Saturday, December 27, 2008

मीडिया की मजबूरी या देश की जरूरत है युद्व

आज भारत पाकिस्‍तान के रिश्‍ते में तल्‍खी है, एक आतंकवाद के खात्‍मे के लिए देश दूनिया में अपनी आवाज बुलंद कर रहा है तो दूसरा उसका पोषक बनने के लिए किसी भी सीमा तक जाकर अपनी युद्व की ज्‍वाला को शांत करना चाहता है. उसे युद्व लडकर विश्‍व की सहानुभूति प्राप्‍त करना श्रेयस्‍कर महसूस हो रहा है. मीडिया इसमें अपनी भूमिका तलाश कर रहा है. उसे बाजार को उपलब्‍ध कराने के लिए दमदार खबरे परोसने का मौका मिल गया है तो दूसरी ओर यह कमोबेश देश की जरूरत भी बतायी जा रही है. समय समय पर कुटनीतिज्ञों को आमंत्रित कर तरह तरह के विचार प्रसारित कर जनता को भ्रम की स्थिति में डाला जा रहा है. भारत द्वारा दिये गये 30 दिनों के अल्‍टीमेंटम के बाद भी पाकिस्‍तान अपनी स्थिति से टस से मस नही हो रहा है. पाकिस्‍तान के हिताकांक्षी राष्‍ट्रों में इसको लेकर भले ही बाहर से कोफत बढती द‍िख रही हो लेकिन अब भी चीन, साउदी अरब सहित अन्‍य पाकिस्‍तान परस्‍त राष्‍ट्रों ने अपनी स्थिति साफ नहीं की है. यह तो तय है कि पाकिस्‍तान के साथ युद्व हुआ तो इस बार उसका बजूद ही खतरें में पड जाएगा. फिर हमें अपनी सेना को विजित क्षेत्रों को वापस लौटने के बजाय व़हतर भारत के परिकल्‍पना को साकार करने के एजेंडे पर लगा देना होगा. आज पख्‍तुन, सिंधी पाकिस्‍तानी हुकमरानों के दोरंगी नीतियों के सबसे बडे पीडित है उन्‍हें लोकतांत्रिक अधिकारों से महरूम किया जा चुका है. पश्चिम पाकिस्‍तान में तालिबान का कब्‍जा है. वहां महिलाओं को शिक्षा प्राप्‍त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है,वही मनोरंजन के साधनों का खात्‍मा कर दिया गया है. क्‍या इस्‍लाम की इस तरह की व्‍याख्‍या करने वालों से स्‍वयं इस्‍लामी जगत के रहनुमा निबटने में अक्षम है. प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या हम मीडिया के दबाब में युद्व की रणनीति अपनाए या किसी सार्थक समाधान की दिशा तलाशे. भारत सरकार की विदेश नीति पर पहले भी सवाल खडे होते रहे है, आज हमारा देश आजादी के 60 वर्षो के बाद इतना सशक्‍त हो चुका है कि विश्‍व के किसी भी दबाब से निबटने में सक्षम है. मीडिया को हमें अपनी ताकत के मूल्‍यांकन में सहयोग कर देश को भरोसे में लेने का प्रयास करना चाहिये न कि युद्व की बदलती व बढती भूमिका को स्‍पष्‍ट करने में अपनी उर्जा को खपाना चाहिये. हमारे देश में अब भी नीति निर्धारकों के बीच बेहतर सामंजस्‍य है, हमें उन पर भरोसा करना भी सीखना होगा. मीडिया को सलाहकार की भूमिका में ही रहना शोभा देता है वह निर्णायक बनने का प्रयास न करें.

1 comment:

Anonymous said...

बराबर कहा आपने। लेकिन शायद आप पूरी बात नहीं समझ रहे हैं। इस देश के मुसलमानों को इन घटनाओं और इस तरह की बातों से कैसा महसूस होता होगा, अगर आप इसे अपने माईंड सेट का हिस्‍सा बना सकें तो शायद ऑरिजनल प्राब्‍लम को पकड सकेंगे। जरा सोचिए बिग बी को उस समय कैसा महसूस होता होगा जब भैया कह कर उनकी कौम को अपमानित किया जाता होगा। उस समय हम सबने मुंबई में उनका साथ दिया था। इस संकट की घडी में बिग बी भी हमारे साथ हैं। उम्‍मीद है आप मेरी बातों को माईंड नहीं करेंगे और मेरे दिल की बातों को समझेंगे। थैंक यू। मुंबई में हम लोग अक्‍सर आपके ब्‍लॉग की चर्चा करते हैं। और यह होप भी करते हैं कि हमारे लायक बातें आप कहेंगे।