Saturday, July 26, 2008
रो रही वैशाली.....
वैशाली जार जार रो रही है. उसका रोना न तो किसी की समझ में आ रहा है न वह किसी को कुछ स्वयं समझाना चाहती है.उसकी पीडा बहुत ही विकट है. उसे न किसी के प्रति क्रोध है न किसी से अब उम्मीद ही बची है. कदाचित, घोर निराशा की घडी उसके जीवन में इतनी पूर्व में कभी नही हुई थी. उसने राजतंत्र को धीरे धीरे समाप्त होते देखा था, मगध साम्राज्य के उदभव व विकास के साथ उसे नेस्तानबुद होते भी देखा. मध्यकाल, मुगलकाल फिर उसके बाद आयी अंग्रेजों की गुलामी का दौर जब वैशाली घोर निराशा के दौर से गुजर रही थी. वैशाली की पीडा सिर्फ गुलामी की पीडा नहीं थी, उसे अपनो द्वारा जमींदारो, सामंतों द्वारा चलाये जा रहे समांतर व्यवस्था की पीडा भी कष्ट पहुंचा रही थी. उसे अपने संतानों पर भरोसा था. उसे मालूम था कि एक दिन ऐसा आयेगा,जब फिजां में गणतंत्र का परचम फिर लहरायेगा. गणतंत्र जिसमें न कोई छोटा होगा न बडा, न कोई शासक होगा न शासित, न कोई शोषक होगा न कोई शोषण पीडित. उसकी ऐसी मान्यता इस लिए थी कि संपूर्ण भू मंडल पर पहली बार गणतंत्र का विकास उसी के आंचल की छांव में हुआ था. आज वह जार जार रोने को मजबुर है. उसे अपनी संतानों पर से विश्वास उठ चुका है. उसे पता नहीं कि फिर कब गणतंत्र अपने मूल रूप में सामने आयेगा. ऐसा चारो ओर अंधेरा दीख रहा है. जिस राष्ट्र को गणतंत्र की शुरूआत करने का गर्व था, आज उसी राष्ट्र की सर्वोच्च लोकतांत्रिक इकाई संसद में मां भारती के बेटों ने, वैशाली के बेटों ने उसे लज्जित कर दिया है. सब एक दूसरे पर लांक्षन लगा रहे है. यह वक्त विश्लेषण करने का नहीं कि किसने क्या किया, यह सोचने का है कि आगे हम क्या करें कि पुन ऐसा दिन देखने को नहीं मिले. हमारे गणतंत्र को दागदार बनाने वाले धोखेबाज,गददार व राष्ट्रद्रोही तत्व नकाब ओढकर जनता को धोखा न दे सके,ऐसा क्या करें. वैशाली के वंशज, भरत के वंशज जो शेरों के दांत गिना करते थे, अपने प्राणों की आहुति देकर भी अपनी मात़भूमि की लाज बचाते थे, आज उन्हें क्या हो गया है. 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी, का उदघोष करने वाले आर्यावर्त की भूमि को नपूंसकों ने ऐसी स्थिति में ला दिया है जहां राष्ट्रभक्तों की हुतात्माएं चित्कार कर रही है. यह गजब का संयोग है कि भारतीय युद्व इतिहास के महानायक जनरल मानिक शॉ ने इस घटना के पूर्व अपनी आंखे बंद कर ली, सोचिए उनपर क्या गुजरती जब वे ऐसा करते अपने जनप्रतिनिधियों को देखते. मानव तस्करी, मानव की खरीद फरोख्त को मानवाधिकार का हनन बताने वाले जब जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त में जुट जाये तो स्थिति सोचनीय हो जाती है. धन्य है ऐसे राजनेता जिन्हें वैशाली के आंसू नहीं बल्कि सत्ता की कुर्सी दि खाई पडती है.
