हिंदी लेखकों के समक्ष संकट
आज की व्यस्त दिनचर्या में न तो किसी के पास पढने का समय है न लिखने का. अगर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा हो तो उसके पाठक कौन होंगे, वे किस प्रकार से आपके लेखन को स्वीकार करेंगे यह कहना मुश्िकल है. इसके बावजूद लेखन क्रम निरंतर जारी है. विचारों का आदान प्रदान जारी रहना चाहिये. स्वस्थ्य एवं जीवित समाज के लिए यह जरूरी है. पूर्व के लेखकों में समाजिक चितंन का प्रवाह हमे प्राय देखने को मिल जाता है,एक ओर वे व्यवस्था के दोषों को उजागर करते जाते थे वही दूसरी ओर समाज को एक नई दिशा भी प्रदान करते थे. खासकर, ब्रिट्रिश काल के लेखकों को देखे तो उनके समक्ष कई चुनौतियां थी. हिन्दी भाषा को भी एक नया तेवर प्रदान करना था. लेखन के कारण उन्हें कई बार हुकूमत का कोप भी झेलना पडता था. आज ये परिस्िथतियां बदल चुकी है. स्वतंत्र भारत में इंमरजेंसी काल को छोड दे तो शायद ही कभी लेखकों व पत्रकारों को हुकूमत के कोप का भाजन बनना पडा हो. येन केन प्रकारेण ऐसा हुआ भी हो तो वह अपवाद मान लिया गया है. लेकिन हमें इतिहास से सबक लेने की कोशिश करनी चाहिये. नवजागरण कालीन लेखकों में माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विदयार्थी, पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा, प्रेमचंद सहित अन्य लेखकों को देखें तो उन्हें अपने लेखन के कारण कई बार अपमान व शासकीय तिरस्कार का सामना करना पडा. वे दिन रात स्वयं जगकर पांडुलिपि तैयार करते, उन्हें कंपोज कराते फिर प्रकाशन से लेकर वितरण तक में प्रमुख भूमिका निभाते थे. आज ये कार्य कई चरणों में बंट चुके है. ऐसे में गौरतलब तथ्य यह है कि आज का पाठक बर्ग भी बढा है. शिक्षा में उन्नित के साथ साधन भी बढे है.
Friday, May 30, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment