Thursday, October 21, 2010
प्रथम चरण का चुनाव संपन्न, जनता का नब्ज टटोल रहे नेता
प्रथम चरण का चुनाव आज बिहार में संपन्न हुआ , नेता एक जगह से दूसरी जगह भागते फिर रहे हैं , सत्ता का खेल चरम पर हैं। नोट बाटे जा रहे हैं । पेड़ न्यूज़ धडल्ले से छापे जा रहे हैं, उसका स्वरुप बदला बदला सा हैं , चुनाव आयोग इसे बंद करने को लेकर चिल्ला रहा हैं । कोई आम जनता की सुनने को तैयार नहीं । गरीबो के पास चुनाव बूथ तक जाने हिम्मत और हैसियत नहीं । चैनल नितीश की जित की घोसना कर रहे हैं। नयी पीढ़ी जानना चाहती हैं क्या ऐसे ही चुनाव होता हैं । कई बाते लोगो की जुबान पर हैं लेकिन वो लोकतंत्र की जुबान पर नहीं चढ़ती । थोथी बातो से क्या बिहार का पिछड़ा पन दूर हो सकता हैं । जरा सोचे.
Thursday, September 30, 2010
अयोध्या विवाद के निपटारे की अदालती पहल
अयोध्या विवाद को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ द्वारा आज सुनाये गए ऐतिहासिक फैसले पर पूरी दुनिया की निगाह टिकी थी, सभी राजनितिक डालो की सांसे अटकी थीठीक ३-३० बजे से न्यायालय ने अपना फैसला सुनना शुरू कर दिया। मिडिया की बेचैनी बढती जा रही थी। घरो व दुकानों में जिसे जहा जगह मिली टीवी व रेडियो से चिपका रहा । अदालत ने अपना फैसला सुना दिया। बिहार विधान सभा चुनाव के बीच इस मामले ने बिहार की राजनितिक तपिस को बढ़ा दिया था । मै सीधे वयोवृध इतिहासकार रामशरण शर्मा के घर पंहुचा। ९३ साल के हो चुके शर्मा जी ने अपने संस्मरण सुनाये। कहा की अदालत के बाहर फैसला होना चाहिए था। इतिहास ने कोई भूल नहीं की हैं । मंदिर व मस्जिद के बीच दुरी का कम होना ही विवाद का मूल कारण हैं । क्या हम अदालत के बाहर मामला नहीं सुलझा सकते, हमारी आपसी समझ इतनी कम होती जा रही हैं । अदालत ने पूरी जमीं को तिन हिस्सों में बाट दिया हैं। रामलला को भी भूमि का मालिकाना हक़ दिया हैं। धन्य हैं भारत भूमि .
Saturday, September 18, 2010
चुनाव का बजा बिगुल, नेताओ के घात-प्रतिघात शुरू ,जनता गई तेल में
बिहार विधान सभा चुनाव -२०१० का बिगुल बज गया हैं , भारत निर्वाचन आयोग ने चुनाव की तिथि निर्धारित कर दी हैं , २७ सितम्बर को पहले चरण के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू होगी, इधर नेताओ के घात - प्रतिघात का दौर शुरू हो चूका हैं । कांग्रेस ने राहुल गाँधी को अपनी मुहीम में लगा दिया हैं , तो दूसरी ओर लालू-पासवान की दोस्ती परवान चढ़ रही हैं। विकास - विकास दर में वृद्धि की राग अलापते नितीश कुमार और सुशिल कुमार मोदी , जनता दल यु - भाजपा गठबंधन अपनी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हैं। भाजपा - जदयू में जहा नरेन्द्र मोदी के चुनावी सभाओ के आयोजन को लेकर हाय - तौबा मची हैं , तो लालू - पासवान को अपने गर्दिश के दिनों से उबरने के लिए एक सुनहरा मौका सा मिल गया हैं, वे बिहार को विकास की नई डगर पर ले जाने की घोषणा करते फिर रहे हैं। लालू ने तो अपनी पत्नी व् पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवे को जहा साइड लाइन पर रख दिया हैं और रामविलास पासवान के छोटे भाई व् विधायक पशुपति कुमार पारस को उप मुख्यमंत्री के बतौर स्वीकार कर लिया हैं , उससे भविष्य की कल्पना की जा सकती हैं। पांच वर्षो के एनडीए शासन में विरोधी दल की ठीक से भूमिका नहीं निभा सकने वाली राजद लोजपा को अब आम जनता की चिंता सताने लगी हैं। कांग्रेस की स्थिति मजबूत होने से बिहार चुनाव एक रोमांचक दौर में पहुच गया हैं। बिहार में बदलाव के कई दौर अभी आने शेष हैं लेकिन मौजूदा राजनीतिक स्तिथि में ऐसी कलप्ना करना कोरी मुर्खता होगी । आम अवाम के दुखो की चिंता में कोई शामिल नहीं हैं । रोजगार की तलाश में पलायन जरी हैं , पढ़ाई की समुचित व्यवस्था नहीं हैं , इलाज के लिए बड़े शहरो का चक्कर लगाना पड़ता हैं । कल कारखाने , बिजली की उपलब्धता नहीं हैं, प्राकृतिक आपदा राजनीती चमकाने का जरिया मात्र बन गयी हैं .
Thursday, September 2, 2010
नक्सलियों को उकसाना बंद करे, हिंसा नहीं समाधान
गरीबी भुखमरी से जूझती जनता को नक्सलवाद का सहारा मिल रहा हैं, वे कोई उनकी भूख नहीं मिटा रहे न ही कोई स्थाई रोजगार के अवसर पैदा कर रहे लेकिन उनमे यह उम्मीद जगाए रखते हैं। उम्मीद भूख को समाप्त करने की , बेरोजगारी मिटाने की , जल , जमीं और जंगल के ऊपर उनके अधिकार दिलाने की । उनके बच्चो और महिलाओ को स्वास्थ्य की सुविधाए दिलाने की। वे आदिवासियों में कोई बैज्ञानिक पैदा नहीं करना चाहते । विधानसभाओ और लोक सभा में उनके समर्थक पहुचे हुए हैं , लेकिन वे भी अपने को लाचार महसूस कर रहे हैं। कई नेता तो अपने बच्चो को विदेशो में या कॉन्वेंट स्कुलो में पढ़ा रहे हैं लेकिन गरीबो को मरने मरने के लिए तैयार कर रखा हैं । केंद्र या राज्य सरकारों को इन्हें उकसाने वाली कार्यो से बचना चाहिए, भटके हुए लाचार लोगो को शेयर की जरुरत होती हैं, सरकारे हिंसा के लिए प्रेरित करने वालो के खिलाफ कड़ी करवाई करे , साथ ही साथ नक्सल प्रभावित इलाकों में बड़े स्तर पर राहत व पुनर्वास कार्यकर्म संचालित करे । बिहार में ४ दिनों से नक्सलियों ने कोहराम मचा रखा हैं , उन्हें कई बार सरकारों की ओर से सही जबाब नहीं मिल पा रहा हैं। निर्णय करने वाले स्थिति पर नजर रखे हैं लेकिन कुछ नहीं हो रहा हैं । वे चार पुलिस कर्मियों को बंधक बना रखा हैं , दूसरी ओर ७ को अबतक मार चुके हैं । हिंसा के रास्ते समाधान निकलना संभव नहीं हैं।
Thursday, August 19, 2010
छोटे शहरो में कॉमनवेल्थ गेम की चर्चा
दिल्ली से मिडिया में छन छन कर आ रही ख़बरे कॉमनवेल्थ की तैयारी और उससे जुडी सच्चाई को बया कर रही हैं , छोटे शहरो में उत्सुकता बढ़ा रही हैं, देश की प्रतिष्ठा दाव पर लगी हैं, चर्चाओ का बाजार गर्म हैं, कौन मॉल बना रहा हैं, कौन विज्ञापन को लेकर अपने हाथ खीच रहा हैं, शीला जी परेशान हैं, देश की निगाहे दिल्ली दरबार पर टिकी हैं । मिडिया की खबरों को दरकिनार करते हुए तैयारी अपने अंतिम चरण में हैं। भोजपुर जिले का मुख्यालय हैं आरा। यहाँ का एक नवयुवक प्रशांत जो दिल्ली से लौटा हैं, कहता हैं " दिल्ली में खेल के मैदानों , सडको को दुरुश्त किया जा रहा हैं लेकिन स्तर बेहद घटिया हैं। दिल्ली वासियों को फुरशत नहीं कि वे उसकी सामाजिक निगरानी करे। " यह सही हैं कि अपने यहाँ राष्ट्रीय गौरव कि भावना किसी खास तैयारी के दौरान देखने को नहीं मिलती। छोटे शहर इससे तब ज्यादा जुडेगे जब "विज्ञापन युद्ध" शुरू होगा। कॉमन वेल्थ ko darshne wale ti shirt व अन्य दैनिक उपयोग कि सामग्रियों का बाजार सजने लगेगा। ग्रामीण इलाके के बच्चे टीवी में आँखों को चौंधियाती रौशनी में अपने खेल के मैदानों कि तुलना करेंगे । मछली पकड़ने वाले, गाय चराने वाले युवको कि टोली घास के मैदानों पर उधम मचाएगी। क्या हम पडोसी देश चीन से किसी भी खेल आयोजनों की तैयारी की सिख नहीं ले सकते। विश्व के सबसे युवा देश भरते के युवाओ को उससे संबध नहीं कर सकते । क्यों बड़े कार्पोरेट घरानों के ऊपर निर्भर हो कर हम अपनी प्रतिष्ठा को ठोकर मरने पर तुले हैं । कई बार राजनेता नहीं समझते की यह चुनाव की तैयारी नहीं और न ही कोई बच्चो का खेल हैं ........
