Sunday, November 30, 2008
आतंकवाद और हमारी जबाबदेही
मुंबई में आतंकवादी हमले के कारण जो स्थिति बनी उसका असर प्रत्येक भारतीय जनमानस पर पडा है, इसे कमोबेश सभी प्रमुख ब्लॉगों पर प्रमुखता दी गयी है। खासकर, सिनेमा से संबंद्व प्रमुख कलाकारों के द्वारा लिखी गयी पंक्तियों को मीडिया ने भी तवज्जों दी है। सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने जहां एक ओर स्पिरिट आफ मुंबई कहना बंद करने की सलाह दी है, तो आमिर खान ने कहा कि आतंक का कोई धर्म नही होता। इसी प्रकार मीडिया से संबंद्व सभी स्तर पर लोगों ने चंद आतंकवादियों को खुलेआम तीन दिनों तक हंगाम,बर्बादी व तबाही का मंजर फैलाते देखा सुना। पिछले तीन दिनों तक हमें यह दिखा की आज भी राजनेताओं से ज्यादा हमारे देश की चिंता हमारे सुरक्ष्ाा बलों को है। वे अपने प्राण न्योच्छावर कर के भी लोगों को दहशतगर्दी से निकालना जानते है। हमारे राजनेताओं को इससे सीख लेनी चाहिये क्योकि अंतत यह देश ही हमारे आने वाली पीढियों के लिए,हमारे स्वजनों व परिजनों के जीवनयापन व विकास का साधन होगा। न तो भविष्य में जो आज काम आए उस सुरक्षा बलों के जवान रहेंगे, न अपने को निर्णायक व महत्वपूण् मानकर देश की शांति व सम़द्वि में हस्तक्षेप करने वाले राजनेता रहेंगे। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सुरक्षाबलों व सेना के उपर जनता के प्रतिनिधि होने चाहिये ताकि जनपक्षीय दबाब उनपर बना रहे वे निरंकुश न हो, किंतू हमें यह भी तय करना होगा कि उन्हें देश व समाज हित में कार्य करने की पुरी स्वतंत्रता भी हो। सुरक्षा एजेंसिया अपने भीतर ही नियंत्रण की प्रणाली विकसित करें ताकि कार्य में लापरवाही बरते जाने वालों व देश की अस्मिता के साथ खिलवाड करने वालों से निबटा जा सके। उन्हें हुकूम का गुलाम बनाकर रखना देश के साथ धोखा है। इतना तो निश्चित है कि जो कौमें अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह होती है उन्हें मिट जाना चाहिये। प्रक़ति ने एक चींटी को भी इतना ताकतवर बनाया है कि जब वह हाथी की सुंढ में घुस जाए तो उसकी मौत का वायस बन जाती है। हमें यह देखना होगा कि समाजिक संरचना का विकास हम किस प्रकार कर रहे है,उनमें राजठाकरे टाईप लोगों,सांप्रदायिक विद्वेष फैलाकर अपनी रोटी सेकनें वालों के उभरने की कितनी संभावनाएं है। पोटा या अन्य कानूनों की बात करने वालों को यह भी गौर करना चाहिये कि पहले से लागू किये गये कानूनों का क्या ह्रस हो रहा है। क्या सुरक्षा को लेकर हमने अपनी जिम्मेवारियों को समझा है. पूरे भारतीय परिवेश में मुंबई इन दिनों प्रतीक के रूप में उभरा है. कभी यहां शिवसेना की सांप्रदायिक राजनीति हावी होती है तो कभी राजठाकरे की क्षेत्रीयतावाद की राजनीति तो कभी अंडर वर्ल्ड के खौफ के साए में लोग दहशत में रहते है. यहां मीडिया का रोल भी कमोबेश उजागर हुआ है. तरूण भारत ने जहां हेमंत करकरे के पुत्र द्वारा नशीली दवाओं के सेवन करने संबंधी खबरे दी तो सामना ने हिंदू विरोधी अधिकारियों के नाम पते उजागर करने व शिवसेना कार्यकर्ताओं द्वारा उन अधिकारियों के घरों के बाहर प्रदर्शन करने संबंधी खबर प्रकाशित की. हद तो यह है कि हमेशा तेज गति से आगे रहने वाली इलेक्ट्रानिक मीडिया भी घंटों बाद इतने बडे हमले को समझ सकी. देश भक्ति का जजबा तो उनमें दूसरे तीसरे दिन ही आया. एक चैनल ने तो आतंकवादियों की तस्वीरे तक दिखा दी. खबर है कि जब बाहर पुलिस अधिकारी