Saturday, October 11, 2008
साहित्य लोगों के अंतर्मन से दूर हो रहा है
इन दिनों हिंदी साहित्य लेखन आम जनों के अतर्मन से दूर होता जा रहा है. शायद हिंदी के लेखक व सुधी पाठकों के बीच मौजूद भ्रम को छोड दे तो ऐसा मालूम होता है कि साहित्य अब ज्यादातर स्व चिंतन व सुख के लिए लि खी जा रही है. अपने विचारों को थोपनें के चक्कर में कई बार अच्छे अच्छे लेखक भी भटकाव के शिकार हो रहे है. पिछले दिनों पटना में दिनकर जयंती के अवसर पर साहित्य अकादमी,नई दिल्ली द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बरबस साहित्य के प्रति घटती रूचि को लेकर प्रख्यात साहित्यकार,आलोचक व कवि अशोक बाजपेयी को कहना पडा,ऐसी भीड बिहार में ही देखने को मिल सकती है, साहित्य के प्रति ऐसा लगावा हिंदी भाषी अन्य प्रदेशों यूपी,राजस्थान या मध्य प्रदेश में भी देखने को नही मिलती. जब उनसे मैने पूछा कि हिंदी कविता को गद्य बनाने के पीछे कौन सी विवेक बुद्वि है तो उन्होने कहा कि हिंदी गद्य व पद्य को करीब आना ही चाहिये. दूसरी ओर साहित्य अकादमी के वरीय पदाधिकारी ब्रिजेंद्र त्रिपाठी का कहना था कि अकादमी अपनी ओर से प्रयास कर रहा है कि हिंदी कविता में पुन लय व छंदों को प्रमुखता मिले. जब हिंदी वाले ही अपने आप में यह तय नही कर सकते कि कौन सी चीज पाठकों को रूचिकर लगेगी और कौन सी नही, अथवा कैसे लेखन को वरीयता दी जानी चाहिये तो फिर भला आम पाठक अपनी समस्या को कहा रखें. वैसे निश्चित है कि प्रत्येक पाठक अपने प्रिय रचनाकार को बार बार अवश्य ही पढना चाहेगा. कार्यक्रम के दौरान जब हिंदी कविता में नारी विमर्श जैसी चीजें शामिल हो रही है या नही यह पुछे जाने पर कवियत्री अनामिका ने कहा कि कविता चौराहे पर होने वाली बातचीत की तरह हो चुकी है.सब कुछ सुख व दुख बांटना चाह रही है. निश्चित तौर पर इसमें नारी विमर्श के पुट भी शामिल हो रहे है. खैर, इतना तो सत्य है कि आज जो भी महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो रही खासकर, हिंदी भाषा में उनकी पांच सौ से तीन हजार प्रतियां ही प्रारंभ में छपती है,फिर उसके आठ दस पुनर्प्रकाशन के बाद उसकी सफलता का बखान किया जाता है. जबकि आज भी विदेशों में या अंग्रेजी भाषा के साहित्य की लाखों प्रतियां प्रकाशित होती है व प्रशंसित होती है. स्व भाषा या कहें राष्ट्रभाषा के संबंध में हमारी उदासीनता किस कदर है,इसकी परख करना मुश्किल है. आज से सात दशक पूर्व ही इस संबंध में गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए प्रताप में लि खा था कि जब किसी साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा दूसरे देश पर कब्जा करने की कवायद की जाती है तो सबसे पहले उसकी भाषा के पर कतर दिये जाते है. भाषा के बिना कोई राष्ट्र अपने संपूर्ण शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता. आज भी हम भले ही हिंदी के विस्तार, वैश्विक होने, बाजारवाद के लिए आवश्यक समझे जाने अथवा अन्य कारणों को लेकर हिंदी भाषा का गुणगान कर ले,यह कहने में जरा भी अतिश्योक्ति नही बरते कि हिंदी विश्व की किसी भी अन्य भाषा के समक्ष खडी होने की ताकत रखती है किंतू यह सत्य है कि हिंदी के प्रति लगाव व भाषा की समझ हममें विकसित होनी अब भी शेष है.
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