गुरूवार - 29/05/08
साहित्ियक समाज व पत्रकारिता जीवन के बीच संबंध
वर्तमान में साहित्ियक समाज का दैनिक पत्रकारिता जीवन से ताल्लुक लगभग मुतप्राय हो गया है. दो समान विचारधारा व प्रक्रियावाले इन क्षेत्रों में अलगाव के कारण आम पाठक वर्ग दिशा भ्रम का शिकार हो गया है. यही कारण है कि बाजार में नई पत्र पत्रिकाओं के आने के बावजूद इलेक्ट्रानिक मीडिया व फिल्म का क्रेज घटता नहीं दिख रहा. अक्षर ब्रहं है के स्थान पर सब कुछ तत्काल देखने और अनुभव करने की आपाधापी बढ गयी है. ऐसा नहीं कि द़श्य माध्यम बंद हो जाने चाहिये,उनका अपना महत्व व उपयोगिता है.इसके बावजूद हम ऐसा महसूस कर सकते है जब प्यास लगे तो पानी ही काम आता है न कि भोजन. साहित्ियक समाज व पत्रकार बंधु अपने'अपने अहम से घिरे है. समाज को दिशा देने में साहित्य अलग राग अलाप रहा है तो पत्रकारिता अपनी अलग भूमिका निभा रहा है. एक अर्थभाव से जुझ रहा है तो दूसरा पूर्ण व्यावसायिक होकर पुरे बाजार पर अपनी पकड बनाने में लगा है.देश की अंग्रेजी साहित्य लेखन को थोडी देर के लिए नजरअंदाज कर दे तो हिदी व क्षेत्रिय भाषाओं से संबंद्व साहित्ियक लेखन को खासी परेशानी हो रही है. साहित्य लेखन के लिए अब भी स्वतंत्र लेखन की गंजाइश बनी हुई इस जोखिम के साथ कि चाहे तो पाठक उसे अस्वीकार कर सकते है लेकिन पत्रकारिता में लेखन खारिज हो जाने का मतलब उसके लेखक के साथ ही पत्र के भविष्य को होने वाला नुकसान है.
Thursday, May 29, 2008
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