Monday, July 21, 2008
गण विहीन तंत्र
आज पुरे देश में तंत्र की ही चलती है. तंत्र का जीवन के प्रत्येक पहलू पर अधिकार है. यह अधिकार भी अनजाने में उसे नहीं मिला है, भारतीय संवि धान ने उसे प्रदान किया है. तंत्र अपनी मस्त चाल से काम करता है,गण बेहाल रहे इससे उसे कोई मतलब नहीं. चाहे किसान आत्महत्याएं करे, रोटी के लिए जंग मची हो, गरीबी की रेखा दिनो दिन बढती जा रही हो, मंहगाई कमर तोडती रहे, तंत्र अपनी धुन में लगा रहता है. तंत्र द्वारा गण को शेयर मार्केट व सेंसेक्स की गिरती उतरती तस्वीर दि खाई जाती है, उसे बताया जाता है इंडिया शायनिंग. महानगरों की चकाचौंध, देश की बदलती तस्वीर, कैमरे की चमक के बीच आम नागरिक की देशभक्ति ताकि वह भ्रम में न रहे. रोम में ऐसा ही हो रहा था जब नीरो बांसुरी बजा रहा था और लोगो से पूछता था कि रोटी नहीं मिल रही है तो वे ब्रेड क्यो नहीं खाते. 15 अगस्त हो या 26 जनवरी राष्ट्रीय पर्व भी गण के लिए बेमतलब होते जा रहे है. हिंदी पत्रकारिता हो या क्रांतिवीरों की देशभक्ति आज उसके कोई मायने नहीं रह गये है. भारतीय संवि धान के निर्माताओं ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा कि जिन गणो के लिए तंत्र का निर्माण कर रहे है वही एक दिन भस्मासुर की तरह गण को तबाह करने पर तुल जायेगा. आज महंगाई की मार बढती है तो वित्त मंत्री मुंबई की ओर भागते है. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर खतरा मंडराने लगता है, केंद्र की सरकार गिरने की स्थिति में आ जाती है तो कारपोरेट घराने याद आने लगते है. एक एक जनप्रतिनिधि को रूपयों में तौला जाने लगता है, सजायाफता भी मेहमान नजर आने लगते है. क्या इन्हीं दिनों के लिए राष्ट्र निर्माताओं ने स्वयं की कुर्बानी दी थी. अपने वतन पर दिला जान नियोच्छावर कर दिया था. जिस बाजारवाद,उदारीकरण, ग्लोबलाइजेंशन के कारण शायनिंग इंडिया की तस्वीर बनाने को हम मजबूर हो गये है क्या उस पर नकेल कसना अब मुश्किल हो गया है. हमारे मस्तिष्क इतने कुंद हो गये है कि हमें राह नही सूझ रही है. गण को एक बार फिर ठहर कर सोंचना होगा. तंत्र के भुलावे में नहीं पडकर देखना होगा कि कैसे अपनी बाजुओं को मजबूत कर हम अपनी मात़भूमि को दलाल, मक्कार व फरेबी चेहरों से बचाकर रख सकते है. सरकारे आती जाती रहेंगी, राष्ट्र को बचाना होगा.हमें अपनी तकदीर स्वयं गढनी होगी. तंत्र को अपने अनुसार कार्य करने योग्य बनाना होगा.
Thursday, July 17, 2008
परमाणु करार पर राजनीतिज्ञों की रस्साकशी
अजब व गजब मूल्क है हिंदुस्तान. यह कब किस बात को लेकर राजनीतिज्ञों के विचार बदल जाते है,इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. अब लीजिए, परमाणु करार को मुददा बनाकर, केंद्र की सरकार के माथे पर बल वामपंथियों ने डाल दिया है. भाई मेरे सत्ता के समर्थन व समर्थन वापसी से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश. भारत भूमि पर बिजली की उपलब्धता हो, चहुंओर जगमग रोशनी हो, लोगों के रोजी रोजगार में विद्यूत उर्जा का उपयोग हो, ये भला देश का कौन ऐसा नागरिक नहीं चाहेगा. हां,इसको लेकर राजनीति की दूकान चमकानी हो, तो भला और बात है. वामपंथियों को यह कहना बिल्कुल ही जायज है कि आखिर इस करार के प्रति देश की प्रतिष्ठा को कहीं पश्चिम के हाथों गिरवी तो नहीं रखी जा रही है. इसे स्पष्ट करना केंद्र सरकार का काम है. केंद्र सरकार है कि करार के पूर्व न तो कुछ प्रदर्शित करना चाहती है न छिपाना ही चाहती है. इस प्रकार के दोरंगी नीति से आम आदमी को क्या लेना देना. आखिर देश के प्रत्येक नागरिक को यह जानने का अधिकार है कि यह करार आखिर