Saturday, August 7, 2010
कैसे हो दिल की बतिया
आदमी कैसे करे दिल की बतिया। कैसे सेलिब्रिटी करते हैं अपने दिल की बाते। क्या उसमे दिल के किसी कोने की सच्चाई रहती हैं। कई बार लगा की वो सिर्फ मतलब की बाते करते हैं। क्या अंग्रेगी लेखको की तरह हिंदी लेखक अपने प्रति इतने इमानदार रहते हैं। साफगोई क्या हिंदी वालो की जुबान में नहीं होता, हिंदी पत्रकारिता को क्या अभी अपने ईमानदारी की परख करनी बाकि हैं। कई इसे दिल्लगी समझ सकते हैं लेकिन हैं यह सच्चाई । हमारे अख़बार हो या हिंदी न्यूज़ चैनल हिंदी भाषियों की आत्मा को पकड़ पाने में विफल हैं। निहायत ही बेबकूफाना अंदाज होता हैं हिंदी पट्टी वालो का । वे जानना चाहते हैं पूरी तफसील से । उनकी इच्छा इसमें नहीं की कौन कितना बड़ा बेवकूफ हैं वे जानना चाहते हैं की कौन उनका आदर्श हो सकता हैं। सच पूछे तो यह भारत की आत्मा की पुकार हैं। हमारे आदर्श क्या नरेन्द्र मोदी हो सकते हैं, क्या राज ठाकरे जैसा कोई शख्श हो सकता हैं , कदापि नहीं । हमारा आदर्श महात्मा गाँधी , लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, रतन टाटा हो सकते हैं । इन्होने अपने जीवन में आदर्श स्थापित किया हैं । क्या आप इन्हें पहचानते हैं ।
Sunday, July 25, 2010
बहस से भागते राजनेता, सड़क से संसद तक होता हैं हंगामा
हमारे देश के राजनेताओ में सहनशक्ति की भारी कमी हो गयी हैं। किसी भी बात पर तवरित प्रतिक्रिया देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वे यह समझाने को तैयार नहीं होते कि इससे आम जनता पर कितना प्रभाव पड़ता हैं। सड़क से संसद तक उनके व्यवहारों को देखा जा सकता हैं। संसद के दृश्य देखे या किसी राज्य कि विधान सभा की आपको एक से दृश्य देखने को मिलेंगे । क्या यह परिलछित नहीं करता की समाज में दिनों दिन हो रही गिरावट के कारण हर खासो आम अपने आप में सिमटा जा रहा हैं । बंधुत्व की भावना का संचार इन्टरनेट या मोबाईल क्रांति के कारण विस्तार पाने की जगह व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा हैं। आखिर क्यों हम जनहित के मुद्दों से भटक जा रहे हैं। सारी योजनाए भ्रस्टाचार की भेट चढ़ती जा रही हैं। युवा वर्ग के सामने कोई आदर्श नहीं दिखता। हमारे आइकोन भी घबरा जाते हैं जब एक ओर उनकी नुख्ताचिनी की जाती हैं तो दूसरी ओर बाजार के दबाब के कारण उन्हें अपनी भावनाओ को प्रगत करने में परेशानी का सामना करना पड़ता हैं। कितना कठिन हैं मौजूदा दौर में किसी गरीब की आहो को जगह मिलाना। क्या संसदीय जीवन में आरोप प्रत्यारोप से इतर हमे मुख्य समस्याओ को हल करने में अपनी उर्जा का व्यय नहीं कर सकते हैं। मिडिया को बाजार ने कब्जे में लेलिया हैं। उसमे रह कर चाहे कोई लाख दावा करे कही न कही उसे बाजार से समझौता करना पड़ रहा हैं । जिसे आवाज बनना था बेजुबानो का वह चाटुकारों , दलालोंके साथ मिलकर अमीरों की रखैल बनती जा रही हैं। माफ करेंगे ऐसे शब्दों को स्त्री विरोधी करार देने वाले समझ ले, इसे क्यों इस कदर निकृष्ट बनाया गया हैं । किसी शक्ति को बंधक बना कर उसका निजी स्वार्थ के लिए उपयोग में लगा देने पर क्या इससे भी बुरा कुछ कहा जा सकता हैं । व्यापारी सिन्धु घाटी सभ्यता कालखंड में भी अपने वयापार वाणिज्य के विस्तार के लिए दूर देशो की यात्राये करते थे, भारतीय वाणिज्य व्यापार का डंका पुरे विश्व में बजता था उनमे ईमानदारी कूट कूट कर भरी थी, विदेशी भी सम्मान करते थे लेकिन आज क्या हो रहा हैं। विदेशी व्यापारियों को देश को लुटने की खुली छुट दे दी गयी हैं.
Wednesday, July 7, 2010
गंभीरता से मुर्खता की उत्पत्ति होती हैं......
कभी कभी बच्चे जब नादानी करते हैं तो उन्हें कहा जाता हैं कि गंभीर बनो। क्या ऐसा लगता हैं कि गंभीरता जीवन की इतनी ही नायाब जरुरत हैं। अभी एक केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का बयान पढ़ा। उन्होंने कहा कि योजना आयोग एसी कमरे में बैठ कर गरीबो के लिए योजनाये बनाता हैं। क्या इस प्रकार के आयोगों में गंभीर लोगो की भरमार नहीं हैं जो बड़ी ही आकर्षक योजनाये गरीबो के लिए तैयार करते हैं। उनका तो शुक्रिया अदा करना होगा कि वे उसके साथ ही अम्बानियो, मोदियो का भी ख्याल करते हैं , नहीं तो ये कम्पूटर , मोबाईल , चमचमाती कारे कहा से आती। ये सचमुच गरीबो की सुध लेते तो जगह जगह गाँधी बाबा की खद्दर ही दिखाई देती। पेट तो भरा होता लेकिन अमेरिकी सोच कहा से आती। लोगो ने उलटी राह पकड ली हैं। कमलनाथ जी विचारवान पुरुष हैं, उनकी आत्मा कभी तो सत्य को परखती हैं। इतने भारी भरकम आयोगों , मंत्रालयों का कोई मतलब भी हैं क्या जो इन्हें इस देश कि गरीब जनता अपने पीठ पर ढोए जा रही हैं। सचमुच अब तो लगने लगा हैं कि गंभीरता से मुर्खता कि उत्पत्ति होती हैं। आब कोई बाप अपने बच्चे को नहीं सिखाता - झूठ बोलना पाप हैं, बिना झूठ को सच किये आदमी अपने आप को इस दुनिया से परे पाता हैं। आज इस देश में महापुरुष मिथक में तब्दील होते जा रहे हैं। गांधीजी जैसे महापुरुष कि कल्पना करना मुश्किल होगा तो , दुनिया बिनोबा को सोच कर भी हैरत में रह जाएगी कि उसे हजारो एकड़ भूमि लोगो ने दान कर दिया था, एक मदन मोहन मालवीय जी थे जिन्होंने बिना किसी ग्रांट कमिशन के जन सहयोग से विश्विद्यालय स्थापित कर दियाउन्हें किसी आयोग कि अनुशंसा पर काम करने के लिए फंड नहीं मिला था। नियत सही हो तो कोई उदेश्य से भटका नहीं सकता। नेताजी, हमारे बुधिजिवियोगंभीर बने लेकिन मुर्खता छोड़े, आपको इतिहास माफ नहीं करने जा रहा हैं, जितने गरीबो के सिने से आह निकलेगी वह आपकी चिता कि धधकती ज्वाला को और भी जलाएगी। देखिये आप तो अभी से जल रहे हैं, इसकी tapish आपकी नींद गायब किये हैं.
Monday, July 5, 2010
भारत बंद के आईने में मिडिया के सरोकार
आज देश भर में भाजपा सहित तमाम विरोधी दलो ने महंगाई के मुद्दे पर भारत बंद का आह्वान किया। दिन भर रात भर धोनी की शादी में भोपू बजने वाली मिडिया अचानक से जनसरोकार के मुद्दे प्रदर्शित करने लगी। तमाम बड़े विरोधी दल के नेता स्क्रीन पर नजर आने लगे। कल के अख़बार में भी ये छाये रहेंगे । महगाई अपने जगह पर रहेगी , हा नेता और मिडिया अपना बाजार बना लेंगे। यहाँ मिडिया को इतनी ही पीड़ा होती तो जनसरोकार के मुद्दों को हासिये पर नहीं फेक दिया जाता। आज आजादी के ६० वर्षो बाद जिन्हे आम आदमी के बतौर नामित किया जाता हैं उनकी सामाजिक राजनितिक हैसियत क्या बच गयी हैं इसे समझा जा सकता हैं। देश के कई प्रान्तों में पिने का साफ पानी मयस्सर नहीं, महिलाओ के शौच की सही व्यवस्था नहीं, पेट भरने को मुठी भर दाना नहीं तो महंगाई की मार उनपर कैसी होती होगी इसे समझ पाना क्या इतना मुश्किल हैं । घडियाली आंसू बहाने वाले नेता अपने गिरेबान में झाके। मिडिया अपने को लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा स्तम्भ मानती रहे , आम जनता का भरोसा उसपर नहीं रहा । कोई खबरे अब उन्हें चौकाती नहीं। ये कानून अब उनके लायक नहीं रहे । खेत मजदूरों को कार्पोरेट नेताओ की भाषा समझ नहीं आती। गाँधी इतिहास हो गए हैं, उनकी मान्यताये गीता पुराण की भाति किताबो में दर्ज हो कर रह गयी हैं। इन पुस्तकों को कम्पूटर भाषी संताने समझने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं । महंगाई को लेकर न तो सत्ताधीश न ही विरोधी कोई दीर्घ कालीन नीति तय करने की इच्छुक हैं । बंद ,विरोध, नित नये मूल्यों की घोषणा जनता के हिस्से में बस यही रह गयी हैं, सब अपनी अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं । जय हो , भारत माता की जय हो , तुम्हारी संताने , इस परिणति को पहुच जाएँगी इसे ब्रम्हा भी समझाने में असमर्थ हैं .