आतंकवादियों के शिकार हुए तो ताज के अंदर छिपे आतंकी जश्न मना रहे थे। सूचना के इस कदर लापरवाह होने का नतीजा यह भी हो सकता है कि विदेशों में बैठे आका इससे अगली रणनीति तय कर रहे हो। हमें अपनी सुरक्षा को लेकर किसी भी स्तर पर लापरवाही नही बरती चाहिये,खासकर यह जिम्मेदारी तय होनी चाहिये कि राष्ट्रीय विपत्ति के क्रम में,आतंकवादी गतिविधियों या बाहय आक्रमण के समय बरती जाने वाली कोताही को किसी सूरत में बख्शा नही जायेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरे देश को ग़ह मंत्री शिवराज पाटिल के इस्तीफे व वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम द्वारा पदभार संभाले जाने की सूचना आ चुकी है। क्या यह वह समय नही है जब सिर्फ इस्तीफे को अपनी जिम्मेवारी से बचने का माध्यम भर न माना जाये बल्कि इस प्रकार की लापरवाही बरते जाने के लिए राजनेताओं को भी दोषी बनाया जाये. अतंत देश सबका है, देश की सुरक्ष्ाा की जिम्मेवारी सब पर है.
Saturday, November 29, 2008
वह पल जो ठहर सा गया...... कब रुकेंगे राजनेता
मुंबई में हुई आतंकवादी घटना को देख व सुनकर पूरा देश स्तब्ध रह गया।तीन दिनों तक राष्ट्र की धमनी में दौडता रक्त ठहर सा गया,एक एक पल आत्मचिंतन व चुनौतियों के प्रति अपनी जिम्मेवारी का एहसास कराता प्रतीत हुआ। क्या राजनेता, क्या अभिनेता,व्यवसायी,चिंतक,आम नागरिक सभी यह सोचने को बाध्य हो गये कि हमारे राजनेता आखिर कौन से कार्य में व्यस्त है जो उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति लापरवाह बनाये हुए है. वैदेशिक नीति के उपर टीका टिप्पणी लगातार की जाती रही है किंतू क्या हम सचमुच बाहय आक्रमण को झेलने के लिए सामर्थ्यवान है।आंतरिक सुरक्षा की बदहाल स्थिति को लेकर क्या ठोस रणनीति बनायी जा सकती है,इस पर कभी विचार किया गया है भी या नही।थोडी देर के लिए अपने नेत़त्वकर्ताओं के प्रति अपने मन को शिथिल भी कर ले तो क्या देश का प्रत्येक नागरिक इन आतंकवादी घटनाओं से मुकाबले के लिए मानसिक रुप से तैयार है. यह चिंता लगातार व्यक्त की जा रही है कि मुंबई में तीन दिनों तक आतंकवादियों द्वारा दहशत का महौल बनाये रखने के पीछे लंबी व ठोस रणनीति अपनायी गयी होगी। तो क्या हमारे लिए यह जानना जरूरी नही कि ऐसे मौकों पर हमें किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी है। आक्रमण हमारी नीति नही हो सकती लेकिन क्या जो आक्रमण करें उसे चिन्हित करते हुए उस पर प्रत्याक्रमण करना हमारी नीति नही हो सकती। जो कायर कौमे होती है,वही इससे इंकार कर सकती है। भारतीय रक्त में इस प्रकार की कायरता का कोई स्थान नहीं है।हमें वैसे देशों को जो आतंकवाद या आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय दे रहे है खासकर, हमारे पडोसी मुल्क उनको स्पष्ट रुप से यह एहसास दिलाया जाना जरूरी है कि वे संभल जायें अन्यथा परिण्ााम के लिए तैयार रहें। भारतीय सीमा में पहली बार किसी आतंकवादी गतिविधि के लिए सेना के अधिकारी पर लगातार किये जा रहे आरोप प्रत्यारोप, एक प्रांत के लोगों को दूसरे प्रांत में अपमानित किया जाना,आतंकवादी गतिविधियों के लिए चिन्हित किये जा रहे लोगों के साथ नरमी का रुख हमें लगातार कमजोर बनाता जा रहा है। क्या सिर्फ वोट व सत्ता की खातिर एक अरब लोगों का यह मुल्क इतना कमजोर हो सकता है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में श्रीलंका में जितनी जल्दी सेना को भेज