कर्मचारी है जिनमें 18 चतुर्थवर्गीय कर्मचारी, व शेष्ा में टंकक व शार्टर व अन्य त़तीय वर्गीय कर्मचारी है. उनका काम बस परिसर में लगे ताड व खजुर के व़क्षों की व्यवस्था करना भर रह गया है. निजी साहित्यक संस्थाएं अपने बलबूते पर कुछ करने के लिए प्रयास करती है जो कि पर्याप्त नहीं है. कई ऐसे साहित्यकार ऐसे है जिनके परिजनों के प्रयास से कोई कार्यक्रम नहीं हो तो उन्हें बाद में याद रखना भी नई पीढी के लिए मुश्किल हो जायेगा. यह स्थिति कमोबेश न सिर्फ बिहार में है बल्कि अन्य प्रांतों में भी है. ऐसे में हमें ठहर कर हालात पर गौर करना होगा. एक ओर ख्यात हिंदी सेवी अमरकांत बिमार पडते है तो उन्हें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कोई पुछने वाला नहीं होता तो दूसरी ओर बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह बिमार पडते है तो उन्हें कोई देखने वाला नहीं सामने आता. यह दुर्गति पहले भी हुआ करती थी आज भी देखने को मिल रही है. क्या इसका कोई सामाधान है. विचारें और हमें भी मागर्दशन दें.
कौशलेंद्र मिश्र
Saturday, June 21, 2008
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1 comment:
आपने दुर्दशा बताकर अच्छा किया। ऐसे ही सही स्थिति सामने रखने से कुछ सम्भावना बन सकती है। कोई नयी सोच, कोई नया विचार, कोई नये संकल्प वाला व्यक्ति सामने आ जाय।
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