Wednesday, June 30, 2010
भूमि सुधार के मुद्दे पर बिहारी राजनीति असमंजस में
बिहार में विधान सभा चुनाव होना हैं, इसके लिए विभिन्न दलों के रणनीतिकार अपने दिमागों पर बल डालना शुरू कर चुके हैं। कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल जहा भूमि सुधार के मुद्दे को उठाने से घबरा रहे हैं वही जन संगठनो व् वामपंथी दलों द्वारा इसे जोर शोर से उठाया जा रहा हैं। बिहारी राजनीति में भाजपा और जनता दल उ पहले ही इस मुद्दे पर अपनी हाथ जला चुकी हैं। किसी में इतनी ताकत नहीं दिख रही की वो भूमि सुधार के मुद्दे पर जनता का मत प्राप्त करे या कोई नयी दिशा में बढ़ सके। हद तो यह हैं की बिहार में भूमि के रिकार्ड का रख रखाव की स्थिति बेहद दयनीय हैं। भूदान के जमीनों का अधिकांश जिलो में कोई रिकोर्ड नहीं हैं, कई जमीनों को सर्वे के दौरान उलट पुलट कर सरकारी घोषित कर दिया गया हैं। सरकार के नियमो के तहत जमीं मालिक को स्वयं इसे साबित करना हैं। हजारो एकड़ जमीनों पर अवैध कब्ज़ा हैं। २० से ३० फीसदी खेती करने वाले दुसरो के खेत जोतते हैं। लाखो लोगो के पास रहने को घर नहीं हैं।
Wednesday, June 23, 2010
इज्जत की खातिर मौत की बढती रफ्तार
इन दिनों भारत वर्ष में इज्जत की खातिर मौतों की रफतार बढ़ गयी हैं। भारतीय समाज संक्रमण के काल से गुजर रहा हैं। इसे पाश्चात्य संस्कृति ने अपने रंग में लेना शुरू कर दिया हैं , कई मामलो में तो हमने आंखे मुंद कर इसे अपना लिया हैं , कई बार यह स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर हमें किस राह पर जाना हैं। सवाल यह हैं कि आदिम व् बर्बर युग से निकल कर ज्ञान और विवेक की ज्योति बिखेरने वाला भारत आज इज्जत की खातिर अपनी ही संतानों को मरते हुए देखने को विवश क्यों हैं । हमारी मानसिक दशा ऐसी बन कर क्यों रह गयी हैं कि हमें क्यों एक लड़की का अपने भविष्य को ले कर लिया गया निर्णय आत्मघाती प्रतीत होता हैं। क्यों परम्पराए टूट व् बिखर रही हैं। सवाल उपभोक्तावाद व बाजार के दायरे में रख कर समझा जा सकता हैं। किसी एक लड़की का निर्णय पुरे समाज को किसी खतरनाक निर्णय के मोड़ पर कैसे पंहुचा दे रहा हैं। स्वछंदतावाद ने समाज परिवार, कुल की अन्तत कहे तो देश कि मर्याद को तार तार कर के रख दिया हैं। क्या किसी अंकुश कि जरुरत आज के भारतीय समाज को नहीं रह गयी हैं। यह ठीक हैं कि बालिग हो चुके नौजवानों को अपने निर्णय कि छुट होनी चाहिए , उन्हें अपने भविष्य को लेकर किसी से शादी करने का पूरा अधिकार हैं। लेकिन क्या हम एक बड़े समाजिक समूह कि खुशियों को नजर अंदाज कर स्वयम खुश रह सकते हैं। क्या हम ऐसे समूहों का निर्माण करना चाहेंगे जिस में हर कोई स्वछन्द हो। अरे मेरे भाई, जानवरों से भी कुछ सीखो कि उन्होंने किस प्रकार से अपने समाज को व्य्वाश्थित कर रखा हैं । कभी उसका उल्लंघन नहीं करते। इज्जत की खातिर हो रही मौते किसी भी समाज के लिए एक कलंक हैं , इसे जायज नहीं ठराया जा सकता। हमें अपनी संतानों को समझने में कही भूल हो रही हैं। प्यार को नफरत से जीता नहीं जा सकता। इसे प्यार से ही हल करना होगा। बेतुकी बातो से ऊपर उठ कर हमें नौजवानों को नयी दिशा देनी होगी। हमारे रीती रिवाज इतने दकियानुशी नहीं हैं जो किसी समस्या के संधान की दिशा नहीं सुझाते, जरुरत उन्हें समझाने की हैं, खुद भी समझने की .
Saturday, June 12, 2010
नितीश और नरेन्द्र मोदी की तस्वीर ने बया की तल्ख़ हकीकत
हकीकत से बाबस्ता होना कभी कभी बेहद खतरनाक सिद्ध होता हैं। खासकर, राजनीतिक दृष्टी से जब सिधान्तो व् उसूलो से जब अलग रिश्तो की बाते होती हैं, तो जबाब देते नहीं बनता। आज के दैनिक में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के साथ क्या छपी मनो भूचाल आ गया । छिपाए छिप नहीं रहा न दिखाए दिख नहीं रहा। भाजपा की यहाँ राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही हैं , इसमें भाग लेने भाजपा के सभी दिग्गज नेता आये हुए हैं। देश की नीतिओ के निर्धारण के लिए ये जिम्मेवार होते हैं , आपस में ये इस प्रकार अछूतों की तरह वयवहार करते हैं लेकिन जब सत्ता में साझेदारी की बाते होती हैं तो गलबहिया डालने से इन्हें इंकार नहीं होता।
Saturday, May 29, 2010
दलाई लामा और शंकराचार्य का पटना प्रवास
बुद्ध पूर्णिमा के दिन पटना में दलाई लामा और पूरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्छ्लानंद जी पटना में थे। दलाई लामा और शंकराचार्य अलग अलग जगहों पर थे उन्होंने कई बड़े महत्व की बाते कही। दलाई लामा चूकी राजकीय मेहमान थे इसलिए उनकी बातो को मीडिया में काफी जगहे मिली लेकिन शंकराचार्य अपनी कई बाते मिडिया के माध्यम से आम जनता के बीच नहीं रख पाए। उसदिन पटना में एक भव्य स्तूप का उद्घाटन परम पावन दलाई लामा ने किया। एक और महत्व की बात हैं की बिहार फौन्डेशन के सहयोग से महाराष्ट्र से ७२ बौद्ध तीर्थयात्रियो का एक दल भी यहाँ आया था। भारत भूमि विद्वानों व धर्माचार्यो से भरी हैं । भारत में सनातन धर्म की प्रतिष्ठा किसी सत्ता के कृपा की मुहताज नहीं हैं। हा, तिन महीने में नितीश सरकार की इच्छा शक्ति से स्तूप बन सकता हैं लेकिन उसी से चार फर्लाग की दुरी पर स्थित कंकरबाग मुह्हले के लोग प्रत्येक वर्ष बरसात में डूबने को मजबूर होते हैं , तिन वर्षो से सीवरेज व् नाला निर्माण की करवाई की जा रही हैं वो आजतक पूरा नहीं हो सका। परम पावन दलाई लामा ने कहा की ध्यान केंद्र व् लाइब्रेरी बनाये लेकिन अच्छा होता की बौद्ध सायंस, फिलासफी और रिलिजन की पढाई हो। उन्होंने कहा की तिब्बत में नालंदा स्कूल के ही बुद्ध धर्म मानने वाले लोग हैं, इस नाते आप गुरु हुए हम चेला। बिहार व प्रत्येक भारतवासी को इस पर गर्व होना चाहिए कि उनके विज्ञानं व् परम्परा से दुसरे सीख ले रहे हैं। उन्होंने कहा भी कि अमेरिका व् यूरोप में मॉर्डन सायंस के तहत बौद्ध सायंस कि पढाई कि जा रही हैं। मैंने जब इश्वर तत्व की व्याख्या कोई अध्यात्मिक पुरुष कैसे कर सकता हैं पूछा तो उन्होंने सांख्य योग की विसद चर्चा की । पत्रकारों को इस प्रसन में कोई रूचि नहीं थी वे खबरों को टटोलने में लगे थे , एसा नहीं की मैंने खबर नहीं लिखी लेकिन कभी कभी जब आप महान पुरुषो के सानिध्य में होते हैं तो आपसे संजीदा रहने की उम्मीद की जाती हैं। हद तो यह हो गयी जब एक अन्य कार्यक्रम में शंकराचार्य ने धर्म और राजनीतीकी चर्चा की तब एक पत्रकार अपने ज्ञान की झलक दिखा दी। शंकराचार्य ने उसे धर्म व् राजनीती के दर्जनों पर्यायवाची शब्द और उसके अर्थ बताये। दुनिया तब भी थी जब हम और आप नहीं थे , और तब भी रहेगी जब नहीं होंगे। ज्ञान का हस्तांतरण प्रेम से हो सकता हैं , लाठी भांजने से , शोर करने से या चिल्ला कर नहीं। मिडिया कर्मी जब सूचना संग्रह कर आम लोगो के ज्ञान्बर्धन के लिए उसे प्रस्तुत करने का काम करते हैं तो उन्हें ज्यादा धैर्य धारण करने की जरुरत होती हैं .