क्या बला है, जिसकों लेकर इतनी हलचल मची हुई है. आम आदमी के पल्ले सिर्फ यह बात आ रही है कि केंद्र की सरकार को बचाने के लिए हाय तौबा मची हुई है. पुरा देश महंगाई की पीडा झेल रहा है. भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी हो या अन्य पार्टियां, सब अपने अपने सांसदों को एकजुट करने में लगी है. सांसदों की खरीद फरोख्त हो रही है. कोई 25 करोड की बोली लगा रहा है तो कोई उससे कम पर बिकने के लिए तैयार नहीं है. कोई संसद का सभापति बने रहना चाह रहा है तो कोई उन्हें नैतिकता का पाठ पढा रहा है. असंसदीय व असभ्य भाषाएं राजनेताओं के सिर चढ कर बोल रही है. अब तो यह भी खबर आ रही है कि दिल्ली से आये किस अज्ञात फोन कॉल के संदेश प्राप्त करने के बाद उज्जैन स्थित तांत्रिक जप व हवन में लग गये है ताकि सरकार को बचाया जा सके. बंद करें यह सब बकवास. केंद्र हो राज्य सरकारे कहीं कोई राजनीतिक शुचिता है ही नहीं. दिल्ली जब ऐसी होगी तो लखनउ,पटना,मुंबई, भोपाल इत्यादि राज्यों की राजधानी में क्या प्रभाव पडेगा. हमें थोडा ठहर कर विचार करना चाहिये, क्या इसी तरह एक विकसित भारत का निर्माण हम कर पायेंगे, क्या हम भावी पीढी को इसी तरह का भारत सौंपगें.
Wednesday, July 16, 2008
सरकारी नीतियां व उनके पालनहार
मैं अखबार से जुडा हुआ हूं, सरकारी की नीतियों व उसे लागू किये जाने के तौर तरीकों पर नजर रखता हूं. कई बार यह देखकर हैरानी होती है कि देश की सबसे योग्य प्रतिभा जिसे हम आईएएस कहते है,उनके द्वारा राजनेताओं के संरक्षण में तैयार की गयी सरकारी नीतियों में इतनी विसंगतियां होती है,जिसे आम द्वारा समझ पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य होता है. आखिर प्रशासन का उदेश्य क्या है. यह उन नीतियों को देखकर समझना पटना से पैदल चंडीगढ जाना है. जनता के लिए हितकारी कही जाने वाली नीतियों से आम नागरिक के स्थान पर राजनेता व अधिकारी,कर्मचारी ही फलते फूलते है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी में इतनी तो नैतिकता अवश्य थी कि उन्होने स्वीकार किया था कि दिल्ली से चलने वाला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते पहुंचते 25 पैसे में तब्दील हो जाता है.वह भी खर्च होता है इन अधिकारियों की क़पा पर. इन दिनों इंद्र देव की क़पा भारत वर्ष में चहुंओर बरस रही है.इंद्र देव ने अपनी डयूटी समय पर ही शुरू की लेकिन चाहे मुंबई का मुनिसिपल कारपोरेशन हो या पटना का नगर निगम दोनों के कार्य करने की पद्वति में ज्यादा का अंतर नहीं महसूस नहीं होता. दोनो स्थानों पर जल जमाव के कारण आम नागरिक,इसमें नेता,अभिनेता, व एक मध्यमवर्गीय परिवार भी शामिल है, को भारी परेशानियों का सामना करना पडता है. कोई इस पर वरीय अधिकारियों से जबाब तलब करता है तो बेशर्मी की हद लाघंते हुए अपनी सीमाएं बता दी जाती है. मानो इंद्र देव के कोप का निवारण कोई अन्य देव ही कर सकते है. आखिर यह क्या है. विकास पुरूष कह जाने वाले राजनेता, लोकप्रिय कहे जाने वाले राजनेता क्या इतना भी समझने में असमर्थ है. देश की आधी से अधिक आबादी को नित दिन भ्रष्टाचार का सामना करना पडता है. चाहे आप राशन कार्ड बनवाना चाहते हो, या पासपोर्ट, किसी के जीवन भर सेवा के बाद पेंशन प्राप्त करने की बात हो या अन्य कोई सरकारी कार्यालय से संबंधित कार्य ईमानदार आदमी ढूंढे नहीं मिलते. भ्रष्टाचार की सामांतर व्यवस्था इस कदर हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगी है कि अब तो न्यायाधीशों के भी कारनामें प्रकाश में आने लगे है. इस हालात पर मौजू दो पंक्ति याद आ रही है जिसे प्रस्तुत करना चाहूंगा........
