प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया में समान रुप से साहित्य व साहित्यकार हासिए पर ढकेले जा रहे है. प्रिंट मीडिया तो थोडी बहुत इज्जत बचाने के लिए साहित्यकारों की पुण्यतिथि व जन्मतिथि को स्थान भी उपलब्ध करा देता है किंतू इलेक्ट्रानिक मीडिया तो इससे परहेज करने में ही अपनी चतुराई समझता है. 31 जुलाई को ख्यात साहित्यकार प्रेमचंद की जंयती थी, साथ ही उसी दिन गायकी के बेताज बादशाह मो रफी पुण्यतिथि भी. प्रिंट मीडिया ने तो थोडा बहुत स्थान दोनो महानायकों को दिया किंतू इलेक्ट्रानिक मीडिया यहां भी डंडी मार जाने में भलाई समझी. क्योकि मो रफी को याद करने के बहाने गीत व संगीत के रुप में दर्शकों को मनोरंजन परोसा जा सकता है किंतू प्रेमचंद इसके लिए बिल्कुल ही अनुपयुक्त साबित होते है. वैसे भी प्रेमचंद पर मीडिया कवरेज के लिए भारी मशक्त करने की जरूरत हो सकती है. हद तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता व हिंदी में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले व्यक्तित्व चाहे वह प्रेमचंद हो, प्रताप के संपादक रहे बलिदानी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हो, या अंग्रेजी हुकूमत से जुझने वाले माखनलाल चतुर्वेदी, पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा इन्हें याद करने की फुसर्त किसे है. संयोगवश पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा की 81 वीं पुण्यतिथि 23 जुलाई को थी. उनके बारे में तो नयी साहित्यिक पीढी को शायद बहुत कुछ मालूम भी नहीं है. साहित्य सेवियों की नयी पौध को शोध व अपने पुर्वजों के बारें में जानने की फुर्सत भी नहीं है. साहित्यसेवियों को मीडिया द्वारा व्यापक फलक तब प्रदान किया जाता है जब उन्हें बुकर पुरस्कार या अन्य उल्लेखनीय पुरस्कार प्रदान किये जाते है. जैसे ये पुरस्कार इस बात के मानक बन चुके है कि उन्हें चर्चा के लिए कितना स्थान दिया जाना है. मो रफी को तवज्जों दिये जाने से मेरी कतई मंशा नहीं है कि उनका सामाजिक अवदान कम है या उन्हें कमतर स्थान मिलनी चाहिये. साहित्यकार अपने समय व समाज का प्रतिनिधि होता है. उसे भूलकर हम सिर्फ मनोरंजन के द्वारा अपने समाज को किस मार्ग पर ले जाना चाहते है यह तय करने की जरूरत है. द़श्य व श्रव्य माध्यम से आज की युवा पीढी ज्यादा प्रभावित हो रही है. पढने की आदत छूटती जा रही है. इस आदत के कारण मीडिया में वह मांग नहीं पैदा हो पा रही है, जिस कारण पुस्तकों की महत्ता पुर्नस्थापित हो सके. यह अलग बात है कि इतने सारे अवरोधों के बावजूद हिंदूस्तान के किसी भी शहर में पुस्तक मेलों का आयोजन हो, भीड खींची चली आती है. यह स्वत र्स्फूत भीड होती है. यहां कोई ग्लैमर नहीं होता. भीड में वेद, भाष्य के साथ ओशों के भी पाठक होते है, वही ज्ञान विज्ञान, साहित्य, पाक कला, मनोरंजक पुस्तकों के रसिक भी होते है. इन्हें मीडिया की चमक दमक की जरूरत
नहीं पडती.
Friday, August 1, 2008
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1 comment:
वाकई सही लिखा है आपने
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