Monday, May 17, 2010
जातिवाद को लेकर पूरी तरह भ्रमित हैं समाज
पिछले पोस्ट को लिखने के बाद कई लोगो से बाते हुई, लोगो के अपने अपने तर्क हैं। जाति आधारित जनगणना से किसी अनजाने सच्चाई के सामने आने की उमिद्दे अधिकांश लोगो को हैं। कुछ इसे जाति के नजरिये से तो कुछ विवाह की मानसिकता से जोड़ कर अपनी तर्के पेश कर रहे हैं। आई बी एन ७ के वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने एक लम्बा लेख ही लिख डाला हैं। उन्होंने भारतीय मानसिकता की विवेचना करते हुए यह स्वीकार लिया हैं की हम गर्व से कहे की जातिवादी हैं। क्या दूसरी जाति में विवाह करना ही जातिवाद से अलग प्रदर्शित कर सकता हैं। सरनेम में जातिसूचक प्रतिको को हटा लेना ही इसका समाधान हैं, क्यों किसी जाति विशेष का वोट सिर्फ जाति के नेता की झोली में गिरता हैं। कई प्रश्न अनसुलझे रह्जाते हैं। जाति व्यवस्था की जड़ो को काटने की जगह एक सज्जन ने तो कहा कि होने दीजिये जनगणना , यह विकास कि दिशा में दो कदम आगे तो एक कदम पीछे जाने कि कवायद का हिस्सा हैं । तब तो कहना पड़ेगा कि आतंकी घटनाओ को होने दे इससे राष्ट्रिय एकता मजबूत होगी। मेरी दृष्टि से जो गलत हैं उसे गलत कहना होगा। जाति के आधार पर कोई नतीजा निकलने कि कोशिश बेमतलब होगी।
Friday, May 14, 2010
जातीय आधार पर जनगणना राष्ट्रहित में नहीं
भारत सरकार ने जातीय आधार पर जनगणना करने का निर्णय किया हैं जो अपने आप में दुर्भाग्य पूर्ण हैं। जिन कल्याणकारी योजनाओ को लछित करके ये सारी कवायद की जा रही हैं उन्हें पहले से ही संविधान में उल्लेखित किया जा चूका हैं। यह निर्णय असम्वैधानिक हैं। सिर्फ एक योजना का उल्लेख करना चाहता हू। नरेगा जो अब मनरेगा हो चूका हैं उसके क्रियान्वयन की जाच करा ली जाये। इसमें समाज के सबसे निचले तबके को जाति धर्म से ऊपर उठ कर रोजगार उपलब्ध करने की व्यवस्था हैं, क्या सिर्फ आकड़ो का खेल नहीं हो रहा हैं। जितनी संख्या में रोजगार मांगने वालो को उनके घर के समीप उपलब्ध होने चाहिए थे उतना मिल पा रहा हैं। आखिरकार ये राजनेता क्या चाहते हैं, देश को जाति पातीमें बाटकर मानसिक रूप से गुलाम बनाये रखा जाये। राष्ट्रीयता की भावना का क्या होगा। आतंकवाद से , बीमारियों के जंजाल से , नक्सल वाद से, बढती बेरोजगारी से कैसे निपटेगे। सिर्फ बिहार की चर्चा करे तो यहाँ ९६ फीसदी किशोरिया रक्ताल्पता से पीड़ित हैं। ९० फीसदी गर्भवती व् शिशुवती माताए अकाल मौत के कगार पर खड़ी रहती हैं। कमजोर मानव कैसे जीडीपी के विकास दर को बढ़ने में अपना योगदान दे सकते हैं । इन राजनेताओ के दिमाग को क्या होगया हैं। पता नहीं। जातीय आधार पर विकास के साधन जरुरत मंदों के बीच पहुचने की कवायद की जाति हैं तो वो क्या हैं जिस नीति के तहत करोडो -अरबो रूपये की सब्सिडी उद्योगपतियों को दे दी जाती हैं। आखिर कैसे भारत की परिकल्पना की जा रही हैं। भारत की जो जनता आतंक के विरुद्ध मोमबतिया जलाने एक साथ निकल पड़ती हैं उसे इसप्रकार के गैर जिम्मेदराना निर्णयों के खिलाफ भी सामने आना चाहिए। भारतीय मिडिया से इस बात की उमीद करना बेमानी हैं की वो जनमत तैयार करने में अपना योगदान दे। उसे नेताओ और सत्ता की चाकरी करने से फुरसत नहीं हैं। कितने भी बड़े तीसमारखा हो वो इस बात को समझते हैं की जिस सिस्टम के वो हिस्सा बन चुके हैं उनमे अपनी बात रखना भी कितना मुश्किल भरा कार्य हो गया हैं। आवाज कही से भी उठती हो उसे अपना स्वर प्रदान करना चाहिए। अम्बेडकर हो या लोहिया , गाँधी हो या नेहरु सबने जातिविहीन समरस समाज की कल्पना की हैं । इसे जनगणना कराकर, ऐसी कमरे में बैठ कर योजनाये बनाने से हासिल नहीं किया जा सकता। आज देश में कई ऐसे किसान हैं जो वैज्ञानिको से जयादा समझ रखते हैं। इंजिनियर गाव के निपट ग्वार कहे जाने वालो के सामने पानी भरते प्रतीत होते हैं .
Thursday, May 6, 2010
बेतुके सवालों पर नैतिकता बघारते मिडिया संस्थान
इन दिनों मिडिया संस्थानों में बेतुके सवालों पर नैतिकता बघारने का चलन सा चल पड़ा हैं। दिल्ली में एक पत्रकार आग की घटना का कवरेज करते हुए मर गया, उसके परिवार का क्या हुआ , उसकी मौत पर सम्बंधित मिडिया संस्थान ने क्या किया, आगे इस प्रकार खबरों की आपाधापी में किसी की मौत न हो इस पर कोई बहस नहीं चल रही, क्योकि वह आई आई ऍम सी जैसे किसी बड़े मिडिया संस्थान की उपज नहीं था, वह किसी के इश्क में गिरफ्तार नहीं था, उसकी पहुच बड़े पत्रकारिता की छवि से संबध नहीं थी, उसकी हत्या नहीं की गयी थी फिर उसके मौत में खबरों की टीआरपी बन्ने की कूबत नहीं थी इसलिए उसे भुला दिया गया। किसी लड़की की छवि को नष्ट भ्रष्ट कर, उसकी हत्या के लिए वातावरण तैयार कर, फिर उसकी मौत के बाद नैतिकता बघार कर आखिर लोग क्या चाहते हैं। किस संस्कृति की पैरवी कर रहे हैं। कई ऐसे भी हैं जो लडकियों का इस्तेमाल कर उसे प्रेम व् प्यार का नाम देते हैं, दुसरे को गरियाते फिरते हैं, उन्हें कोई नैतिक सम्बन्ध भी गलत लगता हैं । इनकी एक अलग दुनिया होती हैं। इसमें कोई शक नहीं की लडकिय भी जाने अनजाने उनके माया जाल में शुकून महसूस करती हैं । आखिर कैसे कोई अपने लिए एक अलग दुनिया बना लेता हैं। कानून को इसकी पड़ताल करनी चाहिए, ये हत्याए किस मानसिक दशा की उपज हैं। चाहे कोई भी दोषी हो उसे सबक सिखाना चाहिए। आजादी के नाम पर स्वछंदता, मनमर्जी की छुट नहीं दी जानी चाहिए।
Thursday, April 29, 2010
शब्दों के खेल विचारो की जमघट, शुचिता गोल
इन दिनों मिडिया में होती प्रिंट की भूल से या वाचन में भूल से उत्पन्न स्थिति को लेकर इंटर नेट पर शब्दों के खेल का दुखद अध्याय चल रहा हैं। इस में पत्रकारिता जगत के लोग जुड़े हैं। समय की किल्लत और टीआरपी की आपा धापी में अब कितना और स्तर गिरेगा इसे समझना मुश्किल है। क्यों इस बात को भूल जाते है कि अछर -गलत प्रिंट हो रहा है -को ब्रम्ह कहा गया है शब्द उस ब्रम्ह से निरसित अंश है। कई शब्द मेरे भी गलत छप जाते हैं। कई बार कोफ्त होता हैं, लेकिन यहाँ मुझे कम्पूयटर कि कम जानकारी के कारण होता हैं । लेकिन जब अखबार व् चैनल में बड़े बड़े पैकेज पर कार्य करने वाले, विद्वान अधिकारी इसे नहीं सुधर पाते तो क्या मशीन मैनसे या ओपरेटर से उम्मीद की जाये। शब्दों के प्रयोग के पूर्व क्या हमारी जिम्मेवारी नहीं बनती। क्या हम भूल गए पुरानी कहावत पानी पीजिये छान के, वाणी बोलिए जान के। बंद करे इस प्रकार से शब्दों की अश्लीलता व शीलता पर बहसे , इसकी शुचिता पर विचार करिए।
Tuesday, April 27, 2010
पत्रकारिता में विचारहीनता का बढ़ता खतरा
मूल्यपरक पत्रकारिता बाजारवाद व् उपभोक्तावाद के आगे दम तोडती नजर आ रही हैं। विचारहीनता का इतना बड़ा संकट फिजा में हैं जिसके फलस्वरूप समाज का वास्तविक स्वरुप नष्ट हो रहा हैं। प्रतिदिन प्रयोग के नाम पर भोंडी बातो को मिडिया तव्वजो दे रहा हैं। पैसे का खेल न सिर्फ राजनीति, क्रिकेट बल्कि मिडिया के विकेट भी डाउन कर रहा हैं। आपके मौलिक विचारो को मिडिया में स्पेस मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव सा होता जा रहा हैं। समाज के दबे, पिछड़े, अल्पसंख्यक व् आदिवासियों को तभी जगह दी जाती हैं जब वोट की बात हो, वे अपने हाथ में हथियार उठा ले या संघर्स के दौरान हताश हो कर आत्महत्या को मजबूर हो जाये। आपकी आवाज को इतना संगठित तरीके से कुचल दिया जाता हैं कि आपको उसका एहसास भी नहीं होता। प्रायः यह कह कर अपनी विश्वसनीयता को बचे रखने का उपक्रम किया जाता हैं कि देखीय खबरों का असर हो रहा हैं। जब आपके ऊपर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता हैं तब उलटे सीधे प्रयोग शुरू हो जाते हैं। नियूज रूम में इतने खुरात लोगो कि भरमार हो गयी हैं कि वे अपने आगे किसी को पल भर के लिए सुनने को तैयार नहीं हैं। क्या आप आज के किसी नौजवान को अपने विचारो के साथ आगे बढ़ने देने कि कल्पना कर सकते हैं। क्यों नहीं शशि थरूर व् आईपीएल वाले मोदी जैसे लोग आनन् फानन में पैसे कमाने कि जुगत भिड़ाने में अपनी उर्जा नष्ट करे। अखबार व् सिनेमा हो या संचार क्रांति के अन्य विविध उपकरण क्या अपनी उपयोगिता समाज के व्यापक हित में प्रमाणित कर पा रहा हैं इसे सिर्फ एक तरफा विचार मानकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता । आज भारत में ब्लड प्रेसर मापने कि कोई अपनी तकनीक नहीं हैं, विदेशी तकनीक पर आधारित मशीनों से हम अपने स्वास्थ्य को मापते हैं, दवाए उनके अनुसार ही खाते हैं, हमारी अपनी पूरी प्रणाली ही ध्वस्त हो चुकी हैं। हम हैं कि गौरव गान में ही लगे हैं। कोसी के पीड़ित, कालाहांडी के किसान, नार्थ इस्ट के मेहनती लोगो कि पीडाए हमें नहीं दिखती। लोग नकली सामानों के उपयोग के लिए मजबूर किये जा रहे हैं, बिना भ्रटाचार कि भेट चढ़े कोई कम नहीं होता, मानसिक रूप से विछिप्त पैदा हो रहे हमारे युवा को किसी दिशा का ज्ञान तक नहीं हो पा रहा । वे अपने स्वार्थ कि खातिर कुछ भी कर गुजरने को बेहतर मान ले रहे। मिडिया व् इसके माध्यम से रोजी रोटी पाने वालो को सजग होने कि जरुरत हैं.