मेरा कातिल ही मेरा मुंशिफ है, वो क्या मेरे हक में फैसला देगा/ आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा, वो खुदा देगा.
मैं यह नहीं कहता कि देश की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी में की जा रही प्रत्रकारिता इससे अछूती है. गिरावट सभी स्तरों पर समाज में आयी है. आज कैसे कैसे छुद्र स्वार्थो के लिए कलम को गिरवी रखकर कार्य किये जा रहे इसकी भी पडताल की जानी चाहिये. कैसे, बाजारवाद के प्रभाव में आकर पुरा वातावरण प्रदूषित हो गया है. इसमें हमें अपने राष्ट्र को किस ओर ले जाना चाहिये. क्योकि अतंतह राष्ट्र बचेगा तो हम बचेंगे,आनी वाली पीढियां हमारा ही अनुकरण करेंगी. अभी विश्व जनसंख्या दिवस 11 जुलाई को केंद्रीय मंत्री अंबुज मणि रामदॉस पटना आये थे,उन्होने बडी साफगोई से यह कहा कि बच्चों के विद्यालयों के आस पास से पिज्जा बर्गर आदि खाद्य पदार्थो को दूर रखने का निर्देश दिया गया है, कोल्ड डिंक के सेवन पर रोक लगायी जानी चाहिये. परंतु जब मंत्रीजी से यह पूछा कि आप बतायें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य िमशन के तहत बिहार सरकार को केंद्र ने कितनी राशि दी,और उसमें से कितनी राशि व्यय की गयी तो वे बगले झांकने लगे, उनके साथ मौजूद एनआरएचएम के निदेशक सहित अन्य अधिकारी भी यह बता पाने में स्वयं को असमर्थ थे, जबकि प्रेसवार्ता केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा आहूत की गयी थी. सिर्फ मीडिया का लोकप्रिय स्लोगन, बडे कारपोरेट घरानों, अभिनेताओं पर कीचड उछालने, लोकप्रियता अर्जित करने के लिए उपयोग किया जाना, आम जनता के विश्वासों के प्रति अक्षम्य अपराध है. हमें सुदूर गांवों में रहने वाले उन लोगों के जीवन के बारे में भी सोचना होगा जिनके आस पास उनके बच्चों के लिए न तो अच्छे विद्यालय है, इलाज के लिए न तो अच्छे अस्पताल है, वहां बिजली की सुवधिा तक उपलब्ध नहीं है. अधिकांश लोगों के पास रोजी रोजगार के साधन नहीं है. भारतीय संवि धान क्या सिर्फ दिल्ली, मुंबई व महानगरों के लिए बनायी गयी है. देश के सुदूर क्षेत्रों से निर्वाचित होकर आने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए क्या ग्रामीण जनता के जीवन का कोई मूल्य नहीं है. क्यो आखिर वादो, विचारो, व नारों की शोर में शासन,प्रशासन,मीडिया,न्यायालय, अपने दायित्वों को भूल जाते है.
मेरा कातिल ही मेरा मुंशिफ है, वो क्या मेरे हक में फैसला देगा/ आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा, वो खुदा देगा.
