Wednesday, July 16, 2008

सरकारी नीतियां व उनके पालनहार

मैं अखबार से जुडा हुआ हूं, सरकारी की नीतियों व उसे लागू किये जाने के तौर तरीकों पर नजर रखता हूं. कई बार यह देखकर हैरानी होती है कि देश की सबसे योग्‍य प्रत‍िभा जिसे हम आईएएस कहते है,उनके द्वारा राजनेताओं के संरक्षण में तैयार की गयी सरकारी नीतियों में इतनी विसंगतियां होती है,जिसे आम द्वारा समझ पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्‍य होता है. आखिर प्रशासन का उदेश्‍य क्‍या है. यह उन नीतियों को देखकर समझना पटना से पैदल चंडीगढ जाना है. जनता के लिए हितकारी कही जाने वाली नीतियों से आम नागरिक के स्‍थान पर राजनेता व अधिकारी,कर्मचारी ही फलते फूलते है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी में इतनी तो नैतिकता अवश्‍य थी कि उन्‍होने स्‍वीकार किया था कि दिल्‍ली से चलने वाला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते पहुंचते 25 पैसे में तब्‍दील हो जाता है.वह भी खर्च होता है इन अधिकारियों की क़पा पर. इन दिनों इंद्र देव की क़पा भारत वर्ष में चहुंओर बरस रही है.इंद्र देव ने अपनी डयूटी समय पर ही शुरू की लेकिन चाहे मुंबई का मुनिसिपल कारपोरेशन हो या पटना का नगर निगम दोनों के कार्य करने की पद्वति में ज्‍यादा का अंतर नहीं महसूस नहीं होता. दोनो स्‍थानों पर जल जमाव के कारण आम नागरिक,इसमें नेता,अभिनेता, व एक मध्‍यमवर्गीय परिवार भी शामिल है, को भारी परेशानियों का सामना करना पडता है. कोई इस पर वरीय अधिकारियों से जबाब तलब करता है तो बेशर्मी की हद लाघंते हुए अपनी सीमाएं बता दी जाती है. मानो इंद्र देव के कोप का निवारण कोई अन्‍य देव ही कर सकते है. आखिर यह क्‍या है. विकास पुरूष कह जाने वाले राजनेता, लोकप्रिय कहे जाने वाले राजनेता क्‍या इतना भी समझने में असमर्थ है. देश की आधी से अधिक आबादी को नित दिन भ्रष्‍टाचार का सामना करना पडता है. चाहे आप राशन कार्ड बनवाना चाहते हो, या पासपोर्ट, किसी के जीवन भर सेवा के बाद पेंशन प्राप्‍त करने की बात हो या अन्‍य कोई सरकारी कार्यालय से संबंधित कार्य ईमानदार आदमी ढूंढे नहीं मिलते. भ्रष्‍टाचार की सामांतर व्‍यवस्‍था इस कदर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगी है कि अब तो न्‍यायाधीशों के भी कारनामें प्रकाश में आने लगे है. इस हालात पर मौजू दो पंक्ति याद आ रही है जिसे प्रस्‍तुत करना चाहूंगा........
मेरा कातिल ही मेरा मुंशिफ है, वो क्‍या मेरे हक में फैसला देगा/ आदमी आदमी को क्‍या देगा, जो भी देगा, वो खुदा देगा.
मैं यह नहीं कहता कि देश की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी में की जा रही प्रत्रकारिता इससे अछूती है. गिरावट सभी स्‍तरों पर समाज में आयी है. आज कैसे कैसे छुद्र स्‍वार्थो के लिए कलम को गिरवी रखकर कार्य किये जा रहे इसकी भी पडताल की जानी चाहिये. कैसे, बाजारवाद के प्रभाव में आकर पुरा वातावरण प्रदूषित हो गया है. इसमें हमें अपने राष्‍ट्र को किस ओर ले जाना चाहिये. क्‍योकि अतंतह राष्‍ट्र बचेगा तो हम बचेंगे,आनी वाली पीढियां हमारा ही अनुकरण करेंगी. अभी विश्‍व जनसंख्‍या दिवस 11 जुलाई को केंद्रीय मंत्री अंबुज मणि रामदॉस पटना आये थे,उन्‍होने बडी साफगोई से यह कहा कि बच्‍चों के विद्यालयों के आस पास से पिज्‍जा बर्गर आदि खाद्य पदार्थो को दूर रखने का निर्देश दिया गया है, कोल्‍ड डिंक के सेवन पर रोक लगायी जानी चाहिये. परंतु जब मंत्रीजी से यह पूछा कि आप बतायें राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य ि‍मशन के तहत बिहार सरकार को केंद्र ने कितनी राशि दी,और उसमें से कितनी राशि व्‍यय की गयी तो वे बगले झांकने लगे, उनके साथ मौजूद एनआरएचएम के निदेशक सहित अन्‍य अधिकारी भी यह बता पाने में स्‍वयं को असमर्थ थे, जबकि प्रेसवार्ता केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय द्वारा आहूत की गयी थी. सिर्फ मीडिया का लोकप्रिय स्‍लोगन, बडे कारपोरेट घरानों, अभिनेताओं पर कीचड उछालने, लोकप्रियता अर्जित करने के लिए उपयोग किया जाना, आम जनता के विश्‍वासों के प्रति अक्षम्‍य अपराध है. हमें सुदूर गांवों में रहने वाले उन लोगों के जीवन के बारे में भी सोचना होगा जिनके आस पास उनके बच्‍चों के लिए न तो अच्‍छे विद्यालय है, इलाज के लिए न तो अच्‍छे अस्‍पताल है, वहां बिजली की सुवधिा तक उपलब्‍ध नहीं है. अधिकांश लोगों के पास रोजी रोजगार के साधन नहीं है. भारतीय संवि धान क्‍या सिर्फ दिल्‍ली, मुंबई व महानगरों के लिए बनायी गयी है. देश के सुदूर क्षेत्रों से निर्वाचित होकर आने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए क्‍या ग्रामीण जनता के जीवन का कोई मूल्‍य नहीं है. क्‍यो आखिर वादो, विचारो, व नारों की शोर में शासन,प्रशासन,मीडिया,न्‍यायालय, अपने दायित्‍वों को भूल जाते है.

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