कर सफलता पायी गयी थी,या मालदीव में हुए तख्त पलट को जिस कदर त्वरित गति से सुलझाया गया था,क्या वह आज 08 आते आते इतिहास के पन्नों में गुम हो गया। देश के खुफिया संगठन को क्यो कमजोर बनाया जा रहा है,उन्हें स्वतंत्रता देकर क्यो नही उनकी रिपोर्टो पर आक्रमक रुख अपनाया जाता है. राज्यों की अपनी खुफिया विभागे है जो लुंज पूंज स्थिति में है. उन्हें आधारभूत सुविधाएं दी जानी चाहिये या नहीं इस पर क्यो नही महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते. मुंबई पुलिस की स्कॉटलॉड यार्ड से तुलना की जाती है,वह एक राहुल राज की हत्या करने में स्वयं को जाबांज घोषित करती है लेकिन मौका देश के दुश्मनों से भिडने का हो तो तीसरी पंक्ति में नजर आती है। मुंबई के राजनेता जो मराठी गैर मराठी के नाम की कुछ दिनों पूर्व तक माला जप रहे थे,उन्हें सांप सूंघ गया है। हिंदू मुस्लिम व अन्य कौमों में नफरत की आग उगलने वाले,फतवा देने वाले तथाकथित संप्रदायिकता विरोध के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले आज किस दूनिया में है यह किसी को पता तक नही है. क्या देश सिर्फ उनका है जो हाथों में हथियार लेकर देश के नाम पर शहीद होने के लिए तैयार है, या उनका भी है जो उनके परिवार के साथ शांति से समय गुजारना पसंद करते है. क्या देश के नीति नियंताओं को यह नही सूझता कि इस देश में शांति व सदभाव के बिना किसी प्रकार का विकास नामुमकिन है।वोट व सत्ता के पीछे पागल बने लोगों को अपने हाथों को मजबूत बनाने के लिए दूसरे विकसित देशों से उद्वाहरण लेना उचित नही प्रतीत होता. हम संविधान का निर्माण उधार लेकर दूसरे मुल्कों से कर सकते है,उसपर इतरा सकते है कि देखों दूनिया के बेहतरीन प्रणाली को हमने अपनाया है. तो क्या देश के दूश्मनों से निबटने के तरीके से नही सीख सकते,शांति व सदभाव से रहना नही सीख सकते, विज्ञान व तकनीक की प्रगति के लिए किये जाने वाले उपाय नही सीख सकते. आखिर कबतक हम अपने कांधों पर लाशों को ढोने के लिए मजबूर होंगे. मुंबई की घटना पर टिप्पणी करते हुए अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ ने क्या खूब कहा कि वर्तमान भारतीय ग़हमंत्री बेहद कमजोर है। उनसे ऐसी घटनाओं से निपटने को लेकर या पूर्व की तैयारी को लेकर बेहतर उम्मीद नही की जा सकती। यूपीए हो या एनडीए दोनों धडों को कम से कम देश हित में एक सुस्पष्ट नीति आतंकवाद को लेकर विकसित करनी चाहिये ताकि अव्वल तो ऐसे हालात न पैदा हो या संकट आए भी तो उससे कडाई से निपटा जा सके। गोली का जबाब गोली से देने की घोषणा करने वाले क्षेत्रीय राजनेताओं को भी सर्तक होकर अपने बयान देने चाहिये। प्रांत कमजोर होता है तो देश कमजोर होता है, लोगों को नागरिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों की भी जानकारी देनी चाहिये। हमें छोटी छोटी बातों से उपर उठना सीखना होगा। कभी कभी तो अपने देश के लोगों के विचारभिन्नता को देखकर लगता है कि सचमूच यह कुपमंडूकता से उबरने में अभी तक नाकाम साबित होता रहा है. कोई तो हो जिसे राष्ट्रीय व जातीय श्रेष्ठता का अभिमान हो,सिर्फ मुठठी भर लोगों के द्वारा राष्ट्रगान गाये जाते रहे, या सिर्फ स्वतंत्रता अथवा गणतंत्रता दिवस के अवसर पर औपचारिकता निबाहे जाते रहे तो इन हालातों से निबटना मुश्किल है. अपने देश के स्कूल व कॉलेजों में नौजवानों को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए नेशनल कैडेट कोर एनसीसी