मैं यह नहीं कहता कि देश की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी में की जा रही प्रत्रकारिता इससे अछूती है. गिरावट सभी स्तरों पर समाज में आयी है. आज कैसे कैसे छुद्र स्वार्थो के लिए कलम को गिरवी रखकर कार्य किये जा रहे इसकी भी पडताल की जानी चाहिये. कैसे, बाजारवाद के प्रभाव में आकर पुरा वातावरण प्रदूषित हो गया है. इसमें हमें अपने राष्ट्र को किस ओर ले जाना चाहिये. क्योकि अतंतह राष्ट्र बचेगा तो हम बचेंगे,आनी वाली पीढियां हमारा ही अनुकरण करेंगी. अभी विश्व जनसंख्या दिवस 11 जुलाई को केंद्रीय मंत्री अंबुज मणि रामदॉस पटना आये थे,उन्होने बडी साफगोई से यह कहा कि बच्चों के विद्यालयों के आस पास से पिज्जा बर्गर आदि खाद्य पदार्थो को दूर रखने का निर्देश दिया गया है, कोल्ड डिंक के सेवन पर रोक लगायी जानी चाहिये. परंतु जब मंत्रीजी से यह पूछा कि आप बतायें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य िमशन के तहत बिहार सरकार को केंद्र ने कितनी राशि दी,और उसमें से कितनी राशि व्यय की गयी तो वे बगले झांकने लगे, उनके साथ मौजूद एनआरएचएम के निदेशक सहित अन्य अधिकारी भी यह बता पाने में स्वयं को असमर्थ थे, जबकि प्रेसवार्ता केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा आहूत की गयी थी. सिर्फ मीडिया का लोकप्रिय स्लोगन, बडे कारपोरेट घरानों, अभिनेताओं पर कीचड उछालने, लोकप्रियता अर्जित करने के लिए उपयोग किया जाना, आम जनता के विश्वासों के प्रति अक्षम्य अपराध है. हमें सुदूर गांवों में रहने वाले उन लोगों के जीवन के बारे में भी सोचना होगा जिनके आस पास उनके बच्चों के लिए न तो अच्छे विद्यालय है, इलाज के लिए न तो अच्छे अस्पताल है, वहां बिजली की सुवधिा तक उपलब्ध नहीं है. अधिकांश लोगों के पास रोजी रोजगार के साधन नहीं है. भारतीय संवि धान क्या सिर्फ दिल्ली, मुंबई व महानगरों के लिए बनायी गयी है. देश के सुदूर क्षेत्रों से निर्वाचित होकर आने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए क्या ग्रामीण जनता के जीवन का कोई मूल्य नहीं है. क्यो आखिर वादो, विचारो, व नारों की शोर में शासन,प्रशासन,मीडिया,न्यायालय, अपने दायित्वों को भूल जाते है.
Friday, July 11, 2008
जातिवाद व पूंजीवाद का हिंदी पत्रकारिता पर बढता दुंष्प्रभाव
मन में बहुत क्षोभ होता है यह देखकर कर वर्तमान हिंदी पत्रकारिता का दौर जातिवाद,संप्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद तथा पूंजीवाद के चंगूल से नहीं निकल सका है, और हिंदी पत्रकारिता अपने को प्रोढ मानने को उतावली है. क्या ऐसा भी होता है. क्या यह संभव है. आखिर पत्रकारिता किस के लिए व क्योकर की जा रही है. खबरों की आपाधापी में वे कौन से मूल्य है जो हमें अपनी ओर हमारा ध्यान नहीं खींच पा रहे है. अगर नहीं खींच पा रहे है भी तो उसके लिए क्या पत्रकार जिम्मेवार है अथवा पत्रकारिता का जो पुरा दौर है वही दूषित व कुंठाग्रस्त हो चुका है. क्या वामपंथ, दख्ख्निन, या नक्सल, इस्लामिक अथवा गैरइस्लामिक वादो से इतर पत्रकारिता नहीं की जा सकती. पत्रकारिता का आधार विचार है, भावनाएं है तो क्या हम अपने चश्मे को ठीक ढंग से नहीं रख सकते. क्या अपने विचारों को थोंपने के लिए दूसरों के विचारों को गलत प्रमाणित किया जाना जरूरी है. एक मासूम से बच्चे के माता पिता की हत्या हो जाती है,वह टयूबवेल में गिर जाता है तो उसे टीआरपी बढाने का औजार बना दिया जाता है. क्या निजी जीवन व विचार की कोई प्राथमिकता बच भी गयी है क्या. सार्वजनिक जीवन जीने वालों के लिए तो बेहद दूश्कर सा कार्य हो चुका है कि वे अपनी निजता को कैसे सुरक्षित रखें. हमें हमारे संस्कारों की शिक्षा अब माता पिता से नहीं अपितू मीडिया से ग्रहण करनी पड रही है. हमें क्या खाना है, कौन से कपडे पहने है, कैसे अपने भविष्य के लिए उपाय करने है, यह सब मीडिया तय कर रही है. पटना विश्वविद्यालय के एक हिंदी शिक्षक ने जो बाद में संसद सदस्य भी हुए, पदम श्री भी प्राप्त किया, एक बार चर्चा कर रहे थे कि कैसे दिल्ली में तीन हजार से भी अधिक पत्रकार उन दिनों सक्रिय थे, उनमें से तीन सौ ऐसे पत्रकार थे जिनकी पहुंच सीधे प्रधानमंत्री निवास तक थी. आप उनसे जैसा भी कार्य कहें, चाहे किसी का राशन कार्ड बनवाना