Wednesday, April 21, 2010
आईपीएल व् बीपीएल पर भाजपा ने केंद्र को घेरा
आईपीएल के मुद्दे पर केंद्र सरकार का एक विकेट लेने के बाद अब भाजपा ने बीपीएल के लोगो के लिए मुसीबत बनी महंगाई को लेकर कांग्रेस को घेरने की कवायद शुरू कर दी हैं। आईपीएल ने खेल के नाम पर दौलत , ग्लैमर व् एयासी की जो तस्वीर देश के सामने रखी हैं उसका मिसाल मिलना मुश्किल हैं । भूख,गरीबी, अशिछा से जूझ रहे भारतवासी, नक्सलवाद से लड़ते हमारे जाबांज सिपाही क्या सोचते होंगे। हमारे राजनेताओ ने कैसे कैसे तरीके इजाद कर रखे हैं दौलत अर्जित करने के। और तो और मंत्रिमंडल से हटाये गए विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने यह कह कर की वे अभी भारतीय राजनीति में बच्चे हैं, पुरे देश को शर्मशार कर दिया। उन्हें विदेश मंत्री बनाकर किसने अंतराष्ट्रीय राजनीति में धकेल दिया। भाजपा को लगे हाथ एक मौका भले ही मिल गया लेकिन गंभीरता से विवेचना हो तो कई लोगो के नाम सामने आ सकते हैं। आईपीएल सहित देश में खेले जा रहे क्रिकेट के सभी मैचो की जाच करायी जानी चाहिए। यह पैसे उगाही के खेल में पूरी तरह से तब्दील हो चूका हैं। हमारे राजनेता राजनीति में खेल भावना को भूल कर खेल में राजनीति की शुरुआत कर चुके हैं। इनकी गीध दृष्टि से समाज का शायद ही कोई अंग आछूता रह गया हो। महंगाई सिर्फ भाषण व् प्रदर्शन का मुद्दा भर बन कर रह गयी हैं ।
Saturday, April 10, 2010
नक्सलवाद से निबटने को तैयार हो देश
नक्सलवाद की भीषण समस्या से निबटने के लिए देश के हरेक नागरिक को तैयार होना चाहिए। यह आयातित विचारधारा देश को घुन की तरह चाट रहा हैं। हमें यह सोचना होगा की आखिर भूख व् गरीबी से निबटने की जगह आखिर कबतक देश के अन्दर सामाजिक बदलाव की हिंसक प्रवृति को झेलते रहेंगे। क्या इस देश ने बिनोबा के भूदान से सीख नहीं ली जब बड़े बड़े भूपतियो ने अपने गरीब भूमिहीन भाइयो के लिए सहर्ष भूमि का दान कर दिया। यह बेहद शर्मनाक हैं की अभी तक कई राज्यों में उन भूमियो का सही तरीके से वितरण तक नहीं किया गया। बिहार के राजनितिक इतिहास में एक वह भी घटना दर्ज हैं की कैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक स्वतंत्रता सेनानी ने अतरिक्त भूमि पर अपने संघर्ष की दुहाई देते हुए कब्ज़ा करने का पहला हक़ करार दिया। सरकारी योजनाओ में मची लूटपाट की, गरीबो की हकमारी की लम्बी दस्ता हैं । आज नक्सलवाद स्वय में भस्मासुर बन चूका हैं। गरीबो की हक़ की बात करते हुए , उन इलाको के बच्चो की स्कुल भवनों को उड़ने में लगा हैं। कैसे स्वयं सहायता समूह के नाम पर माइक्रो वितीय प्रोग्राम किसानो को आत्महत्या पर मजबूर किये हुए हैं इस पर भी विचार करने की जरुरत हैं। थोडा ठहर कर सोचे मासूम बच्चो को हथियार उठाकर अपने ही देश की पुलिस से वे संघर्ष कर रहे हैं। उनके खून के प्यासे बने हुए हैं। राह से भटके अपने देश वासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए हमें हर संभव उपाय करना होगा। नितीश कुमार की यह टिपण्णी की गृह मंत्री पी चिदम्बरम को काम ज्यादा बाते कम करना चाहिए, बेतुका सलाह हैं। वे नक्सल इलाको में जिस प्रकार से सबको लुट में हिस्सेदार बनाकर अपनी इमेज बिल्डिग में लगे हैं वह शोभा नहीं देता। न तो उन इलाको में सड़क पहुची हैं न ही कोई रोजगार के साधन व् अवसर उपलब्ध कार्य गए हैं। बिजली तो पुरे बिहार की समस्या हैं। यह ठीक ही हुआ की मिस्टर चिदंबरम के इस्तीफे की पेशकश को प्रधान मंत्री ने ठुकरा दिया। नितीश कुमार का यह कहना की कानून तोड़ने पर उनपर कारवाई हो, बेतुकी बात हैं। हमें हथियार के बल पर उनके दादागिरी को तोडना होगा। साथ ही साथ उनके दिलो को भी जितने का कार्य करना होगा। जखम बहुत गहरा हैं, जरा संभल कर निर्णय करे।
Saturday, March 27, 2010
भारत के समुज्ज्वल भविष्य के लिए शक्ति संग्रह जरुरी
भारतीय राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए शक्ति का संग्रह करना जरुरी हैं। एक सबल राष्ट्र ही विश्व में अपने सर को ऊँचा उठाकर कर चल सकता हैं। भारत के कण कण में आध्यत्मिक शक्तिया निवास करती हैं। हम अपनी सुसुप्त शक्तियों को जागृत करके एक सबल व् सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए प्रत्येक भारतीय को अपने देश के प्रति अपनी निगाहों में ऊँचा उठाना होगा। हमें छोटी छोटी छुद्र भावनाओ का तिरस्कार करना होगा । क्या हम एक संप्रभु देश में निवास नहीं करते हैं। क्या देश की अचछी बातो से जुड़ने का मतलब कुछ और हो जाना हैं। आखिर कब तक हम जाति धर्म व् दलों व् कुनबो में बटे रहेंगे। आज कौन ऐसा हैं जिसे अपने देश से मतलब नहीं हैं, कौन इससे अपने को ज्यादा महान समझता हैं। जो ऐसा समझते हैं वो भूल रहे हैं की उनके न जाने कितने पूर्वज इसी धरती के नीचे दफन किये जा चुके हैं, उनकी मिटटी मिटटी में मिल चुकी हैं। एक गिलहरी, गौरया, नदिया सभी इससे जन्म लेते हैं, फिर विलुप्त हो जाते हैं। थोड़ी सी असावधानी आपके साथ इस देश को भी खतरे में डाल सकती हैं । जापान से सीखे कैसे शक्ति संवर्धन की जा सकती हैं। कैसे अपने देश को समृद्ध व् सुसंगठित बनाया जा सकता हैं।
Thursday, March 18, 2010
नोबेल और लालटेन का विज्ञापन
नोबेल पुरस्कार और लालटेन के विज्ञापन में भला क्या समानता हो सकती हैं। शायद आप भी अचम्भित हो कर रह जाये लेकिन हैं और इसका नजारा भी देखने को मिला हैं। हैं बिलकुल खरी व् सच्ची बात। आप माने या न माने बिहार के मुख्यमंत्री, उपमुख्य मंत्री, विधान सभा के अध्यछ, विधान परिषद् के सभापति, विधान मंडल के दो सौ से अधिक सदस्यों के साथ प्रेस और मिडिया के साथियों ने भी इस सत्य को देखा हैं। दुनिया के जाने माने पर्यावरणविद और नोबेल पुरस्कार प्राप्त डाक्टर आरके पचौरी ने पटना में आयोजित एक पर्यावरण सबंधी सेमिनार में एक ओर जहा पर्यावरण की रछा पर बल दिया वही दूसरी ओर उनके साथ पहुची सहयोगी अकंछ चौरे ने उनके सहयोग से सौर उर्जा संचालित लालटेन के चार प्रकार के मॉडलो की भी चर्चा की। बकायदा तिन और पञ्च मिनट की फ़िल्म बनाकर प्रदर्शित भी की गयी। इस सेमिनार का आयोजन बिहार विधान परिषद् की पर्यावरण सम्बन्धी समिति ने आयोजित की थी। इसमें विधान मंडल के सभी सदस्यों को आमंत्रित किया गया था। मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने उन्हें स्पस्ट किया की बिहार सरकार हर घर में रौशनी करना चाहती हैं लेकिन इसके लिए सौर उर्जा का बिहार मॉडल विकसित करना होगा। बिहार में कई बार लोगो द्वारा सौर लालटेन की गुणवत्ता को लेकर प्रश्न व् शिकायते की जाती हैं । बिहार में अमीर गरीब सब बिजली की कमी से जूझ रहे हैं। यह कैसी पर्यावरण बचने की चिंता हैं यह मेरी तो समझ में नहीं आ रहा हैं आप समझे तो जरुर बतायेंगे। डा पचौरी द्वारा कभी हिमालिय ग्लेशियर के वर्ष २०३५ तक पिघलने की बात की जाती हैं तो कभी तेल की बढती खपत पर तो कभी मांसाहार त्यागने के लिए सलाह दी जाती हैं। वे बराबर धरती पर बढ़ते बोझ को लेकर चिंतित दीखते हैं । क्या यह नोबेल पुरस्कार कभी कवि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर को इसी लिए दिया गया की उन्हें ठुकराने का भी फैसला करना पड़े । पाश्चात्य संस्कृति की इसी धारणा को हम तथाकथित आधुनिक कहलाने वाले लोग अनुकरण करते हैं। अगर करते हैं तो फिर भविष्य की कल्पना करे.