की स्थापना की गयी है। यह प्रशिक्षण सुविधा देने मात्र का संगठन नहीं है बल्कि अपने देश को करीब से जानने व महसूस करने वाला संगठन है। आज राहुल गांधी को घूम घूमकर अपने देश को समझना पड रहा है काश, वे इसके माध्यम से प्रशिक्षित होते तो संभवतया उन्हें सैन्य बारिकियों के साथ,अपने देश की विविधता में छिपी एकता के भी दर्शन हो गये होते। कोई आवश्यक नही कि एनसीसी प्रशिक्षित सैन्य सेवा में ही जाये, देश के किसी भी भाग में, किसी भी कार्य में लगे युवाओं के जीवन में, व्यक्तित्व में यह युगांतकारी परिवर्तन ला देता है। सेना,पुलिस या वर्दी खौफ व आतंक पैदा नही करती बल्कि देशद्रोहियों, समाजविरोधियों का सर कुचलने में सहायक सिद्व होते हुए प्रतीत होती है.यह अच्छे राजनेता भी हमें दे सकती है.
Thursday, November 13, 2008
सोने की चिडिया स्वीस बैंक में कैद
भारत को कभी सोने की चिडियां कहा जाता था, यहां दूध की नदियां बहती थी,यह मात्र कपोल कल्पना भर नही थी। सचमुच उस समय भारत धन धान्य से भरपुर था।यहां से मसाले,सुती वस्त्र,स्वर्ण आभूषण,आयुर्वेदिक दवा इत्यादि कई अन्य जरूरत की चीजों का निर्यात किया जाता था। भारतीय व्यापारियों को बडे स्वागत के साथ विदेशों में आमंत्रित किया जाता था। आज का भारत इसके ठीक उलट है। आज भारतीय अर्थव्यवस्थ्ा विकास के घोडे पर सवार होने के बावजूद गरीबी का अभि शाप ढोने को अभिसप्त है। सोने की चिडियां आज स्वीस बैंक में कैद है। प्राप्त जानकारी के अनुसार स्वीस बैंकों में जमा राशि के पांच बडे स्रोतों में शामिल भारत के 1,456 अरब डॉलर,रूस के 470 अरब डॉलर,यूके के 390 अरब डॉलर,उक्रेन के 100 अरब डॉलर तथा चीन के 96 अरब डॉलर की मुद्रा स्वीस बैंक में कैद है। क्या ऐसा हमारे देश के नियति नियंताओं के सहयोग के बिना हो सकता है। क्या इसके लिए हमारे देश की आर्थिक नीतियां जिम्मेवार नही है। हद तो यह है कि स्वीस बैंकों में जमा राशि भारत के कुल राष्ट्रीय आय से डेढ गुना ज्यादा है तो भारत के कुल विदेशी कर्जो का 13 गुना है। इस राशि को वापस लाकर देश के 45 करोड गरीबों में बांट दिया जाये तो सब को कम से कम एक लाख रुपये मिलेगा।ऐसा नहीं कि इसमें सिर्फ बेईमान राजनेताओं के धन जमा है, इसमें उद्योगपतियों, फिल्म कलाकार, क्रिकेट खिलाडियों के साथ कई लोगों की राशि भी शामिल है। प्राप्त जानकारी के अनुसार इन बैंकों की खासियत यह है कि इसमें जमा राशि पर कोई टैक्स नही लगता, न ही जमाकर्ताओं के नाम व नंबर सार्वजनिक किये जाते है। अब आप ही विचार करें कि ऐसे बैंकों के कर्ताधर्ताओं को क्या कहा जाए देश के सुधारक, विकास की ओर ले जाने वाले पुरोधा, देश के आईकॉन, या गरीबों का रक्तचूषक. आज आप राजनीतिक उठापटक के बीच जो भी घात प्रतिघात कर लें, मुलायम कहें की सत्ता में आने पर मायावती की मूर्ति उखाड देगे, तो अगला कहेगा कि मुसलमानों को जन्नत नसीब करा देंगे,गरीबों को लॉलीपाप बांटेंगे, लेकिन सच यही होगा कि ये सब बरगलाने वाली बातें है. इनका न तो गरीबों के बच्चों के स्वास्थ्य,शिक्षा, उनके जीवन स्तर में सुधार से कोई दूर दूर तक संबंध है, न ही उनके माता पिता की आय में सुधार, उनका देश के विकास में सक्रिय भागदारी निभाने के अवसर प्रदान किये जाने से है. ये जो मिडिया हाउस है,भले ही गला फाड कर चिल्लाये कि ये हो रहा है, वो हो रहा है लेकिन सच्चाई इससे कोसों दूर है. हमारे जनप्रतिनिधियों के ड्राइंगरुम से निकलकर कोई बात आगे नही जाती.