हो, किसी को नौकरी दिलवानी हो, किसी का रूका हुआ कार्य हो, कोई टेंडर प्राप्त करना हो, लाखों की डील हो या दलाली सबमें वे माहिर थे. तब शायद इलेक्ट्रानिक मीडिया का इतना असर नही था. आज जब कैमरे की चौधियाहट में क्या मंत्री क्या अधिकारी, आम जनता तक की आंखें चौधीया रही हो ऐसे में भला अदना सा नागरिक क्या कर सकता है. जातिवादी धारणाओं का यह आलम है कि हिंदी पत्रकारिता अब चाटुकारिता में तब्दील होती जा रही है. पुंजीवाद का नंगा नाच हमारी आंखों पर पटटी बांधे हुए है. पैसा है तो आप अपनी फिल्म बेच सकते है, इंडस्ट्रीज खडा कर सकते है, नेतागीरी चमका सकते है. मीडिया धन बंटोरने के लिए हर वो काम करने को तैयार है जो शायद हिंदी पत्रकारिता की नींव तैयार करने के क्रम में खंडवा से निकलने वाले पत्र के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी, कलकता से निकलने वाले पत्र के संपादक पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा सहित वैसे किसी पत्रकार ने नही सोंची होगी. जिसके लिए उन्होने अंगरेजी हुकूमत के जुल्म सहे, जेल गये, अपने जीवन को होम कर दिया. सरस्वती के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारों की नयी पौध विकसित करते वक्त यह नहीं सोंचा होगा कि इनके वंशज भविष्य में कौन सा गुल खिलायेंगे. हिंदी,हिंदूस्तान की कैसे मिटटी पलीद होगी. हिंदूवाद के नाम पर पत्रकारिता का वह दौर चलेगा कि बिहारी, बंगाली, मराठी,यूपी के लोग बंट जायेंगे.
Monday, July 7, 2008
हिंदी पत्रकारिता में पालिटिक्स,धर्म व सेक्स का बढता वर्चस्व
पटना - हिंदी पत्रकारिता में इन दिनों एक नयी ट्रेंड उभर कर सामने आयी है, वे या तो मीडिया के कोई साधन हो, प्रिंट अथवा इलेक्ट्रानिक या इंटरनेट पत्रकारिता, हर जगह पाठकों की भूख बढ गयी है. इसे पुरा करने के लिए इन दिनों राजनीति, धर्म व सेक्स को आधार बनाया जाने लगा है. हिंदी पाठकों को भी इन दिनों पत्रकारिता के भटकाव का सामना करना पड रहा है. आखिर इसका क्या समाधान हो सकता है. कई ऐसे मुददे इससे उभर कर सामने आते है. मूल रूप से हमें इस पर विचार करने के पूर्व उन सभी तथ्यों पर गौर करना होगा जो इसके लिए उत्तरदायी है. जो सबसे प्रमुख बिंदू हमारी नजरों में उभर कर सामने आ रहा है वह है राष्ट्रीयता की भावना का अभाव. देश को स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष पुरे होने को है. दो तीन युद्वों को सामने देख चुके इस देश में आज भी राष्ट्रीयता की भावना सिर्फ 15 अगस्त व 26 जनवरी को स्कूलों में बच्चों के बीच देखी जा रही है. क्या कारण है कि आम जनता उस दिन मिली छुटटी को इंजावाय करने में जुट जाती है. क्या इसी के लिए आजादी की कल्पना की गयी थी. हिंदी अखबार व चैनल भी राष्ट्रीय त्योहारों को ग्लैमराईज कर प्रस्तुत करने में जुट जाते है. इस देश का दुर्भाग्य यह है कि शायद ही किसी के घर में देश का एक नक्शा भी उपलब्ध हो, अथवा है भी तो उसे प्रदर्शित किया गया हो, घर में उचित स्थान पर टंगा हो.जबकि जर्मनी, जापान सहित कई मुल्कों में ऐसा शायद ही देखने को मिलता है. स्वयं जिस अमेरिका के पिछलग्गू बनने में हमें कोई परेशानी नहीं होती उस देश में भी नागरिकों का देश प्रेम देखते बनता है. वहां की मीडिया राष्ट्रीय हितों के मुददे पर किसी को भी नहीं बक्शती है चाहे वह राष्ट्रपति हो या व्यावसायी, वैज्ञानिक हो या कोई अन्य. दूसरा सबसे बडा प्रश्न यह उठता है कि राजनीति को आखिर किस दशा में पत्रकारिता देखना चाहता है यह उसे स्वयं पता नहीं है. यहां अपराधी को महिमामंडित किया जाता है वही उसके सांसद व जनप्रतिनिधि बनने पर हिंदी पत्रकारिता में खिचाई करते हुए नैतिकता व शुचिता का बखान किया जाता है. जैसे अपराधी का जन प्रतिनिधि बनने में सिर्फ उसकी ही भूमिका हो, जनता,मीडिया, संवैधानिक संस्थाओं व सरकारी उपक्रमों की भूमिका गौण हो. इसकी पडताल नहीं की जाती कि कैसे कोई अपना मतदान नही कर पाता, क्यों मतदान को अनिवार्य घोषित नहीं किया जाता, मतदान नहीं करना दंडनीय क्यों नहीं बनाया जाता. आखिर क्यों मात्र 15 से 30 फीसदी वोट पाने वाला दल देश को दल दल में डाल देता है. मंहगाई, अपराध, आतंकवाद, भष्ट्राचार को पनपने में क्यो सत्तारूढ दल सार्थक भूमिका में स्वयं को खडा कर देता है.