Saturday, February 27, 2010
मिडिया पर सरकार व् कार्पोरेट जगत का नियंत्रण
मिडिया या पत्रकारिता आज सरकार व् कार्पोरेट जगत के शिकंजे में रहकर तड़प रही हैं। इस तड़प व् दमघोटू मौहाल से गुजरने वाला हर पत्रकार वाकिफ हैं। पत्रकारिता के नाम पर सिधांतो की बात करके व् बाजार के चलन को अपनाते हुए किसी प्रकार की उत्कृष्टता की बाते की जा सके इसकी उम्मीद करना व्यर्थ हैं। एक अवसर हमें मिलता हैं जिस पर ठरते हुए हमें विचार करने की जरुरत हैं, वह हैं अपने पेशे के साथ ईमानदारी बरते। होली के अवसर पर हमें यह संकल्प लेनी चाहिए की पब्लिक में बनी यह धारणा की पत्रकारिता लोक तंत्र का चौथा खम्बा हैं यह समाप्त न हो जाये। यह कोई संविधान प्रदात सुविधा नहीं हैं। यह जन आकांछा हैं। आज मुख्यमंत्री नितीश कुमार भले ही बिहार व् देश दुनिया में बेहद लोकप्रिय हैं, अपने शासन व् सोच के कारण पुरस्कृत किये जा रहे हो, लेकिन उन्हें स्पष्ट पता हैं कि क्यों दिल्ली उनकी आवाज को नहीं सुनती। लालू का भी अपना सोचना हैं दिल्ली सत्ता कि ताकत को पहचानती हैं, फिर तो हार्वर्ड व् टेक्सास विश्वविद्यालय से कैसे मनेजमेंट गुरु कि उपाधि ली जा सकती हैंहमारे राजनेता जनभावनाओ को समझते नहीं या समझने कि जरुरत नहीं समझते हैं। इस नासमझी से फैलने वाले भरम को आम जनता भी नहीं समझती हैं। हम कहते हैं कि ये पब्लिक हैं सब जानती हैं, लेकिन भारत कि इस निरीह जनता कि पीड़ा को सुन व् समझ पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। इस मिडिया कि हिमाकत तो देखिये कि इसे अपने मान सम्मान कि भी चिंता नहीं हैं। एक सिख सवालाख दुश्मनों पर भारी पड़ता हैं लेकिन आज उशकी गति और मति देखिये। क्यों नहीं आतंकवाद का परचम लहराए, क्यों नहीं एक दुसरे पर कीचड़ उछलने का अवसर दे, क्यों नहीं अपने कॉलम, कौमाऔर फुलस्टाप को बेच दे। क्यों नहीं राजनेता उसे अपनी पैर कि जूती समझे, उसे क्यों नहीं सच्चाई के दम पर नाटक रचना पड़े। मिडिया में खबरे नहीं चकाचौंध, ग्लेमर बिक रहा हैं, सिनेमा इस से बहुत पहले से गुजर रही हैं, इसका वहा तो कोई हाल नहीं निकला अब आप और हम मिलकर इस पर विचार करे। शुभ होली।
Friday, February 19, 2010
प्रतिभा की नहीं हैं जरूत हिंदी पत्रकारिता को
हिंदी पत्रकारिता से आज के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी या शिवपूजन सहाय या नवजागरण काल के उल्लेखनीय कोई अन्य पत्रकार-साहित्यकार होते तो उन्हें आत्म हत्या कर लेना पड़ता। उनका पूरा जीवन प्रतिभाओ को सवारने में बिता, कई नये नये तथ्यों के अनुसन्धान में वे सफल रहे, सिर्फ स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ कर उनके योगदानो को कमतर नहीं किया जा सकता। मै एक बानगी देना चाहता हू। मेरे एक मित्र हैं, दो-दो विश्व विद्यालयों से हिंदी में गोल्ड मेडिलिस्ट हैं। बिहार में लेक्चररो की नियुक्ति में घोर अनियमित्ताओ के कारण तत्कालीन चयन लिस्ट में उन्हें झारखण्ड के लिए अनुशंसित किया गया। अंततः नियुक्ति नहीं हुई। कोर्ट केस का अंतहीन सिलसिला शुरू हैं। खैर, इस दौरान उन्होंने दैनिक अखबारों के लिए फुटकर रचनाये भेजनी शुरू की। जीविकोपार्जन के लिए एक अखबार से जुड़े भी। स्वयं को नबर एक खाने वाले उस अखबार की कार्यशैली ने उन्हें अपने रंग में ढालना चाहा। हार कर उन्हें नौकरी छोडनी पड़ी। अखबार में आठ दिनों के उनके अनुभव पर जब भी चर्चा होती हैं, तो लगता हैं की बाजार ने अखबारों व उनमे काम करने वालो की मानसिकता ही बदल दी हैं। वह दिन दूर नहीं जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हाय तौबा मचाने वाले स्वयं इस पर नियंत्रण की जरुरत महसूस करने लगेंगे। फिल्मो के लिए सेंसर बोर्ड, राजनेताओ के लिए आदर्श चुनाव संहिता तो पत्रकारों के लिए भी कड़ाई से निर्धारित नियमो व् आदर्श आचरण संहिता को लागु की जानी चाहिए। यह तय होना चाहिए की कौन सी खबर प्रायोजित हैं उसका उल्लेख हो। हिंदी की टांग तोड़ने वाले हिंदी अखबारों की खबर लेनी चाहिए।
Friday, February 12, 2010
पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी क्यों
अपनी बातो को शुरू करने के पूर्व मेरी गुजारिश हैं की आप पूर्व वाले आलेख को अवश्य पढ़े जिसे वरिष्ठ पत्रकार व् चिन्तक मृणाल पांडे ने लिखा हैं। मुझे नहीं लगता की सर्वहारा वर्ग के बीच अखबारों की पठनीयता को लेकर कोई भ्रम हैं। वे अपनी जानिब विरोध या बहिष्कार नहीं कर रहे हैं। इस सर्वहारा समाज को इतना भी अनपढ़, जाहिल समझने की भूल करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। यह वही समाज हैं, जिसकी बुनियाद पर बाजार अपना विस्तार कर रहा हैं। पत्रकारों को मार्गदर्शन देने में कंजूसी बरते जाने की जरुरत नहीं हैं। कुकुरमुतो की तरह उग आये पत्रकारिता संस्थानों से निकलने वाले पत्रकारों को वरिष्ठ पत्रकारों के माध्यम से ज्यादा सजग करने की जरुरत हैं। श्री मिडिया से यह उम्मीद करना की वह सर्वहारा की आवाज बुलंद करेगा, यह वक्त की जरुरत हो सकती हैं लेकिन मुश्किल हैं। इसमें शहरी वर्ग व मिडिया की अपनी जरूरते खतरे में पड़ जाएगी। कोई भी वर्ग अपनी सुविधाओ की कीमत पर किसी दुसरे वर्ग की हिमायत भला क्यों कर करेगा। पत्रकारिता की दुनिया से बाबस्ता सभी पत्रकार यह जानते हैं और महसूस करते हैं की जिसे अवस्क किस्म की लीपापोती की संज्ञा दी जा रही हैं उसका सीधा सरोकार किस्से हैं। पत्रकारिता की दुनिया में भले ही किसी आवाज या भावनाओ का गला घोट देना आसान हैं लेकिन संचार के बढ़ते साधनों के बीच अब उन आवाजो को अनसुना या नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उतम साहित्य लेखन हो या उम्दा पत्रकारिता पहले भी बलिदानियों के रास्तो पर अपनी राह बनाती रही हैं। हर हर गंगे कह कर अपनी पीढियों के तर जाने की उम्मीद रखने वाले भले ही एक दुबकी लगा कर अपने मन को समझा ले , गोता लगाने वाले लगा भी रहे हैं , मोतिया निकाल भी रहे हैं। इन्हें किसी बात का शिकवा गिला नहीं हैं। वक्त हर बात का हिसाब किताब कर देता हैं। हमें उनसे सबक लेनी चाहिए। इसमें कोइ शक नहीं की हिंदी पत्रकारिता खबरों की विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही हैं। शोध व सत्यापन युक्त खबरों को प्रकाशित करने का निर्णय कौन करता हैं इस पर भी प्रकाश डाला जाना चाहिए। इनके नहीं प्रकाशित किये जाने के लिए कौन सा वर्ग जिम्मेवार हैं उन्हें चिन्हित करना चाहिए। क्या इनसे बचाते हुए सर्वहारा को पाठ पढाना उचित हैं।
हिंदी पत्रकार अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाए
डुबकीधर्मी देश में सर्वहारावाद : मेरे इस प्रस्ताव से कि हिंदी अखबारों के हर घालमेल का ठीकरा पहले वरिष्ठ संपादकीय कर्मियों पर फोड़ने और फिर उन्हीं से स्थिति बदलने की मांग करने के बजाय, क्यों न खुद आम पाठक भी जागरूक उपभोक्ता का दायित्व निभाते हुए ऐसे अखबारों का समवेत विरोध और बहिष्कार करें, एक महोदय बेहद गुस्सा हैं। उनकी राय में हिंदी अखबारों का आम पाठक तो एक 'सर्वहारा' है। पेट भरने की चिंता का उस पर दिन-रात उत्कट दबाव रहता है, इसलिए उससे लामबंद प्रतिरोध की उम्मीद करना गलत है। और उपभोक्तावाद तो नए पैसे का एक निहायत निंदनीय प्रतिफलन और उपभोग का बाजारू महिमामंडन है। इसलिए सर्वहारा को उपभोक्ता कहना उसका अपमान करना है, आदि।
आशय यह है कि भारत में सर्वहारा एक मूक, अपढ़, अनाथ वर्ग है जो सामूहिक तौर से शेष समाज की दया और अनंत इमदाद का ही पात्र ठहरता है। और इस वर्ग के हकों का परचम उसके बजाय हमारे मुखर-पढ़े-लिखे शहरी मीडिया को ही आगे आकर उठाना चाहिए। सर्वहारा और उपभोक्तावाद की ऐसी व्याख्या के तहत 'सर्वहारा' एक बे-चेहरा मानव समूह का मूक हिस्सा बन कर रह जाता है। हर आदमी के पास अपनी जो एक बुनियादी विशिष्टता और जीवन संघर्ष के दुर्लभ अनुभव हैं, जिसके बल पर हम साहित्य में घीसू, धनिया, लंगड़ और होरी जैसे अविस्मरणीय पात्रों से रूबरू होते रहे हैं, उसके प्रति ऐसे सपाट सर्वहारावाद में एक गहरा अज्ञान झलकता है। क्या हम भारत को अपने आदर्श सर्वहारापरस्त रूप में अगर एक व्यक्ति और बाजार निरपेक्ष देश मान लें? तो फिर उस अंतर्मुखी घोंघे के भीतर दुनिया की महाशक्ति बनने की उत्कट कामना क्यों?
