Friday, July 11, 2008

जातिवाद व पूंजीवाद का हिंदी पत्रकारिता पर बढता दुंष्‍प्रभाव

मन में बहुत क्षोभ होता है यह देखकर कर वर्तमान हिंदी पत्रकारिता का दौर जातिवाद,संप्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद तथा पूंजीवाद के चंगूल से नहीं निकल सका है, और हिंदी पत्रकारिता अपने को प्रोढ मानने को उतावली है. क्‍या ऐसा भी होता है. क्‍या यह संभव है. आखिर पत्रकारिता किस के लिए व क्‍योकर की जा रही है. खबरों की आपाधापी में वे कौन से मूल्‍य है जो हमें अपनी ओर हमारा ध्‍यान नहीं खींच पा रहे है. अगर नहीं खींच पा रहे है भी तो उसके लिए क्‍या पत्रकार जिम्‍मेवार है अथवा पत्रकारिता का जो पुरा दौर है वही दूषित व कुंठाग्रस्‍त हो चुका है. क्‍या वामपंथ, दख्‍ख्निन, या नक्‍सल, इस्‍लामिक अथवा गैरइस्‍लामिक वादो से इतर पत्रकारिता नहीं की जा सकती. पत्रकारिता का आधार विचार है, भावनाएं है तो क्‍या हम अपने चश्‍मे को ठीक ढंग से नहीं रख सकते. क्‍या अपने विचारों को थोंपने के लिए दूसरों के विचारों को गलत प्रमाणित किया जाना जरूरी है. एक मासूम से बच्‍चे के माता पिता की हत्‍या हो जाती है,वह टयूबवेल में गिर जाता है तो उसे टीआरपी बढाने का औजार बना दिया जाता है. क्‍या निजी जीवन व विचार की कोई प्राथमिकता बच भी गयी है क्‍या. सार्वजनिक जीवन जीने वालों के लिए तो बेहद दूश्‍कर सा कार्य हो चुका है कि वे अपनी निजता को कैसे सुरक्षित रखें. हमें हमारे संस्‍कारों की शिक्षा अब माता पिता से नहीं अपितू मीडिया से ग्रहण करनी पड रही है. हमें क्‍या खाना है, कौन से कपडे पहने है, कैसे अपने भविष्‍य के लिए उपाय करने है, यह सब मीडिया तय कर रही है. पटना विश्‍वविद्यालय के एक हिंदी शिक्षक ने जो बाद में संसद सदस्‍य भी हुए, पदम श्री भी प्राप्‍त किया, एक बार चर्चा कर रहे थे कि कैसे दिल्‍ली में तीन हजार से भी अधिक पत्रकार उन दिनों सक्रिय थे, उनमें से तीन सौ ऐसे पत्रकार थे जिनकी पहुंच सीधे प्रधानमंत्री निवास तक थी. आप उनसे जैसा भी कार्य कहें, चाहे किसी का राशन कार्ड बनवाना हो, किसी को नौकरी दिलवानी हो, किसी का रूका हुआ कार्य हो, कोई टेंडर प्राप्‍त करना हो, लाखों की डील हो या दलाली सबमें वे माहिर थे. तब शायद इलेक्‍ट्रानिक मीडिया का इतना असर नही था. आज जब कैमरे की चौधियाहट में क्‍या मंत्री क्‍या अधिकारी, आम जनता तक की आंखें चौधीया रही हो ऐसे में भला अदना सा नागरिक क्‍या कर सकता है. जातिवादी धारणाओं का यह आलम है कि हिंदी पत्रकारिता अब चाटुकारिता में तब्‍दील होती जा रही है. पुंजीवाद का नंगा नाच हमारी आंखों पर पटटी बांधे हुए है. पैसा है तो आप अपनी फिल्‍म बेच सकते है, इंडस्‍ट्रीज खडा कर सकते है, नेतागीरी चमका सकते है. मीडिया धन बंटोरने के लिए हर वो काम करने को तैयार है जो शायद हिंदी पत्रकारिता की नींव तैयार करने के क्रम में खंडवा से निकलने वाले पत्र के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी, कलकता से निकलने वाले पत्र के संपादक पं ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा सहित वैसे किसी पत्रकार ने नही सोंची होगी. जिसके लिए उन्‍होने अंगरेजी हुकूमत के जुल्‍म सहे, जेल गये, अपने जीवन को होम कर दिया. सरस्‍वती के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारों की नयी पौध विकसित करते वक्‍त यह नहीं सोंचा होगा कि इनके वंशज भविष्‍य में कौन सा गुल खिलायेंगे. हिंदी,हिंदूस्‍तान की कैसे मिटटी पलीद होगी. हिंदूवाद के नाम पर पत्रकारिता का वह दौर चलेगा कि बिहारी, बंगाली, मराठी,यूपी के लोग बंट जायेंगे.

4 comments:

Som said...

I too share same concern about the media.

We all journos are responsible for it as we also not caring much about news's impact on society. What we care is our employer's revenue generation module.

Anonymous said...

हमलोग आपके नये पोस्‍ट का इंतजार कर रहे हैं
रूचि

Anonymous said...

आपकी लेखनी की ताकत देखकर आपके सामाजिक सरोकारों का अंदाजा होता है, लगें रहें

http://nayekadamnayeswar.blogspot.com/

कौशलेंद्र मिश्र said...

आपकी लगातार मिलती प्रेरणा से निसंदेह नियमित रूप से रचनाएं प्रस्‍तुत करने का कार्य करुंगा. हौसला बढाने के लिए पुन धन्‍यवाद