धर्म को भी हिंदी पत्रकारिता जरूरत से ज्यादा बिकने वाली चीज मान बैठा है. किसी धर्म गुरू के व्याख्यान व आख्यान को जनता तक पहुंचाना और बात है किंतू सुबह से शाम तक योग, प्रवचन व धर्म चर्चा के नाम पर लोगों के दिमाग पर इस कदर बातों को फेट दिया जा रहा है जैसे धर्म व धार्मिक प्रवचन सुनने के बाद आदमी संत हो जाता है. जीवन के प्रति उसकी सोच बदल जाती है. वह सत्यकर्म की प्रेरित हो जाता है. हद तो तब हो जाती है जब तंत्र के नाम पर देर रात जहां ढेर सारी भूत प्रेतों की कथाएं सुनायी जाती है उसे लोगों के सामने परोसा जाने लगता है. जैसे हम कहीं श्वास ले रहे हो तो कोई प्रेत उसमें आकर बाधा न उत्पन्न कर दे. और तो और मसानी बाबाओं की नित्यलीला को दखिाकर आखिर हिंदी चैनल क्या कहना चाहते है. हिंदी पत्र भी इसमें पीछे नहीं है. हर कोई इसे अपने तरीके से बेच रहा है. एक नया ट्रेंड उभर कर सामने आया है वह है ज्योतषि के नये नये प्रयोग. कोई टैरो कार्ड को लेकर चर्चा में मसगुल है तो कहीं लैपटाप पर लोगों की कुडली खंगाली जा रही है. पाठकों के हर प्रश्न का तुरंत जबाब हाजिर है. ऐसे चैनल यह भी बता रहे है कि आप कौन सा वस्त्र पहनें, कैसी रंग की गाडी पर चले, आफिस का रूख कैसा हो, आप हस्ताक्षर कैसे करते है, आप कौन से दिन कौन सी वस्तु दान करें, कुत्ते को खिलायें. हिंदी क्षेत्र की मीडिया ने जीवन के हर पहलू पर नियंत्रण स्थापित करने में जुट गयी है. वह भी तब जब अखबार हो या चैनल इसकी पकड आज भी देश की 45 फीसदी निरक्षर जनता के समझ व पकड से बाहर है. उन्हें उभरते हुए बाजार के तौर पर मीडिया हाउस देख रहा है.
सबसे अहम मीडिया के बाजार का हथियार बन गया है सेक्स. इस पर कुछ भी चर्चा करना मतलब कीचड में कंकड मारना हो गया है. जितना इसे भारतीय जीवनचर्या में महत्व दिया गया था उससे भी आगे बढ कर संपूर्ण ज्ञान बांटने में हिंदी मीडिया लगा हुआ है. नारी के प्रत्येक अंग को विभिन्न कोणों से जांचने व परखने की जिम्मेवारी मीडिया ने अपने हाथों में ले ली है. हिंदी मीडिया के सशक्त साधन फिल्मों ने तो इसके नेत़त्व पर एकाधिकार किया रखा था लेकिन नये नये चैनलों ने उसे मात देने में कोई कसर नहीं छोड रखी है. कामसुत्र के रचयिता महर्षि वात्सायन आज जीवत होते तो उन्हें भी अपने अल्प ज्ञान को लेकर र्शर्र्र्मिनदगी उठानी पडती. बडे बडे पत्रकार उन्हें बढते यौनाचार के आंकडें पेश कर यह महसूस करने को बाध्य कर देते देखे आपकी पुस्तक से ज्यादा ज्ञान सदियों से जनता में है. ये और बात है कि अब इसका प्रयोग खुलमखुला हो रहा है. वर्तमान हिंदी साहित्यकारों की रचनाएं उन्हें बतलाती कि स्त्री विमर्श के माध्यम से आप जैसे विद्वानों की खिचाई कैसे की जा सकती है.