आज हर व्यक्ति जो बाजार में खरीदारी करता है, भले ही वह पाव भर आटा, पचास ग्राम नमक और दो हरी मिर्चें ही क्यों न मोलाए, एक उपभोक्ता है, और बतौर उपभोक्ता वाजिब कीमत पर ठीकठाक सामान पाने का उसे पूरा हक है। फर्क यही है कि अक्सर उसे अपने इन हकों की जानकारी नहीं होती, और अगर होती भी है तो वह उनको बिना एकजुट हुए हासिल नहीं कर सकता। इसलिए गरीब उपभोक्ता को लगातार उपभोक्तावाद विषयक सटीक जानकारियां देना और अपनी विशाल बिरादरी के साथ एकजुट कानूनी गुहार लगाने का महत्व समझाना और भी जरूरी है।
हर राज्य में हिंदी अखबार का गाहक आज औसत अंग्रेजी अखबार के गाहक से अधिक दाम देकर, अपेक्षाकृत कम पन्नों का अखबार खरीद रहा है, अलबत्ता सर्वहारा के हक के नाम पर दामन चाक करने वालों ने इस पर कुछ नहीं कहा-किया है। फिर भी बिहार के किसी छोटे से गांव से बस से शहर आकर रोज स्टाल पर रखे अखबारों में अपने काम की खबरों की तादाद चेक कर तब अखबार खरीदने वाला गरीब पाठक (यकीन मानें इनकी तादाद लाखों में है) बड़े शहर के बातों के धनी मध्यवर्गीय पाठक से तो कहीं बेहतर उपभोक्ता हैं, जो हाकर से अक्सर किसी प्रमोशन स्कीम के तहत (मुफ्त चाय या स्टील का डिब्बा या तौलिया पाने के लिए) महीनों के लिए एक अखबार बुक करा लेता है, वह पसंद हो या न हो। गांव-कस्बे का यह पाठक गरीब भले हो, पर वह अखबार का एक जागरूक पाठक है, जिसकी अपनी स्पष्ट पसंद, नापसंद है, और स्थानीय सरोकार भी। अगर वह एकजुट होकर अखबारों की ईमानदारी पर सवाल बुलंद करे, और भ्रष्ट अखबारों का बहिष्कार भी, तो स्थिति में स्थायी सुधार होगा, और जल्द होगा, क्योंकि बाजार अब तेजी से छोटे शहरों और गांवों की तरफ खिंच रहा है।
वैसे गांधीजी के 'अंतिम सीढ़ी के व्यक्ति' की पक्षधरता जरूरी है, इस पर हमारे यहां सब प्रगतिशील लोग सहमत दिखते हैं। पर सर्वहारा नामक प्राणी को बार-बार अर्थहीन अनुष्ठानों से न्योतने के बाद भी हमारे राजनीतिक दलों के मुख्यालयों से लेकर हिंदी अखबार तक में उस गरीब की जमीनी और तात्कालिक स्थिति की गहरी, व्यवस्थित और व्यक्तितश: पड़ताल के प्रमाण हमें शायद ही मिलें। सरलीकरण, बस सर्वत्र सरलीकरण, और अंत में चंद पिटे-पिटाए निष्कर्ष।
हम गहरे पानी में पैठ कर मोती खोजने के बजाय तट पर ही एकाध डुबकी लगा कर 'हर हर गंगे' का नारा बुलंद करने वाले देश के वासी हैं। यहां डुबकी लगा कर समय और मेहनत बचाए जाते हैं, जबकि धारा में पैठना निरंतर तैरने की क्षमता मांगता है, हजारों कष्टसाध्य, जोखिमभरी शैलियां सीखने का आग्रह करता है। हमारे पूर्वजों ने कभी सप्त सिंधु और अनगिनत महानदियों के देश में गहरे जाकर तैरने-तरने के कई लाभ भले गिनाए हों, पर सच तो यह है कि आज हम श्राद्ध से लेकर पर्व के अवसर तक तट पर खड़े हो...गंगे चैव यमुने गोदावरीसिंधुकावेरी...जपते हुए, तमाम नदियों का अपनी छोटी-सी अंजली में ही न्योत कर तृप्त हो जाते हैं। एक डुबकी लगाई और मान लिया कि सात पीढ़ियां तर गईं।
इस वक्त जबकि खबरों की विश्वसनीयता और ढांचागत समायोजन, दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की पत्रकारिता एक जटिल दौर से गुजर रही है, बाजार में पाठकों के बीच भरोसा बहाली और अपने घर भीतर पत्रकारिता के स्वस्थ मानदंड पुन: स्थापित करने के लिए न्यूनतम शर्त यह है, कि पत्रकार बंधु अवयस्क किस्म की लीपापोती या सर्वहारावाद की ओट लेकर छिछोरी छींटाकशी करने से बाज आएं। क्यों न वे हिंदी अखबारों की बेहतरी पर गंभीरता से बात करें, नए बदलावों के बारे में अपने अनुभव साझा करें, पन्नों पर संपादकीय मैटर और विज्ञापन के इलाकों के बीच साफ-सुथरी विभाजक रेखाएं बनाने के लिए समवेत नीतियां रचें, ताजा खबरों के निरंतर सत्यापन और उससे जुड़े दायरों पर पत्रकारिता से इतर क्षेत्रों में हो रहे शोध की जानकारी लें, जमीनी भागदौड़ को खबरें जमा करने की बुनियादी जरूरत समझें और हिंदी को सिर्फ एक माध्यम नहीं, बल्कि जीवंत, निरंतर गतिशील कथ्य के रूप में भी देखें बरतें।
हिंदी पत्रकारिता के संकट से निबटने के लिए क्या जरूरी नहीं कि पहले हिंदी के पत्रकार खुद अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाएं और मनुष्य के नाते अपने आपको अपने प्रतिस्पर्धियों की बराबरी का तो महसूस करें? हिंदी अखबारों की कमजोरी की भावुक आर्थिक-समाजशास्त्रीय व्याख्याएं देना बेकार है। बेकार मन समझाने को हम क्यों कहें कि हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा पूरी दुनिया की पत्रकारिता के संकट का ही अंग है। पूरी दुनिया की पत्रकारिता की धारा में आए प्रदूषण से शिकायत हुई तो वह तुरंत भीतरी सफाई में जुट गई। उसने खबरों का रूप संवारा, खर्चे कम किए, बाहरी स्तर पर तकनीकी मदद के लिए वह 'एपल' की नई ई-टैबलेट से लेकर गूगल तक को टटोल रही है। उधर हम नाराज तो हैं, पर हस्बेमामूल पलायन करना चाहते हैं। इसलिए अपनी खीझ को छिपाने को हम सर्वहारा के नाम पर या बाजार के खिलाफ खूब शोर मचा रहे हैं, ताकि बाजार वालों को लगे कि हम स्थिति से जूझ रहे हैं। जबकि भीतरखाने वही ढाक के तीन (या दो) पात नजर आते हैं। इस तरह की कायर डुबकीवाद हरकतों से हम तट से रत्तीभर भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे, डूब भले ही जाएं। साभार : जनसत्ता
लेखिका मृणाल पाण्डे जानी-मानी साहित्यकार और पत्रकार हैं.
आशय यह है कि भारत में सर्वहारा एक मूक, अपढ़, अनाथ वर्ग है जो सामूहिक तौर से शेष समाज की दया और अनंत इमदाद का ही पात्र ठहरता है। और इस वर्ग के हकों का परचम उसके बजाय हमारे मुखर-पढ़े-लिखे शहरी मीडिया को ही आगे आकर उठाना चाहिए। सर्वहारा और उपभोक्तावाद की ऐसी व्याख्या के तहत 'सर्वहारा' एक बे-चेहरा मानव समूह का मूक हिस्सा बन कर रह जाता है। हर आदमी के पास अपनी जो एक बुनियादी विशिष्टता और जीवन संघर्ष के दुर्लभ अनुभव हैं, जिसके बल पर हम साहित्य में घीसू, धनिया, लंगड़ और होरी जैसे अविस्मरणीय पात्रों से रूबरू होते रहे हैं, उसके प्रति ऐसे सपाट सर्वहारावाद में एक गहरा अज्ञान झलकता है। क्या हम भारत को अपने आदर्श सर्वहारापरस्त रूप में अगर एक व्यक्ति और बाजार निरपेक्ष देश मान लें? तो फिर उस अंतर्मुखी घोंघे के भीतर दुनिया की महाशक्ति बनने की उत्कट कामना क्यों?
