Monday, October 27, 2008
रिपोर्टिंग ऐसी जो पाठक मन भाये
वर्तमान हिंदी पत्रकारिता का परिद़श्य कुछ इस तरह बन चुका है कि पाठक के मन को लुभाने वाले समाचार को परोसने के नाम पर उलूलजूलल तथ्य परोसे जा रहे है. यह ध्यान रखा जा रहा है कि वह किसी को नुकसान न पहुंचायें चाहे वह भ्रष्टाचारी हो, अत्याचारी हो या देशद्रोही. आज की खबरों से न तो किसी का नुकसान पहुंचता है न वि शेष फर्क ही. पत्रकारित से प्रतिबद्वता,समर्पण व त्याग जैसे शब्द गायब हो चुके है. इसका प्रयोग किया भी जाता है तो प्रबंधकीय मिटिंगों में पत्रकारिता के तेवर को बचाये रखने के नाम पर पत्रकारों को घुटटी पिलाने मात्र के लिए ही. समाचार पत्र को संपादक नही बल्कि ब्रांड मैनेजर तय करने लगे है. ये ऐसे मैनेजर है जो नये संस्थानों से एमबीए की डिग्री लेकर बाजार में आ रहे है. इन्हें संस्थान को मुनाफे लाने के लिए किसी भी बात से गुरेज नही है. इन्हें इससे कोई खास मतलब नही कि रिपोर्ट से किसी की नींद उड जाती है या दिन का चैन खो जाता है. किसी भी भाषा वि शेष के पत्र हो उन्हें आप देख ले. उसमें खबरें कम चटपटी मसालेदार लटके झटके खुब दि खेंगे. एक पत्र में 25 खबरें हो तो कम से कम 40 विज्ञापन देखने को मिल जायेंगे. उनकी सफलता का मूल पाठकीयता कम दर्शनियता ज्यादा होती है. हिंदी पटटी में तो समाचार पत्रों को कबाडा ही बना दिया गया है. भाषा के नाम पर ऐसे प्रयोग किये जा रहे है कि किसी भी हिंदी प्रेमी के आंखो से बरबस आंसू निकल पडे. शिट,फन,फूड,फंडा को युवा के बीच लोकप्रिय मानकर खबरों के बीच उडेला जा रहा है.यहां पेज 3 पत्रकारिता भी स्वयं शरमा जाती है. यूथ व विमेंस के नाम पर प्रयोग इस तरह से किये जा रहे है कि भाषा विश्ेषज्ञ पानी भरने लगे.धार्मिक, सामाजिक व सांस्क़तिक रुपों को दर्शाने के चक्कर मे भाई बहन के रिश्ते हो या सास बहु के रिश्ते सब के बीच मीडिया पहुंच कर अपनी दखल बनाने में लगा है. संपादक की दखल मीडिया में नाम भर को रह गयी है.कई नामचीन अखबार तो अब बस मैनेजरों के सहारे ही अखबार को खींचने में अकलमंदी समझते है. पत्रकारिता मनोरंजन उद्योग का हिस्सा बन गयी है. मीडिया संचालको को पता तक नही कि पाठक जो चाहते है, वह उन्हें मिल भी रहा है या नही. उनके लिए विज्ञापन प्रदान करने वाली पठनीय या देखने की सामग्री उससे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है. स्वतंत्रता के समय समर्पित पत्रकारों की जो त्याग व सेवा भावना थी, वह स्वतंत्रता प्राइज़ के कुछ दिनों बाद तक बनी रही लेकिन 80 के दशक के बाद यह लुप्त प्राय हो चुकी है. मिडिया के सभी बडे दिग्गज इससे वाकिफ है लेकिन बाजारवाद के आगे सब के सब नतमस्तक हो चुके है. पत्रकारिता के प्रशिक्षण के दौरान भले ही सिद्वांत कितनी पढा दी जाये, व्यवहार में आने पर सब कुछ बदल जाता है. प्रशिक्षितों की टीम प्रशिक्षण के नाम पर ब्रांड के लिए पेशेवर तेवर बनाने व किसी को नुकसान न हो ऐसी खबरें गढने के लिए प्रेरित करती है. मीडिया हमेशा सत्ता की धूर विरोधी रही है चाहे वह जैसे भी हो. क्योकि सत्ता हमेशा अपने हिसाब से काम करती है, जनता उसके बीच से हासिये पर ढकेले जाते है,ऐसे में पत्रकारिता ही उनकी भावनाओं की रक्षा करती है. यह सही है कि जनांदोलनों के अभाव से वर्तमान मीडिया भ्रमित हो चुकी है. स्वयं मिडियां के क्षेत्र में भी समान विचारों वाले लोगों को आंदोलन के रूप में सामने आकर भावी पीढी को मागदर्शन करने की जरूरत है.