धर्म को भी हिंदी पत्रकारिता जरूरत से ज्यादा बिकने वाली चीज मान बैठा है. किसी धर्म गुरू के व्याख्यान व आख्यान को जनता तक पहुंचाना और बात है किंतू सुबह से शाम तक योग, प्रवचन व धर्म चर्चा के नाम पर लोगों के दिमाग पर इस कदर बातों को फेट दिया जा रहा है जैसे धर्म व धार्मिक प्रवचन सुनने के बाद आदमी संत हो जाता है. जीवन के प्रति उसकी सोच बदल जाती है. वह सत्यकर्म की प्रेरित हो जाता है. हद तो तब हो जाती है जब तंत्र के नाम पर देर रात जहां ढेर सारी भूत प्रेतों की कथाएं सुनायी जाती है उसे लोगों के सामने परोसा जाने लगता है. जैसे हम कहीं श्वास ले रहे हो तो कोई प्रेत उसमें आकर बाधा न उत्पन्न कर दे. और तो और मसानी बाबाओं की नित्यलीला को दखिाकर आखिर हिंदी चैनल क्या कहना चाहते है. हिंदी पत्र भी इसमें पीछे नहीं है. हर कोई इसे अपने तरीके से बेच रहा है. एक नया ट्रेंड उभर कर सामने आया है वह है ज्योतषि के नये नये प्रयोग. कोई टैरो कार्ड को लेकर चर्चा में मसगुल है तो कहीं लैपटाप पर लोगों की कुडली खंगाली जा रही है. पाठकों के हर प्रश्न का तुरंत जबाब हाजिर है. ऐसे चैनल यह भी बता रहे है कि आप कौन सा वस्त्र पहनें, कैसी रंग की गाडी पर चले, आफिस का रूख कैसा हो, आप हस्ताक्षर कैसे करते है, आप कौन से दिन कौन सी वस्तु दान करें, कुत्ते को खिलायें. हिंदी क्षेत्र की मीडिया ने जीवन के हर पहलू पर नियंत्रण स्थापित करने में जुट गयी है. वह भी तब जब अखबार हो या चैनल इसकी पकड आज भी देश की 45 फीसदी निरक्षर जनता के समझ व पकड से बाहर है. उन्हें उभरते हुए बाजार के तौर पर मीडिया हाउस देख रहा है.
सबसे अहम मीडिया के बाजार का हथियार बन गया है सेक्स. इस पर कुछ भी चर्चा करना मतलब कीचड में कंकड मारना हो गया है. जितना इसे भारतीय जीवनचर्या में महत्व दिया गया था उससे भी आगे बढ कर संपूर्ण ज्ञान बांटने में हिंदी मीडिया लगा हुआ है. नारी के प्रत्येक अंग को विभिन्न कोणों से जांचने व परखने की जिम्मेवारी मीडिया ने अपने हाथों में ले ली है. हिंदी मीडिया के सशक्त साधन फिल्मों ने तो इसके नेत़त्व पर एकाधिकार किया रखा था लेकिन नये नये चैनलों ने उसे मात देने में कोई कसर नहीं छोड रखी है. कामसुत्र के रचयिता महर्षि वात्सायन आज जीवत होते तो उन्हें भी अपने अल्प ज्ञान को लेकर र्शर्र्र्मिनदगी उठानी पडती. बडे बडे पत्रकार उन्हें बढते यौनाचार के आंकडें पेश कर यह महसूस करने को बाध्य कर देते देखे आपकी पुस्तक से ज्यादा ज्ञान सदियों से जनता में है. ये और बात है कि अब इसका प्रयोग खुलमखुला हो रहा है. वर्तमान हिंदी साहित्यकारों की रचनाएं उन्हें बतलाती कि स्त्री विमर्श के माध्यम से आप जैसे विद्वानों की खिचाई कैसे की जा सकती है.
Subscribe to:
Posts (Atom)