Saturday, November 8, 2008
ब्लॉग लेखन क्या मीडिया के गटर की गंगा है
मेरी नजर अचानक एक ऐसे लेख पर पडी जिसमें ब्लॉग को मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा बताया गया है. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या ब्लॉग लेखन सचमुच इतना गंभीर नही है, इसके पाठक इसके बारे में क्या राय रखते है, इसकी समझ अब तक नहीं बन पा रही है. दूसरे अर्थो में यही समझा जा रहा है कि ब्लॉग सिर्फ मन की भडास मात्र है. मेरी राय में ऐसा नहीं है. खासकर, जब कोई पत्रकारिता जगत का व्यक्ति ब्लॉगिंग से जुडता है तो निसंदेह मेन स्ट्रीम में छुट जाने वाली बातों को रखने का प्रयास करता है. ये छूट गयी बातें मीडिया की गटर से निकली नहीं होती न ही गटर में फेंके जाने योग्य ही होती है. यह समझने वालों का भ्रम हो सकता है. साहित्य व पत्रकारिता के मेन स्ट्रीम में भी ऐसी बातें पायी जाती है, जो न सिर्फ गटर में फेंकी जाने वाली होती है बल्कि लगता है कि गटर से ही निकली हुई है. पाठक उसे वैसे ही ग्रहण करते है जिसके योग्य वो रचना होती है या उसकी अधिकारी होती है. कई ऐसे ब्लॉग है जो कई नई व रोचक जानकारी देते है. हमारा ज्ञानवर्धन करते है, कई ब्लॉग तो अपने आप में वि शद जानकारी तक उपलब्ध कराते है. जहां तक पत्रकारों के द्वारा अपने मन की खटास को इसमें टांके जाने की बात है, यह पत्रकार की अपनी अभिरुचि या क्षमता पर नि र्भर करता है कि वो अपने मन के वि ष, जहर को किस प्रकार औरों के लिए अम़त बना पाता है. हलाहल पीने वाले ही यह समझ सकते है कि अंम़त की जरूरत किसी कदर लोगों को होती है. जो अच्छा पढना, लि खना व समझना चाहते है, उन्हें ब्लॉग लेखन निश्चित रुप से अपनी ओर खींचता है, यह चालू भाषा में कहे तो बाथरूम सिंगर को गाने का एक बेहतर मौका फराहम करता है. यह समझने की बात है कि आप उस संगीत को कैसे लेते है. आपकी मौलिक प्रति भा का कैसे विकास होता है. कैसे आप अपनी जगह बना पाते है. पत्रकारिता के मेन स्ट्रीम में या सक्रिय लेखन के क्षेत्र में, कला साहित्य से इतर प्रत्येक कार्य में यही जददोजहद कार्य करती है. यही किसी को महान तो किसी को शैतान बनाता है.