Friday, October 24, 2008
ठाकरे की राजनीति व नपूंसकों की जमात
इन दिनो मीडिया व देश का बच्चा बच्चा राज ठाकरे नाम के शख्स की चर्चा में मसगूल है. गोया ऐसी बात नही कि वह गांधीजी का उत्तराधिकारी हो गया है,बल्कि उसने देश को अंधकार के गर्त में ले जाने का ऐसा घिनौना प्रयास किया है जिसकी जितनी निंदा की जाये कम है. यह शख्स जब कल तक अमिताभ परिवार को अपना टारगेज बनाये हुए था,तब लोग उसके वि षय में तरह तरह के अर्थशास्त्र की व्याख्या कर रहे थे, अमितजी ने उससे माफी मांगने में ही अपनी भलाई समझी, इसके पूर्व भी जब ठाकरे के गंूडों ने बिहारी छात्रों व उत्तर भारतीयों को टारगेट में लेकर हमला बोला तो महाराष्ट्र सरकार व केंद्र सरकार इसे अगंभीरता पूर्वक ले रही थी. लेकिन अब तो सर से पानी उपर हो गया है. इस देश में राजठाकरे जैसे राजनेताओं को पनपने देने वाले वही नपूसंक नेता है जो कभी अपराधियों व गूंडों को संसद तक पहुंचाने में स्वयं को गर्वान्वित महसूस करते रहे है. पैर के घाव को ठीक करने के बाद जरूरी है कि सर के धाव को भी ठीक किया जाये.
Friday, October 17, 2008
दौडती भागती जिंदगी में पीछे छूट रही संवेदनाएं
आज की दौडती भागती जिंदगी में हमारी संवेदनाएं पीछे छूट जा रही है. एक ओर जहां ग्लोबलाइजेशन के दौर में सबकुछ सिमटा प्रतीत हो रहा है तो वही, कई भावनाएं विरले ही देखने को मिलती है. सत्ता का गलियारा हो या विश्वविद्यालय का कैंपस, अस्पताल की सेवा भावना हो या नगर निगम की गतिविधियां हर ओर आप नजर दौडाएं कहीं कोई तारतम्यता दि खाई नही देती है. लगता है मानो सब अपने अपने काम निपटाये जाने में ही भरोसा करते है. छोडिये इनकों साहित्य, पत्रकारिता, कला व फिल्म की ओर भी देखे तो मानों कही कोई सामान्य द़ष्टि देखने को नही मिलती जहां आम आदमी अपने वजूद को तलाश सके. इसलिए अब वहां भी कोई सर्वमान्य लेखक,पत्रकार या सुपर स्टार देखने को मिलता. इन सब के बीच आप अपने राष्ट्रीय पहचान को देखे तो सब कुछ अलग थलग दि खता प्रतीत होता है. क्या इसे सिर्फ द़ष्टि भ्रम कहकर आगे बढ जा सकता है. यह ठीक है कि पूर्व की सामाजिक गतिविधियों से वर्तमान की सामाजिक गतिविधियों में स्पष्टता व खुलापन आया है, लोगों की देखने की द़ष्टि बदली है.
Tuesday, October 14, 2008
तोल मोल की बाते
कैसे भी कुछ भी विचार आ जाते हो विचार अभिव्यक्ति की खुली छुट ने हिंदी ब्लॉग की दुनिया में सब कुछ जल्दी से उगल देने बडा अवसर उपलब्ध करा दिया है. हिंदी समाचार पत्रों ने अपने सामने एक लक्छामन रेखा खीच रखी है इसलिए वहा एसा कुछ कर पाना मुश्किल है.वहा तो सड़क पर एक गुमनाम मुशाफिर की मौत होने पर सिंगल कालम तो किशी नामचीन की मौत हो ने पर डबल कालम की परिपाटी चलती है.किसी नामचीन नेता ने कुछ उगला तो उसे तिन कालम तक जगह दी जा सकती है . एक औरत की इज्जत सरेआम लुटती है तो फिर उसीतरह से भेदभाव किया जाता है जैसे की गैंग रेप के मामले अलग तरह से. खबरों को लिखते समय यह देखना ज्यादा जरुरी समझा जाता है की उसका पाठक वर्ग कितना है ,किन पाठको को कितना ग्राम समाचार चाहिए. जितना ही ज्यादा कुंठित पाठक वर्ग होता है उन्हें उनके लायक खबरे परोसी जाती है. मनोरंजन के नाम पर तो लुट की खुली छुट है, कुछ कुछ हमारे ब्लोगर बंधू भी ऐसा एसा ही प्रस्तुत कर रहे है.मस्तिस्क के विकारों को निपटने का ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.किसी भी समाचार या विचार को पढ़ कर आप को मति भरम की शिकायत हो जाये तो बिहार वालो के पास एक बड़ी ही बेशकीमती बुधिवर्धक चूर्ण मिलाती है उसकी इस्तेमाल करना न भूले.हिंदी के सु लेखको को तथा प्रकाशको को आलू प्याज की तरह अपने लिखे व् छापे गए सामग्री की कीमत वसूल किये जाने मात्र से मतलब है. व्यक्ति का चरित्र तो खो ही रहा है राष्ट्र का चरित्र भी धूमिल हो रहा है. समाजिकता समाप्त हो रही है व्यकितिवाद हावी हो रहा है.हमारी निजता ,मौलिकता,विचारो की सुदृढ़ता ख़तम हो रही है.जोजेफ मेजनी के शब्दों में शिछा, स्वदेशी तथा स्वराज्य राष्ट्रीयता के तीन प्रधान स्तम्भ है. पता नहीं की आज जो पढाई हमें लाखो रूपये की नौकरी उपलब्ध करदेती है वह एक अच्छा इन्सान क्यों नहीं बना पाती है . स्वदेश व राष्ट्र के प्रति प्रेरित क्यों नहीं कर पाती है.स्त्री पुरुष,जाती धर्मं से ऊपर उठाकर दिन दुखियों की सेवा के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ पाती है. आज से सात दशक पूर्व गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने प्रताप में लिखा था - आदर्शो पर मरना और उनके लिए जीना उन लोगो की दृष्टि में केवल मुर्खता है जिन्हें सुगमता प्रिय है और जो हाथ के पास का लाभ देख सकते है और जिनकी संख्या अब दिन दिन बढती जाती है. गौर से हम देखे तो आज भी गुलामी से बेहतर नहीं है खाने को हम स्वतंत्र है लेकिन मानसिकता अब भी गुलामो वाली ही है. २१ वी सदी में भी वही जिसे पिटे लकीरों को हम पिट रहे है जो कब का ख़त्म हो जाना चाहए था. हिंदी पत्रकारिता व लेखन में जो परिवर्तन दिख रहे है उससे क्या आप और हम संतुष्ट है - विचार किया जाना चाहिए.
Saturday, October 11, 2008
साहित्य लोगों के अंतर्मन से दूर हो रहा है
इन दिनों हिंदी साहित्य लेखन आम जनों के अतर्मन से दूर होता जा रहा है. शायद हिंदी के लेखक व सुधी पाठकों के बीच मौजूद भ्रम को छोड दे तो ऐसा मालूम होता है कि साहित्य अब ज्यादातर स्व चिंतन व सुख के लिए लि खी जा रही है. अपने विचारों को थोपनें के चक्कर में कई बार अच्छे अच्छे लेखक भी भटकाव के शिकार हो रहे है. पिछले दिनों पटना में दिनकर जयंती के अवसर पर साहित्य अकादमी,नई दिल्ली द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बरबस साहित्य के प्रति घटती रूचि को लेकर प्रख्यात साहित्यकार,आलोचक व कवि अशोक बाजपेयी को कहना पडा,ऐसी भीड बिहार में ही देखने को मिल सकती है, साहित्य के प्रति ऐसा लगावा हिंदी भाषी अन्य प्रदेशों यूपी,राजस्थान या मध्य प्रदेश में भी देखने को नही मिलती. जब उनसे मैने पूछा कि हिंदी कविता को गद्य बनाने के पीछे कौन सी विवेक बुद्वि है तो उन्होने कहा कि हिंदी गद्य व पद्य को करीब आना ही चाहिये. दूसरी ओर साहित्य अकादमी के वरीय पदाधिकारी ब्रिजेंद्र त्रिपाठी का कहना था कि अकादमी अपनी ओर से प्रयास कर रहा है कि हिंदी कविता में पुन लय व छंदों को प्रमुखता मिले. जब हिंदी वाले ही अपने आप में यह तय नही कर सकते कि कौन सी चीज पाठकों को रूचिकर लगेगी और कौन सी नही, अथवा कैसे लेखन को वरीयता दी जानी चाहिये तो फिर भला आम पाठक अपनी समस्या को कहा रखें. वैसे निश्चित है कि प्रत्येक पाठक अपने प्रिय रचनाकार को बार बार अवश्य ही पढना चाहेगा. कार्यक्रम के दौरान जब हिंदी कविता में नारी विमर्श जैसी चीजें शामिल हो रही है या नही यह पुछे जाने पर कवियत्री अनामिका ने कहा कि कविता चौराहे पर होने वाली बातचीत की तरह हो चुकी है.सब कुछ सुख व दुख बांटना चाह रही है. निश्चित तौर पर इसमें नारी विमर्श के पुट भी शामिल हो रहे है. खैर, इतना तो सत्य है कि आज जो भी महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो रही खासकर, हिंदी भाषा में उनकी पांच सौ से तीन हजार प्रतियां ही प्रारंभ में छपती है,फिर उसके आठ दस पुनर्प्रकाशन के बाद उसकी सफलता का बखान किया जाता है. जबकि आज भी विदेशों में या अंग्रेजी भाषा के साहित्य की लाखों प्रतियां प्रकाशित होती है व प्रशंसित होती है. स्व भाषा या कहें राष्ट्रभाषा के संबंध में हमारी उदासीनता किस कदर है,इसकी परख करना मुश्किल है. आज से सात दशक पूर्व ही इस संबंध में गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए प्रताप में लि खा था कि जब किसी साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा दूसरे देश पर कब्जा करने की कवायद की जाती है तो सबसे पहले उसकी भाषा के पर कतर दिये जाते है. भाषा के बिना कोई राष्ट्र अपने संपूर्ण शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता. आज भी हम भले ही हिंदी के विस्तार, वैश्विक होने, बाजारवाद के लिए आवश्यक समझे जाने अथवा अन्य कारणों को लेकर हिंदी भाषा का गुणगान कर ले,यह कहने में जरा भी अतिश्योक्ति नही बरते कि हिंदी विश्व की किसी भी अन्य भाषा के समक्ष खडी होने की ताकत रखती है किंतू यह सत्य है कि हिंदी के प्रति लगाव व भाषा की समझ हममें विकसित होनी अब भी शेष है.
Monday, October 6, 2008
हिंदी पत्रकारिता की दूर्दशा व दशा
मौजूदा समय में हिंदी पत्रकारिता की दूर्दशा से सभी लोग परिचित है चाहे वे पत्रकारिता जीवन में शामिल है या उसके सामान्य पाठक. यहां मैं सिर्फ इतना भर कहना चाहता हूं कि पत्रकारिता जीवन को लेकर आज से 77 वर्ष पूर्व 1930 इसवीं में दैनिक प्रताप के संपादक व हिंदी पत्रकारिता के युग पुरूष गणेश शंकर विद्यार्थी ने जाे भी आशंकाएं व संभावनाएं व्यक्त की थी उससे एक इंच भी आगे नही बढ पायी है. क्या गजब की सोच उन्होने व्यक्त की थी, पत्रकारिता जीवन का कैसा मापदंड तय किया था,सामाचार पत्रों के संचालन के संबंध में विचार व्यक्त किया था,आज भी कमोबेश वैसे ही हिंदी पत्रकारिता चल रही है. बलिदानी पत्रकार गणेश जी की मौत उस समय हुई थी जब वे कानपुर में फैले दंगे के बीच जाकर बीच बचाव का कार्य कर रहे थे. लोगों को आपस में कटने भीडने से रोक रहे थे. आज कैसे कोई पत्रकार उस स्थिति में जाना स्वीकार कर सकता है जबतक की उसमें उतना नैतिक बल नही हो. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेद्वी, महामना मदनमोहन मालवीय जैसे संपादकों के साथ कार्य कर चुके गणेश जी ने तब कहा था कि अहिंसा हमारी नीति है धर्म नही. महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित उनके अनुयायी की द़ढ भावना ही थी कि उन्होने अपने प्रताप के माध्यम से भगत सिंह , विस्मल जैसे क्रांतिकारियों के विचारों को प्रमुखता दी,आज उनके विचार एक लेखक पत्रकार के रूप में हम देख परख सकते है. हद तो यह है कि गणेश जी एक ऐसे इंसान थ्ो जिन्होने अपने जीवन में पहली बार जेल यात्रा ब्रिटि श सरकार की खिलाफत के कारण नही बल्कि स्थानीय जमींदार के द्वारा किये जा रहे अत्याचार की आंखों देखी रिपोर्ट प्रताप में प्रकाशित किये जाने को लेकर करनी पडी थी.आज किसी संपादक की जेल यात्रा की इस प्रकार का कारण होना असंभव व नामुमकिन है. आज मशीनों के साथ पत्रकार व समाचार पत्रों को धन उगाहने का माध्यम बना दिया गया है. लोग बाग जीवन के साथ अपने कर्तव्यों को भी नही समझ पा रहे है.
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