आज हर व्यक्ति जो बाजार में खरीदारी करता है, भले ही वह पाव भर आटा, पचास ग्राम नमक और दो हरी मिर्चें ही क्यों न मोलाए, एक उपभोक्ता है, और बतौर उपभोक्ता वाजिब कीमत पर ठीकठाक सामान पाने का उसे पूरा हक है। फर्क यही है कि अक्सर उसे अपने इन हकों की जानकारी नहीं होती, और अगर होती भी है तो वह उनको बिना एकजुट हुए हासिल नहीं कर सकता। इसलिए गरीब उपभोक्ता को लगातार उपभोक्तावाद विषयक सटीक जानकारियां देना और अपनी विशाल बिरादरी के साथ एकजुट कानूनी गुहार लगाने का महत्व समझाना और भी जरूरी है।
हर राज्य में हिंदी अखबार का गाहक आज औसत अंग्रेजी अखबार के गाहक से अधिक दाम देकर, अपेक्षाकृत कम पन्नों का अखबार खरीद रहा है, अलबत्ता सर्वहारा के हक के नाम पर दामन चाक करने वालों ने इस पर कुछ नहीं कहा-किया है। फिर भी बिहार के किसी छोटे से गांव से बस से शहर आकर रोज स्टाल पर रखे अखबारों में अपने काम की खबरों की तादाद चेक कर तब अखबार खरीदने वाला गरीब पाठक (यकीन मानें इनकी तादाद लाखों में है) बड़े शहर के बातों के धनी मध्यवर्गीय पाठक से तो कहीं बेहतर उपभोक्ता हैं, जो हाकर से अक्सर किसी प्रमोशन स्कीम के तहत (मुफ्त चाय या स्टील का डिब्बा या तौलिया पाने के लिए) महीनों के लिए एक अखबार बुक करा लेता है, वह पसंद हो या न हो। गांव-कस्बे का यह पाठक गरीब भले हो, पर वह अखबार का एक जागरूक पाठक है, जिसकी अपनी स्पष्ट पसंद, नापसंद है, और स्थानीय सरोकार भी। अगर वह एकजुट होकर अखबारों की ईमानदारी पर सवाल बुलंद करे, और भ्रष्ट अखबारों का बहिष्कार भी, तो स्थिति में स्थायी सुधार होगा, और जल्द होगा, क्योंकि बाजार अब तेजी से छोटे शहरों और गांवों की तरफ खिंच रहा है।
वैसे गांधीजी के 'अंतिम सीढ़ी के व्यक्ति' की पक्षधरता जरूरी है, इस पर हमारे यहां सब प्रगतिशील लोग सहमत दिखते हैं। पर सर्वहारा नामक प्राणी को बार-बार अर्थहीन अनुष्ठानों से न्योतने के बाद भी हमारे राजनीतिक दलों के मुख्यालयों से लेकर हिंदी अखबार तक में उस गरीब की जमीनी और तात्कालिक स्थिति की गहरी, व्यवस्थित और व्यक्तितश: पड़ताल के प्रमाण हमें शायद ही मिलें। सरलीकरण, बस सर्वत्र सरलीकरण, और अंत में चंद पिटे-पिटाए निष्कर्ष।
हम गहरे पानी में पैठ कर मोती खोजने के बजाय तट पर ही एकाध डुबकी लगा कर 'हर हर गंगे' का नारा बुलंद करने वाले देश के वासी हैं। यहां डुबकी लगा कर समय और मेहनत बचाए जाते हैं, जबकि धारा में पैठना निरंतर तैरने की क्षमता मांगता है, हजारों कष्टसाध्य, जोखिमभरी शैलियां सीखने का आग्रह करता है। हमारे पूर्वजों ने कभी सप्त सिंधु और अनगिनत महानदियों के देश में गहरे जाकर तैरने-तरने के कई लाभ भले गिनाए हों, पर सच तो यह है कि आज हम श्राद्ध से लेकर पर्व के अवसर तक तट पर खड़े हो...गंगे चैव यमुने गोदावरीसिंधुकावेरी...जपते हुए, तमाम नदियों का अपनी छोटी-सी अंजली में ही न्योत कर तृप्त हो जाते हैं। एक डुबकी लगाई और मान लिया कि सात पीढ़ियां तर गईं।
इस वक्त जबकि खबरों की विश्वसनीयता और ढांचागत समायोजन, दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की पत्रकारिता एक जटिल दौर से गुजर रही है, बाजार में पाठकों के बीच भरोसा बहाली और अपने घर भीतर पत्रकारिता के स्वस्थ मानदंड पुन: स्थापित करने के लिए न्यूनतम शर्त यह है, कि पत्रकार बंधु अवयस्क किस्म की लीपापोती या सर्वहारावाद की ओट लेकर छिछोरी छींटाकशी करने से बाज आएं। क्यों न वे हिंदी अखबारों की बेहतरी पर गंभीरता से बात करें, नए बदलावों के बारे में अपने अनुभव साझा करें, पन्नों पर संपादकीय मैटर और विज्ञापन के इलाकों के बीच साफ-सुथरी विभाजक रेखाएं बनाने के लिए समवेत नीतियां रचें, ताजा खबरों के निरंतर सत्यापन और उससे जुड़े दायरों पर पत्रकारिता से इतर क्षेत्रों में हो रहे शोध की जानकारी लें, जमीनी भागदौड़ को खबरें जमा करने की बुनियादी जरूरत समझें और हिंदी को सिर्फ एक माध्यम नहीं, बल्कि जीवंत, निरंतर गतिशील कथ्य के रूप में भी देखें बरतें।
हिंदी पत्रकारिता के संकट से निबटने के लिए क्या जरूरी नहीं कि पहले हिंदी के पत्रकार खुद अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाएं और मनुष्य के नाते अपने आपको अपने प्रतिस्पर्धियों की बराबरी का तो महसूस करें? हिंदी अखबारों की कमजोरी की भावुक आर्थिक-समाजशास्त्रीय व्याख्याएं देना बेकार है। बेकार मन समझाने को हम क्यों कहें कि हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा पूरी दुनिया की पत्रकारिता के संकट का ही अंग है। पूरी दुनिया की पत्रकारिता की धारा में आए प्रदूषण से शिकायत हुई तो वह तुरंत भीतरी सफाई में जुट गई। उसने खबरों का रूप संवारा, खर्चे कम किए, बाहरी स्तर पर तकनीकी मदद के लिए वह 'एपल' की नई ई-टैबलेट से लेकर गूगल तक को टटोल रही है। उधर हम नाराज तो हैं, पर हस्बेमामूल पलायन करना चाहते हैं। इसलिए अपनी खीझ को छिपाने को हम सर्वहारा के नाम पर या बाजार के खिलाफ खूब शोर मचा रहे हैं, ताकि बाजार वालों को लगे कि हम स्थिति से जूझ रहे हैं। जबकि भीतरखाने वही ढाक के तीन (या दो) पात नजर आते हैं। इस तरह की कायर डुबकीवाद हरकतों से हम तट से रत्तीभर भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे, डूब भले ही जाएं। साभार : जनसत्ता
लेखिका मृणाल पाण्डे जानी-मानी साहित्यकार और पत्रकार हैं.
Tuesday, February 9, 2010
कांग्रेस की दोहरी नीति
देश के नीति नियंताओ की समझ और उनके निर्णय को लेकर आम जनता को हमेशा गफलत में डाला जाता रहा हैं। खासकर कांग्रेस की अदूरदर्शी नीतियों के कारण यह समझ पाना मुश्किल हैं की वो कब लॉंग प्लानिग के तहत देश को विभाजित करती तो कभी राष्ट्रवाद की पछधर हो जाती महसूस होती हैं। मनसे को मुबई में सर उठाने का मौका देना फिर उसका दुरपयोग करते हुए शिवसेना व् भाजपा को चुनावी शिकस्त देना, फिर लगे हाथ शिवसेना को उसकी औकात उसके ही गढ़ में बता देना, कोई कांग्रेस से सीखे। यह तो उपराष्ट्रवाद को नियंत्रित करने की कवायद थी लेकिन एक वर्ष में महंगाई को लेकर पुरे देश में जो अफरातफरी मची हैं, क्या अमीर और गरीब सब उससे पीड़ित हैं। कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शरद पवार एंड कंपनी को पहले तो बचने का मौका दे रही हैं, लगता हैं फिर उसका दिन फिरने वाला हैं । सचेत हो जाये शरद जी, जनता को बरगलाने की कोशिश न करे , सुगर फ्री फुड की आदत न डलवाए। पंजाब में आतंकी घटनाये हो या कश्मीर में, नार्थ ईस्ट की बात हो या महाराष्ट्र की उप राष्ट्रवाद की बलवती होती भावनाओ को बलपूर्वक कुचला जाना जरुरी हैं।राज्यों के अन्दर छोटे राज्यों के निर्माण की कई लोग वकालत करते हैं, ठीक हैं लेकिन जरा यह भी तो समझे की क्या इसी प्रकार के राजनितिक विजन व नौकरशाही को लेकर विकास के पथ पर आगे जाया जा सकता हैं। ---
Tuesday, February 2, 2010
राहुल के बिहार दौरे का निहितार्थ और कांग्रेस
राहुल गाँधी के दो दिवसीय बिहार दौरे ने बिहार के युवाओ में एक बार फिर कांग्रेस के प्रति उत्सुकता बढ़ा दी हैं। वे यहाँ कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओ में संभावित उमीद्वारो की तलाश करने और कांग्रेस की नब्ज टटोलने आये थे। बिहार की राजनीति से कांग्रेस के निर्वासन का लगभग दो दशक बीतने को हैं। गलाकाट आन्तरिक कलह व सुविधाभोगी राजनीति ने जेपी के चेलो को अवसर प्रदान किया। समाजवादी विचारो को लेकर चाहे लालू हो या नीतीश दोनों सता के केंद्र बिंदु बन गए। रामविलास पासवान ने स्वयं को केन्द्रीय राजनीति में ला कर चाहे जिस की भी सरकार रही उसे शुद्ध भाषा में कहे तो सिर्फ अपना उल्लू सीधा किया। राहुल के आने के समय बिहार की युवा पीढ़ी के विचारो में आमूलचूल परिवर्तन आ चूका हैं, कांग्रेस को बिहार की जरूरतों को समझाना होगा। जब कांग्रेस शासित राज्यों में उत्तर भारतीयों खासकर बिहारियों को प्रतारित किया जायेगा, बिहार की केन्द्रीय योजनाओ में मिलने वाली हिस्सेदारी में कटौती की जाती रहेगी, प्रति वर्ष आने वाली बाढ़ से निजात नहीं दिलाया जाता जिसमे केंद्र की भूमिका महत्वपूर्ण हैं तबतक बिहारी युवाओ की पीठ पर कांग्रेस की सवारी करना मुश्किल हैं। बिहार की सम्पूर्ण राजनीति के कुछ अपने अन्तर्विरोध भी हैं , इसे राहुल को समझना होगा । राहुल ने बुजुर्ग कांग्रेसियों को सन्देश दे दिया हैं की राजनीति हो या खेलनीति युवाओ को तरजीह दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। राहुल ने महात्मा गाँधी की कर्मस्थली भितिहरवा से अपनी यात्रा शुरू की, लेकिन गाँधी से महात्मा की राह आसान नहीं। राहुल बाबा बहुत कठिन हैं डगर पनघट की.
Saturday, January 30, 2010
कैसे हैं जनाब, थ्री इडियट से क्या हुई मुलाकात
सडक पर, रस्ते में, राजनीति में ,पत्रकारिता में हर जगह आपको थ्री क्या फोर, फाइव, सिक्स इडियट मिलते होंगे, लेकिन उनसे आपने क्या कभी कुछ सिखने की कोशिश की। आइये परदे पर थ्री इडियट हमें कुछ बता रहा हैं उसे जानने की कोशिश करते हैं। यह सही हैं की कैरियर को लेकर दिल की बाते सुनने की बाते, खास कर गुरुकुल के जमाने में बच्चो को उनके अनुरूप वातावरण उपलब्ध करा कर उनकी प्रतिभा में निखार लाया जाता था। इन्हें हम योग की भाति ही भूल गये थे, जिसकी याद बाबा रामदेव जी ने कराया हैं। हमारी नई पीढ़ी को भूलने की आदत होती जा रही हैं। मै कई ऐसे बच्चो को जानता हु जिन्हें टीवी पर दिखने वाले हिरन और बकरी में विशेष अंतर समझ नहीं आता। गाँधीजी के योगदान तो छोड़ दे, उनकी खिचाई करते किशोर व युवा मिल जाते हैं। दिल की सुनने वाले इडियट, आवारा, दीवाना कहे जाते हैं। नई लकीर खीचने वाले को अपनी वजह साबित करने में लम्बा वक्त लग जाता हैं.
Monday, January 11, 2010
नव वर्ष नूतन सन्देश
आज हम जो भी सोचते हो, कल जरुरी नहीं वैसा ही हो। जीवन की नयी प्रणाली, नई विधा विकसित करने का अवसर हो, जीवन को अपने निर्धारित लछय की ओर ले जाने का इरादा हो तो हम जरूर कामयाब हो सकते हैं। क्या हम बेहतर भारत का निर्माण नहीं कर सकते हैं। आइये, बेहतर समाज के निर्माण में हम अपना योगदान दे सके, ऐसा कुछ करे। मानसिक रूप से विकलांग हो चुके लोगो के प्रति संवेदना रखते हुए कुछ नया करे.
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