टिप्पणी के लिए धन्यवाद
समाज में,साहित्य में, साहित्य के मंच पर जो कुछ घटता है उसे अपने नजरिये से मैने सामने रखा. निसंदेह उनपर अलग अलग टिप्पणियां होगी. जहां तक एक टिप्पणी कर्ता द्वारा उठाये गये प्रश्न की बात है, इतना निश्चित जानिये कि सबका अपने दायरे में काम करना ही अच्छा लगता है. आप किसानी बेहतर करते हो, साथ ही आपसे उम्मीद की जायें कि आप सेटेलाइट के भी ज्ञाता हो यह मुश्किल है. मैने कथाकार की पीडा को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया. अब आगे बढने वाले सह़दय लोगों के हाथों से उम्मीद बनती है कि वे ऐसा कुछ करें ताकि कथाकार महोदय अपने कष्टों से उबर सकें. मेरा आशय किसी एक का कथाकार का नही ऐसे कई विद्वान व आचार्य धक्के खाते फिर रहे है उनकी नोटिस तक नही ली जा रही,पहले उन्हें नोटिस में लाना जरूरी हैं. क़पया इसमें कोताही नहीं की जानी चाहिये.
Saturday, November 1, 2008
हिंदी वालों की आंखों का पानी गायब
आज हिंदी प्रदेश के हिंदी सेवियों के आंखों का पानी गायब हो गया है. यह सब लि खते हुए ह़दय को बहुत कष्ट हो रहा है जो आज मैने अपने आंखों देखी है. आज दोपहर में पटना में साहित्य के नामचीन आलोचक व साहित्यकार डा नामवर सिंह द्वारा बिहार के तेजतर्रार मंत्री के प्राइवेट सेकेट्री अशोक कुमार सिन्हा लि खित पिता नामक पुस्तक का लोकापर्ण किया गया. इसमें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि अरुण कमल सहित कई ख्यात स्थानीय साहित्यकार व आलोचक शामिल थे. डा नामवर सिंह ने अपने संबोधन में स्पष्ट भी किया कि वे पूर्व से अशोक जी को नही जानते, आलोचक नंद कि शोर नवल जी के द्वारा जानकारी मिलने पर मैने इन्हें जाना. इस समारोह में बिहार के पांच से सात प्रमुख एमएलसी, वि धायक भी उपस्थित थे. पुरी गहमागहमी के साथ कार्यक्रम चला. मैं उस पर नही जाना चाहता कि किसने क्या कहा और बातों ही बातों में कटाक्ष के कितने दौर चले. लेकिन जो मूल बात है कि इसी समारोह में ख्यात कथाकार मधुकर सिंह भी उपस्थित हुए. हाल ही में उन्हें पक्षाघात की शिकायत हो गयी है. साहित्य प्रेम व कुछ मजबूरी और उम्मीदों के साथ वे समारोह में अपने पोते के साथ पहुंचे. उनके हाथों में मुख्यमंत्री व मंत्री के नाम पत्र था. उनकी इच्छा थी कि शायद उसपर कुछ लोग अपने हस्ताक्षर कर दें ताकि सरकार के पास भेजा जाये तो कुछ आर्थिक सहायता मिले ताकि रोग से लड सके,थोडी सी जीवन मिल जाये, कुछ और साहित्य को दे सके. लेकिन हाय, रे हिंदी के सुधी श्रोता व दर्शक सब के सब उस भीड में शामिल थे जिनके लिए नामवर के दर्शन मात्र से ही पूर्व कर्मो का पाप मिटने का भरोसा था. किसी ने भी मधुकर सिंह की ओर ध्यान नही दिया. धीरे धीरे सीढियां उतर कर वे अपनी राह चले गये.उनके कापतें हाथों से छडी कब छुट जायेगी यह किसी ने नही महसूस की. हिंदी प्रेमियों की यह ह़दयहीनता समझ से परे है. हिंदी वालों की आंखों में अब पानी सिर्फ तारीफ व तालियों के साथ प्रशंसा के सूनने के लिए ही रह गया प्रतीत होता है. मैं ये नहीं कहता कि समारोह न हो, लेकिन सिर्फ कुडा कर्कट के लिए नामचीन लोग सामने आ जाये और जो बेहतर लि खे जा रहे हो उन्हें प्रशंसा के शब्द तो छोडिये उन्हें कोई पूछने वाला न हो उधर आलोचक अपनी भ़कुटी ताने रहे यह सब हिंदी में ही देखने को मिलती है.
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